शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

धर्म आधारित आरक्षण भारत के लिए विष का प्याला

भारत में सत्ता हस्तांतरण के पश्चात आरक्षण उन वर्गो को दिया गया था जो बेहद दबे और कमजोर जाति से संबंध रखते थे तथा आरक्षण के बिना उनका आगे बढ़ना असम्भव था । ग्रामीण और उपनगरीय क्षेत्रों में तो उनकी परछाई तक प्रदूषित मानी जाती थी । मूल रूप से इसे अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए 10 वर्षो के लिए रखा गया था । मगर यह आरक्षण न केवल 64 वर्षो से चला आ रहा है , बल्कि विभिन्न समुदायों में विद्वेष पैदा करने के लिए फैलता भी जा रहा है । इसमें उन समुदायों की आवश्यकता से अधिक वोट बैंक की राजनीति का हाथ है ।
अब ये आरक्षण विकराल रूप लेने लगा है । हिन्दू समाज की गुर्जर , कुम्हार आदि जातियों के साथ - साथ मुस्लिम व ईसाई समाज भी धार्मिक आधार पर आरक्षण मांगने लगे है । आखिर आरक्षण कब समाप्त होगा ? क्या यह देश को अखंड व सुरक्षित रहने देगा ? देश के अन्य वर्ग , जाति और समुदाय कब तक चुप रहेंगे ? एक दिन वह भी आरक्षण की मांग करेंगे । सामान्य कहे जाने वाली जातियां भी आरक्षण की मांग करेंगी । क्योंकि उनके लिए तो कुछ भी नहीं बचता , क्योंकि आरक्षित वर्ग आरक्षण के कारण तो अपना अधिकार लेता ही है । सामान्य वर्ग के हिस्से में भी भागीदार हो जाता है , ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या सामान्य वर्ग में गरीब व बेसहारा नहीं है ? या तो सरकार हर जाति और समुदाय के गरीब परिवार के युवाओं को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दें या फिर आरक्षण को समाप्त कर दें । वरना आरक्षण पाओ और आबादी बढ़ाओं ही चलता रहेंगा । देश की चिन्ता कोई नहीं करेगा ।
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में डॉ. भीमराव अम्बेदकर ने कहा था कि जातियां राष्ट्रविरोधी है । पहला , इसलिए कि ये सामाजिक जीवन में अलगाव लाती है । ये राष्ट्रविरोधी है क्योंकि ये समुदायों में ईष्या तथा घृणा पैदा करती है । यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र बनाना चाहते है तो हमें इन सभी कठिनाईयों से पार पाना होगा । भाईचारा होगा तो ही राष्ट्र बनेगा ।
पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर का कहना है कि जाति के आधार पर आरक्षण तथा अन्य उपाय समाज तथा राष्ट्रहित में नहीं है । उन्होंने कहा कि यह अत्यन्त गरीब तथा सभी समुदायों के जरूरतमंद लोगों को मिलना चाहिए ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 सबको समान अवसर देने का वचन देता है तो अनुच्छेद 15 ( 1 ) के द्वारा यह विश्वास दिलाया गया है कि जाति , धर्म , संस्कृति या लिंग के आधार पर राज्य किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा । मुसलमान व ईसाई आदि अल्पसंख्यकों को भी बहुसंख्यकों के बराबर स्वतंत्रता व रोजगार का अधिकार प्राप्त है । भारत का संविधान स्पष्ट शब्दों में धर्म आधारित आरक्षण की मनाही करता है । तो भी सन 2004 में आंध्र प्रदेश की तत्कालीन राजशेखर रेड्डी की सरकार ने संविधान की मूल भावना के विरूद्ध अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण हेतु धर्म के आधार पर विभाजित भारत के इतिहास में धर्म के आधार पर आरक्षण का एक नया पन्ना जोड़ा । जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ गौर कर रही है । अल्पसंख्यक वोटों के भूखे अन्य राजनीतिक दल भी इसका अनुकरण करने के लिए लालायित है ।
मुस्लिमों के लिए आरक्षण वस्तुतः उस मर्ज का इलाज ही नहीं है , जिससे मुस्लिम समुदाय ग्रस्त है । विडंबना यह है कि सेक्युलर दल अवसरवादी राजनीति के कारण उस मानसिकता को स्वीकारना नहीं चाहते । बुर्का प्रथा , बहुविवाह , मदरसा शिक्षा , जनसंख्या अनियंत्रण जैसी समस्याओं को दूर किए बगैर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की कवायद एक छलावा मात्र है । इस प्रतियोगी युग में भी अधिकांश मुस्लिम नेताओं द्वारा मदरसों की अरबी - फारसी शिक्षा को ही यथेष्ट माना जाना तथा अपने समुदाय के लोगों को जनसंख्या नियंत्रण के तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित न करना क्या दर्शाता है । वे अपनी बढ़ी आबादी के बल पर राजनीतिक दलों के साथ ब्लैकमेलिंग की स्थिति में है ।
हिन्दू और मुसलमानों की साक्षरता दर के साथ जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना करें तो मुस्लिमों के पिछड़ेपन का भेद खुल जाता है । केरल की औसत साक्षरता दर 90.9 प्रतिशत है । मुस्लिम साक्षरता दर 89.4 प्रतिशत होने के बावजूद जनसंख्या की वृद्धि दर 36 प्रतिशत है , जबकि हिन्दुओं में यह दर 20 प्रतिशत है । महाराष्ट्र में मुस्लिम साक्षरता दर 78 प्रतिशत होने के साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर हिन्दुओं की तुलना में 52 प्रतिशत अधिक है । छत्तीसगढ़ में साक्षरता 82.5 प्रतिशत तो जनसंख्या दर हिन्दुओं की तुलना में 37 प्रतिशत अधिक है । संसाधन सीमित हो और उपभोक्ता असीमित तो कैसी स्थिति होगी ?
अल्पसंख्यक बोट बटोरने के लिए आरक्षण को एक हथियार के रूप में प्रयुक्त कर रही राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को खुले मस्तिष्क से धर्म आधारित आरक्षण के दीर्घकालिक परिणामों पर सोचना चाहिए । धर्म के आधार पर आरक्षण कालांतरण में राज्य व केन्द्र स्तर पर अलग - अलग क्षेत्रों की मांग का भी मार्ग प्रशस्त कर सकता है । जो भारत के लिए विष का प्याला सिद्ध होगा । जाति और धर्म आधारित आरक्षण समाज में मतभेद बढ़ाता है और राष्ट्रीय एकता को खंडित करने का काम करता है ।
दूसरी ओर आर्थिक आधार पर आधारित आरक्षण कोई फूट नहीं डालता और विभिन्न समुदायों में कोई वैमनस्य नहीं बढ़ाता । अभी भी आरक्षण का आधार आर्थिक करने का एक अवसर है , इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाई जा सकती है । यदि धर्म आधारित आरक्षण दिया गया तो इसके परिणाम राष्ट्रीय एकता के लिए विष के समान घातक सिद्ध होगे ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत'

रविवार, 4 दिसंबर 2011

राष्ट्रधर्म - आचार्य चाणक्य

सम्राट चंद्रगुप्त अपने मंत्रियों के साथ एक विशेष मंत्रणा में व्यस्त थे कि प्रहरी ने सूचित किया कि आचार्य चाणक्य राजभवन में पधार रहे हैं । सम्राट चकित रह गए । इस असमय में गुरू का आगमन ! वह घबरा भी गए । अभी वह कुछ सोचते ही कि लंबे - लंबे डग भरते चाणक्य ने सभा में प्रवेश किया ।
सम्राट चंद्रगुप्त सहित सभी सभासद सम्मान में उठ गए । सम्राट ने गुरूदेव को सिंहासन पर आसीन होने को कहा । आचार्य चाणक्य बोले - " भावुक न बनो सम्राट , अभी तुम्हारे समक्ष तुम्हारा गुरू नहीं , तुम्हारे राज्य का एक याचक खड़ा है , मुझे कुछ याचना करनी है । " चंद्रगुप्त की आँखें डबडबा आईं । बोले - " आप आज्ञा दें , समस्त राजपाट आपके चरणों में डाल दूं । " चाणक्य ने कहा - " मैंने आपसे कहा भावना में न बहें , मेरी याचना सुनें । " गुरूदेव की मुखमुद्रा देख सम्राट चंद्रगुप्त गंभीर हो गए । बोले - " आज्ञा दें । " चाणक्य ने कहा - " आज्ञा नहीं , याचना है कि मैं किसी निकटस्थ सघन वन में साधना करना चाहता हूं । दो माह के लिए राजकार्य से मुक्त कर दें और यह स्मरण रहे वन में अनावश्यक मुझसे कोई मिलने न आए । आप भी नहीं । मेरा उचित प्रबंध करा दें । "
चंद्रगुप्त ने कहा - " सब कुछ स्वीकार है । " दूसरे दिन प्रबंध कर दिया गया । चाणक्य वन चले गए । अभी उन्हें वन गए एक सप्ताह भी न बीता था कि यूनान से सेल्युकस ( सिकन्दर का सेनापति ) अपने जामाता चंद्रगुप्त से मिलने भारत पधारे । उनकी पुत्री का हेलेन का विवाह चंद्रगुप्त से हुआ था । दो - चार दिन के बाद उन्होंने चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी । सेल्युकस ने कहा - " सम्राट , आप वन में अपने गुप्तचर भेज दें । उन्हें मेरे बारे में कहें । वह मेरा बड़ा आदर करते है । वह कभी इन्कार नहीं करेंगे । "
अपने श्वसुर की बात मान चंद्रगुप्त ने ऐसा ही किया । गुप्तचर भेज दिए गए । चाणक्य ने उत्तर दिया - " ससम्मान सेल्युकस वन लाए जाएं , मुझे उनसे मिल कर प्रसन्नता होगी । " सेना के संरक्षण में सेल्युकस वन पहुंचे । औपचारिक अभिवादन के बाद चाणक्य ने पूछा - " मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ । " इस पर सेल्युकस ने कहा - " भला आपके रहते मुझे कष्ट होगा ? आपने मेरा बहुत ख्याल रखा । "
न जाने इस उत्तर का चाणक्य पर क्या प्रभाव पड़ा कि वह बोल उठे - " हां , सचमुच आपका मैंने बहुत ख्याल रखा । " इतना कहने के बाद चाणक्य ने सेल्युकस के भारत की भूमि पर कदम रखने के बाद से वन आने तक की सारी घटनाएं सुना दीं ।
उसे इतना तक बताया कि सेल्युकस ने सम्राट से क्या बात की , एकांत में अपनी पुत्री से क्या बातें हुईं । मार्ग में किस सैनिक से क्या पूछा । सेल्युकस व्यथित हो गए । बोले - " इतना अविश्वास ? मेरी गुप्तचरी की गई । मेरा इतना अपमान । "
चाणक्य ने कहा - " न तो अपमान , न अविश्वास और न ही गुप्तचरी । अपमान की तो बात मैं सोच भी नहीं सकता । सम्राट भी इन दो महीनों में शायद न मिल पाते । आप हमारे अतिथि हैं । रह गई बात सूचनाओं की तो वह मेरा " राष्ट्रधर्म " है । आप कुछ भी हों , पर विदेशी हैं । अपनी मातृभूमि से आपकी जितनी प्रतिबद्धता है , वह इस राष्ट्र से नहीं हो सकती । यह स्वाभाविक भी है । मैं तो सम्राज्ञी की भी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखता हूं । मेरे इस ' धर्म ' को अन्यथा न लें । मेरी भावना समझें । "
सेल्युकस हैरान हो गया । वह चाणक्य के पैरों में गिर पड़ा । उसने कहा - " जिस राष्ट्र में आप जैसे राष्ट्रभक्त हों , उस देश की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता । " सेल्युकस वापस लौट गया ।
मित्रों आज भारत में फिर से एक विदेशी बहु का अप्रत्यक्ष राज चल रहा है , तो क्या हम भारतीय राष्ट्रधर्म का पालन कर रहे है ???
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 20 नवंबर 2011

अपने को हिन्दू बताते हुए मुझे गर्व का अनुभव होता है - स्वामी विवेकानन्द

शेर की खाल ओढ़कर गधा कभी शेर नहीं बन सकता । अनुकरण करना , हीन और डरपोक की तरह अनुसरण करना , कभी उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता । वह तो मनुष्य के अधःपतन का लक्षण है । जब मनुष्य अपने - आप पर घृणा करने लग जाता है , तब समझना चाहिए कि उस पर अंतिम चोट बैठ चुकी है । जब वह अपने पूर्वजों को मानने में लज्जित होता है , तो समझ लो उसका विनाश निकट है । यद्यपि मैं हिन्दू जाति में एक नगण्य व्यक्ति हूँ तथापि अपनी जाति और अपने पूर्वजों के गौरव से मैं अपना गौरव मानता हूँ ।
अपने को हिन्दू बताते हुए , हिन्दू कहकर अपना परिचय देते हुए मुझे एक प्रकार का गर्व - सा अनुभव होता है । ... अतएव भाइयों , आत्मविश्वासी बनो । पूर्वजों के नाम से अपने को लज्जित नहीं , गौरवान्वित समझों । याद रहे , किसी का अनुकरण कदापि न करो ।
- स्वामी विवेकानन्द

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

स्वतंत्र भारत में औद्योगिक क्रांति के समर्थक वीर नाथूराम गोडसे

वीर नाथूराम गोडसे एक विचारक , समाज सुधारक , हिन्दूराष्ट्र समाचार पत्र के यशस्वी संपादक एवं अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा होने के साथ - साथ स्वतंत्र भारत में औद्योगिक क्रांति के समर्थक भी थे । यह तथ्य उनके द्वारा अप्पा को लिखे गये पत्रों से सिद्ध होता है । प्रस्तुत है वीर नाथूराम गोडसे जी की भतीजी श्रद्धेया हिमानी सावरकर जी ( गोपाल गोडसे जी की पुत्री व वीर सावरकर जी की पुत्रवधु तथा हिन्दू महासभा की राष्ट्रीय अध्यक्षा , जिन्होंने हम सम्मानपूर्वक ताई जी कहते है । ) से प्राप्त वह ऐतिहासिक पत्र -
प्रिय अप्पा ,
कल आपका पत्र मिला उसमें कारखाने की हालत के बारे में कुछ जानकारी हुई । और कारखाने की संभावित वृद्धि को देखकर संतोष हुआ ।
आज - कल सरकार की यह नीति दिखाई देती है कि वह यंत्र आधारित धंधों को उत्तेजन देना चाहती है । और अगर स्वतंत्र भारत को सचमुच ही सम्पन्न करना है तो उसके लिए एक ही मार्ग है । और वह यह कि यंत्र प्रधान व्यवसायों का पोषण और उनकी वृद्धि करना । लेकिन विशेष बात यह है कि चरखा युग के अनेक लेप जिन पर चढे हुये है ऐसे नेता ही यंत्र प्रधान व्यवसायों की प्रशंशा करने लगे है ।
स्वतंत्र भारत में इन व्यवसायों के क्षेत्र को निर्भयता का स्थान प्राप्त होना बड़ी मात्रा में संभव है यह जरूर देखा जायेगा कि विदेशी चीजों की स्पर्धा अपने व्यवसायों को मारक न हो । अब इन व्यवसायों को धोखा एक ही बात है और वह यह कि श्रमिक लोगों को दायित्व शून्य रहने का अवसर देना । श्रमिक लोगों को किसी भी तरह की हानि न पहुँचाना और इन व्यवसाय केन्द्रों की वृद्धि करना यही नीति हमारे राष्ट्र के लिए हित कारक सिद्ध होने वाली है । श्रमिक और उद्योगपति इन दोनों में सामंजस्य पैदा करने की नीति का अवलम्ब ज्यादा सुसंबधता से करना आवश्यक है । हां लेकिन यह बात इन व्यवसायों को चलाने वालों के सोचने की नहीं है । उसके लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं की राष्ट्र की सम्पत्ति के संवर्धन की दृष्टि से श्रमिक और उद्योगपति इन वर्गो के बीच सौहाद्र का निर्माण करने की ओर यत्न होना चाहिये ।
आपका
नथुराम
दि. 27 - 12 - 1948

अमर बलिदानी नाथूराम गोडसे जवाहर लाल नेहरू की इस्लामप्रस्त नीतियों के ध्रुव विरोधी थे , लेकिन जब दिनांक 25 जनवरी 1949 के अंग्रेजी समाचार पत्र States man में The Central Advisory Council of Industry के अधिवेशन में प्रथम दिन का वृत्तांत पढ़ा तो उन्होंने अपने ध्रुव विरोधी नेहरू की औद्योगिकरण की नीतियों का पूर्ण समर्थन किया । यह बात वीर गोडसे ने अप्पा को दूसरे पत्र में लिखी । प्रस्तुत है उस पत्र का संक्षित्त अंश -
... प्रथम दिन का वृत्तांत मैंने पढ़ा डॉक्टर श्यामाप्रसाद अध्यक्ष थे और उदघाटन नेहरूजी ने किया था । ... नेहरूजी का एक ही भाषण मुझे बहुत ही अच्छा लगा । इस पत्र में यह बात लिखने की यह वजह है कि इससे यह विदित हुआ कि सरकार को इसकी पूरी जानकारी हुई कि उद्योग - धंधे और उत्पादन इनकी ओर बहुत ही सावधान होना परमावश्यक है । अपने राष्ट्र के कोने - कोने को आधुनिक विज्ञान की सहायता से प्रकाशित करना यही एक चीज है जिसने भारत का बल और सौख्य बढेगा । यदि हिन्दुस्थान की खेती यंत्रों की सहायता से की गयी तो इस सुजलां सुफलां राष्ट्रभूमि को पर्याप्त धान्य की पैदाइश होगी बल्कि यहाँ से बाहर अनाज भेजा जा सकेगा । भारतीयों के रहन - सहन और आर्थिक स्थिति के सुधार के लिए यहाँ का सब उत्पादन यंत्र - तंत्र से किया जाना चाहिए । यंत्र प्रधान उत्पादन के साथ - साथ ही श्रमिक और उद्योगपतियों के सहकार्य का प्रश्न भी काफी महत्वपूर्ण है । तुम खुद एक कारखाने के उत्पादक और संचालक हो । तुम्हारा कारखाना सिर्फ आजीविका का एक साधन नहीं है इस बात को मैं पूरी तरह से जानता हूँ । आपने कारखाने के चलाने में और संवर्धन में तुम्हारी प्रेरक शक्ति राष्ट्रीय ध्येयवाद की है । यह बात मुझे और आपके जान पहचान वालों को विदित है । आपकी श्रम करने की तैयारी आपको हमेशा यश देती रहेगी इसमें मुझे शक नहीं है । अब विदेश का माल बाजार में अधिक मात्रा में आ रहा है । यहाँ का उत्पादित माल बेचने में कठिनाई होगी यह सवाल कारखानदारों के सामने खडा है । ... और हमारी सरकार स्वतंत्र भारत की होती हुई भी यही सवाल हमारे कारखानादारों के सामने बहुत दिन तक खडा रहने वाला है इसमें कोई शक नहीं ।
आपका
नथुराम
दि. 02 - 02 -1949

रविवार, 13 नवंबर 2011

बाल दिवस : मेरे देश के बच्चों के आदर्श नहीं हो सकते नेहरू ?




ये है सच जवाहर लाल नेहरू का जो अपनी बेटी समान लड़कियों को भी अपनी अय्याशी का साधन समझता रहा । इसके जैसे निर्लज्ज अय्याश पुरूष को मैं क्या बच्चे भी स्वीकारने को तैयार नहीं कि इसे चाचा कहा जाये ।
जब स्वतंत्रता के संघर्ष में सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो सारा श्रेय कांग्रेस को मिला । प्रधानमंत्री पद के चुनाव में कुल 15 वोटों में से 14 वोट सरदार पटेल के पक्ष में और 1 वोट नेहरू के पक्ष में पड़ने के बाद भी नेहरू गांधी जी की कृपा से देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने । लेकिन 1955 में " ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट " Oh, that awful old hypocrite - ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढा कहकर नेहरू ने अपने प्रति किये गये गांधी के महान त्याग को अपमानित कर दिया ।
विदेश में पढ़ा एक व्यक्ति जो भारत की सनातन संस्कृति से अनजान था । जो अपने को हिन्दू कहलाने में अपमान समझता था । जो पराई स्त्री के चक्कर में इतना गिर सकता है कि जिसका कोई चरित्र ही नहीं हो , जो उन्मुक्त रूप से एक औरत के साथ सिगरेट पीता दिखाई देता है । ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन को अगर हमारी सरकार बाल दिवस के रूप में मनाती है , विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम करती है और कहती है इसने प्रेरणा ले ? अगर हमारे देश की आने वाली पीढ़ी इसके पद चिन्हों पर चलने लगे तो भारत का भविष्य अंधकारमय होगा ।
आज देश में जो आतंकवाद , संप्रदायवाद की समस्या है । कश्मीर की समस्या , राष्ट्र भाषा हिन्दी की समस्या और चीन तथा पाकिस्तान द्वारा भारत की भूमि पर अतिक्रमण की समस्या है । इन सभी समस्याओं के मुख्य उत्तरदायी जवाहर लाल नेहरू है , जिन्हें भारत सरकार चाचा नेहरू कहती है ?
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

एको ॐकार सतिनामु ...


रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रवणः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरूषं नृषु ।।
भगवान श्रीकृष्ण कहते है ' हे अर्जुन ! जल में रस मैं हूँ । चन्द्रमा तथा सूर्य में प्रकाश मैं हूँ । संपूर्ण वेदों में ॐकार मैं हूँ । आकाश में शब्द और पुरूषों में पुरूषत्व मैं हूँ । '
( श्रीमद्भगवद्गीता : 7.8 )
किसी भी जाति का , किसी भी देश , मत या संप्रदाय का बालक हो , जब वह पैदा होता है तब पहली ध्वनि ' ॐ ... आ ... ॐ ... आ ... ' कहाँ से आती है ? उसकी ध्वनि इसी ॐकार से मिलती है । ॐ अनहद्नाद है , परम संगीत है , सृष्टि के सभी स्वर इसमें पिरोए गये है । इसी से उनका जन्म हुआ है , इसी से उनको जीवन मिलता है और इसी में उन्हें लय होना है । ॐ सृष्टि की सभी ऊर्जाओं का परमस्रोत है । ॐ ध्यान बीज है । इसके सुदीर्घ ध्यान से सृष्टि के सभी रहस्य उजागर हो जाते है । ॐ के नाद का , ध्वनि का महत्व केवल सनातन धर्म या वैदिकों में ही नहीं बल्कि जैन , बौद्ध , सिक्ख आदि सभी में है । ईसाइयों का ' आमेन ' और इस्लाम का ' आमीन ' भी ॐ का ही रूप है ।
ॐ शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है । अ + उ + म् = ओम् । ॐ का ' अ ' कार स्थूल जगत का आधार है । ' उ ' कार सूक्ष्म जगत का आधार है । ' म् ' कार कारक जगत का आधार है । जो इन तीनो जगत से प्रभावित नहीं होता बल्कि तीनों जगत जिससे सत्ता - सफूर्ति लेते है फिर भी जिसमें तिलभर भी फर्क नहीं पड़ता , उस परमात्मा का द्योतक ॐ है ।
ॐ आत्मिक बल देता है । ॐ के उच्चारण से जीवनशक्ति ऊर्ध्वगामी है । इसके सात बार के उच्चारण से शरीर के रोग के कीटाणु दूर होने लगते है तथा चित्त से हताशा - निराशा भी दूर होती है । यही कारण है कि प्राचीन ऋर्षि - मुनि , वैज्ञानिकों ने सभी मन्त्रों के आगे ॐ जोड़ा है ।
एक बार सद्गुरू नानक नदी में गये और तीन दिन तक डूबे रहे , खो गये । फिर बाहर आये । वे बाहर की सरिता में सरिता में नहीं , वरन् अन्तर्मुखी वृत्तियों की सरिता में खो गये थे । नानकजी ध्यानमग्न हो गये थे । वे तीन दिन तक अन्तरात्मा के ध्यान में डूबे थे और तीन दिन बाद जब जगे , तब उनका पहला वचन था : एको ॐकार ... परमात्मा एक है ।
एको ॐकार सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरू ।
अकाल मूरति अजूनि सैभं गुरू प्रसादी ।।
आदि सचु जुगादि सचु ।
है भी सचु नानक होसी भी सचु ।।
एको ॐकार : परमात्मा एक है ।
सतिनामु : वही सत् है ।
करता पुरखु : वही प्रकृति को सत्ता देता है ।
निरभउ : वह निर्भय है ।
निरवैरू : उसका कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है ।
अकाल मूर्ति : वहाँ काल की गति नहीं है । काल संसार की सब वस्तुओं को खा जाता है , निगल जाता है , आकृतियों को नष्ट कर देता है लेकिन वह परमात्मा आकृति से परे है , निराकार सत्ता है ।
अजूनि : वह योनि में नहीं आता अर्थात अजन्मा है ।
सैभं : वह स्वयंभू है ।
गुर प्रसादि : उस परमात्मतत्व का जिन्होंने अनुभव किया हो ऐसे गुरूओं की जब कृपा बरसती है तब प्रसादरूप में वह मिलता है । आत्मतत्व की अनुभूति के रूप में वह मिलता है ।
आदि सचु जुगादि सचु : जो आदि में सत् था , जो युगों से सत् था ... युग बदल गये , समय बदल गया , परिस्थितियाँ बदल गई , मनुष्य बदल गये , मनुष्य के मन , बुद्धि , विचार बदल गये फिर भी वह नहीं बदला ।
है भी सचु नानक ! होसी भी सचु : जो युगों से सत् था , अभी - भी सत् है और बाद में भी सत् रहेगा , उसी को नानक ने एको ॐकार सतिनामु ... कहा है । उस अकाल पुरूष को जानने पर मनुष्य को कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता ।
ॐ का पहला अक्षर ' अ ' नाभि में कम्पन करता है , दूसरा अक्षर ' उ ' हृदय में कम्पन करता है और तीसरा अक्षर ' म् ' दोनों भोहों के मध्य आज्ञाचक्र में कम्पन करता है । ओम् ध्वनि के उच्चारण करने से समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियाँ और मन एकाग्र व अर्न्तमुखी हो जाता है तथा प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती है । ॐ ध्वनि का दीर्घकालिक अभ्यास समाधि के दिव्य नाद को भी प्राप्त करा देता है ।
सद्गुरू नानकदेव ज्यन्ति कार्तिक पूर्णिमा की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ॐ लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 9 नवंबर 2011

मेडिकल साइंस की नई आशा ॐ


ॐ ब्रह्मांड के निर्माण का रहस्य , परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग और अब विज्ञान जगत की नई आशा । हमारे सनातन वेद , उपनिषद् आदि शास्त्रों में ॐ का विशेष महत्व एवं उसकी मन्त्र शक्ति का उल्लेख किया गया है । वैदिक ऋचाओं से निकले ॐ में अब मेडिकल साइंस उन बीमारियों का इलाज खोज रही है जिनसे दवाएँ हार गई है ।
विश्व के अनेक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि ॐ के उच्चारण मात्र से अनेक रोगों की चिकित्सा संभव है । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ' साइंस ' में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि ॐ एक ऐसा शब्द है जिसका अलग - अलग आवृत्तियों में जाप हृदय , मस्तिष्क , पेट और रक्त से जुड़ी कई बीमारियों के इलाज में चमत्कारी असर दिखा सकता है । यहाँ तक कि सेरीब्रल पैल्सी जैसी असाध्य बीमारी में भी इसके सकारात्मक प्रभाव देखने में आये है ।
पत्रिका में रिसर्च एंड एक्सपेरिमेंटल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइंसेज की एक टीम का शोध प्रकाशित किया गया है । टीम के प्रमुख प्रोफेसर जे. मॉर्गन के अनुसार उनकी टीम ने सात वर्ष तक हृदय और मस्तिष्क के रोगियों पर परीक्षण किया है । परीक्षण के दौरान देखा गया कि ॐ का अलग - अलग आवृत्तियों और ध्वनियों में नियमित जाप काफी प्रभावशाली है । ॐ का उच्चारण पेट , हृदय और मस्तिष्क में एक कंपन पैदा करता है । देखा गया कि यह कंपन शरीर की मृत कोशिकाओं को पुनर्जीवन देता है और नई कोशिकाओं का निर्माण भी करता है । यह जाप मस्तिष्क से लेकर नाक , गला , फेफड़े तक के हिस्से में बड़ी तेज तरंगों का वैज्ञानिक रूप से संतुलित संचार करता है ।
प्रो. मॉर्गन ने बताया कि परीक्षण के लिए मस्तिष्क और हृदय के विभिन्न रोगों से ग्रस्त 2500 पुरूषों और 2000 स्त्रियों को चुना गया । इनमें से कुछ लोग बीमारी के अंतिम चरण में पहुँच चुके थे । प्रो. मॉर्गन की टीम ने धीरे - धीरे इन लोगों को मिलने वाली बाकी दवाइयाँ बंद कर सिर्फ वही दवाएँ जारी रखीं जो जीवन बचाने के लिए आवश्यक थी । डॉक्टरी निरीक्षण में इन लोगों ने प्रतिदिन सुबह छह से सात बजे तक एक घंटे तक विभिन्न आवृत्तियों में ॐ का जाप किया । इसके लिए योग्य प्रशिक्षक रखे गए थे । हर तीन माह पर इन लोगों का शारीरिक परीक्षण करवाया गया । चार वर्ष बाद सामने आए परिणाम चौंकाने वाले थे । 70 प्रतिशत पुरूष और 85 प्रतिशत स्त्रियों को 90 प्रतिशत फायदा मिला । कुछ लोगों पर इसका प्रभाव 10 प्रतिशत ही हुआ । लेकिन प्रो. मॉर्गन ने इसका कारण रोग का अन्तिम अवस्था में पहुँचना बताया ।
अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान द्वारा किये गये एक रिसर्च के अनुसार ॐ के उच्चारण से इंटरनल , ऑटोनोमिक नर्व्स पर प्रभाव पडता है और दोनों की गतिविधियाँ कम हो जाती है । जिससे लोग शान्ति अनुभव करने लगते है । एंग्जाइटी , डिप्रेशन व रक्तचाप ठीक हो जाता है । ॐ के उच्चारण से नाभि से लेकर मस्तिष्क तक धमनियाँ सामान्य होने लगती है । इससे रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है , जिससे ॐ का प्रभाव नकारा नहीं जा सकता ।
ॐ को उच्चारण की दृष्टि से तीन स्वरों अ , उ एवं म् के रू में स्पष्ट किया जाता है । ' अ ' सृष्टि के उद्भव का , ' उ ' सृष्टि के विस्तार का तथा ' म् ' सृष्टि के समाहार का प्रतिक है । ' अ ' शब्द के उच्चारण से ओज एवं शक्ति का विकास होता है । ' उ ' शब्द के उच्चारण से यकृत , पेट एवं आंतों पर अच्छा प्रभाव पडता है । ' म ' शब्द के उच्चारण से मानसिक शक्ति विकसित होती है । विभिन्न मनोदैहिक रोगों के उपचार में ॐ ( ओम् ) मन्त्र की सफलता असंदिग्ध है । असाध्य मानसिक रोगों में भी इस मन्त्र से आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त किये जा सकते है । तनाव , अवसाद जैसे मनोरोगों से पीडित मनुष्य के लिए यह मन्त्र किसी औषधि से कम नहीं है । ॐ जाप स्नायुओं की दुर्बलता , हृदय रोग , उच्च व निम्न रक्तचाप , मधुमेह जैसे रोगों में भी लाभदायक है । ओम् मन्त्र के नियमित जाप से हृदय की शुद्धि होती है तथा मानसिक शक्ति प्रखर होती है ।
ॐ का प्रयोग करें और लाभ उठाएँ : -
आप स्वयं भी ॐ के चमत्कारी लाभों से फायदा उठा सकते है । प्रतिदिन प्रातः और रात्रि सोते समय ओम् का जाप पाँच - दस मिनट तक करें और फिर कुछ देर बिना बोले ( मानसिक ) जाप करें । कुछ ही दिनों में आप देखेंगे कि आप के सारे के सारे शारीरिक और मानसिक रोग ठीक होते जा रहे है । बुद्धि , स्मरणशक्ति , शक्ति , उत्साह तथा प्रसन्नता आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती ही जायेगी ।
ॐ लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 6 नवंबर 2011

त्याग एवं गौ पूजा के पवित्र पर्व बकर ईद ( ईद - उल - जुहा ) के अवसर पर एक अनुरोध :- अल्लाह के नाम पर पशु - बलि जैसा महापाप क्यों ?

बकर ईद ( ईद - उल - जुहा ) त्याग और गौ पूजा का महान पर्व है , जो त्याग के महिमावर्द्धन और गौ वंश के संरक्षण के लिए मनाया जाता है । त्याग की प्रेरणा के लिए हजरत इब्राहीम के महान त्याग को याद किया जाता है और गौ पूजा के लिए प्राचीन अरबी समाज की समृद्ध वैदिक संस्कृति को । बकरीद अर्थात बकर + ईद , अरबी में गाय को बकर कहा जाता है , ईद का अर्थ पूजा होता है । जिस पवित्र दिन गाय की सेवा करके पुण्य प्राप्त किया जाना चाहिए , उस दिन ईद की कुर्बानी देने के नाम पर विश्वभर में लाखों निर्दोष बकरों , बैलों , भैसों , ऊँटों आदि पशुओं की गर्दनों पर अल्लाह के नाम पर तलवार चला दी जाएगी , वे सब बेकसूर पशु धर्म के नाम पर कत्ल कर दिए जायेगे ।
कुर्बानी की यह कुप्रथा हजरत इब्राहीम से सम्बंधित है । इस्लामी विश्वास के अनुसार हजरत इब्राहीम की परीक्षा लेने के लिए स्वयं अल्लाह ने उनसे त्याग - कुर्बानी चाही थी । हजरत इब्राहीम ज्ञानी और विवेकवान महापुरूष थे । उनमें जरा भी विषय - वासना आदि दुर्गुण नहीं थे , जब दुर्गुण ही नहीं थे तो त्यागते क्या ? उन्हें मजहब प्रचार के हेतु से पुत्र मोह था , अतः उन्होंने उसी का त्याग करने का निश्चय किया । मक्का के नजदीक मीना के पहाड़ पर अपने प्रिय पुत्र इस्माईल को बलि - वेदी पर चढाने से पहले उन्होंने अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली । जब बलि देने के बाद पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने सामने खड़ा देखा । वेदी पर कटा हुआ मेमना पड़ा हुआ था ।
त्याग के इस महान पर्व को धर्म के मर्म से अनजान स्वार्थी मनुष्यों ने आज पशु - हत्या का पर्व बना दिया है । लगता है कि आज के मुस्लिम समाज को भी अल्लाह पर विश्वास नहीं है तभी तो वे अपने पुत्रों की कुर्बानी नहीं देते बल्कि एक निर्दोष पशु की हत्या के दोषी बनते है । यदि बलि देनी है तो बलि विषय वासनाओं , इच्छाओं और मोह आदि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए , निर्दोष निरीह पशुओं की नहीं । पशु बलि न तो इस्लाम के अनिर्वाय स्तम्भों में से एक है और न ही मुसलमानों के लिए अनिवार्य कही गयी है । पशु हत्या के बिना भी एक पक्का मुसलमान बना जा सकता है । इस्लाम का अर्थ शान्ति है तो ईद के अवसर पर निर्दोष पशुओं की हत्या का चीत्कार क्यों ?
जब एक पशु किसी मनुष्य को मारता है तो सभी लोग उसको दरिंदा कहते है , और जब एक मनुष्य किसी पशु को मारकर या मरवाकर उसकी लाश को मांस के नाम से खाता है तो आधुनिक बुद्धिजीवी मनुष्य उसको दरिंदा न कहकर मांसाहारी कहते है । क्या मांस किसी पशु की हत्या किए बिना प्राप्त हो जाता है ? अल्लाह के नाम पर , धर्म के नाम पर पशु बलि व मांसाहार की दरिंदगी को छोड़कर स्वस्थ और सुखद शाकाहारी जीवन अपनाओं ।
शाकाहार विश्व को भूखमरी से बचा सकता है । आज विश्व की तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के सामने खाद्यान्न की बड़ी समस्या है । एक कैलोरी मांस को तैयार करने में दस कैलोरी के बराबर शाकाहार की खपत हो जाती है । यदि सारा विश्व मांसाहार को छोड़ दे तो पृथ्वी के सीमित संसाधनों का उपयोग अच्छी प्रकार से हो सकता है और कोई भी मनुष्य भूखा नहीं रहेगा क्योंकि दस गुणा मनुष्यों को भोजन प्राप्त हो सकेंगा । कुर्बानी की रस्म अदायगी के लिए सोयाबीन अथवा खजूर आदि का उपयोग किया जा सकता है ।
बकर ईद के अवसर पर गौ आदि पशुओं के संरक्षण का संकल्प लिया जाना चाहिए । हदीस जद - अल - माद में इब्न कार्य्यम ने कहा है कि " गाय के दूध - घी का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि यह सेहत के लिए फायदेमंद है और गाय का मांस सेहत के लिए नुकसानदायक है । "
ईश्वर पशु - हत्यारों को सद्बुद्धि प्रदान करे और वे त्याग एवं गौ पूजा के इस पवित्र पर्व बकर ईद के तत्व को समझकर शाकाहारी और सह - अस्तित्व का जीवन जीने का संकल्प लें , हार्दिक शुभकामनाएँ ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

तेरह साल की क्रांतिकारी मैना

सन् 1857 के स्वतंत्रता समर की आग भड़क उठी थी । मेरठ , कानपुर और दिल्ली इसके प्रमुख केन्द्र थे । कानपुर की क्रांति का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे । इस क्रांति को कुचलने के लिए अंग्रेजी सरकार देशभक्तों को पकड़ने और नष्ट करने लगी । ऐसी विषम स्थिति में नानाजी को अन्य स्थानों से बुलावा आया तो उनका बिठूर ( कानपुर ) छोड़कर जाना आवश्यक हो गया तो उन्होंने कानपुर की क्रांति की बागडोर अपनी तेरह वर्ष की वीर पुत्री " मैना " को सौप दी ।
क्रांतिकारियों और अंग्रजी सेनाओं में जगह - जगह युद्ध होने लगे , जिनमें मैना ने भी बढ़ - चढ़कर भाग लिया और अपनी वीरता का परिचय दिया । युद्ध भूमि में अंग्रेजी सेना के घेरे में फँसे तात्या टोपे को बचाने के लिए वह अंग्रेज सेना पर टूट पड़ी । अचानक हुए इस हमले से अंग्रेज घबरा गये और उधर तात्या को भागने का मौका मिल गया । साहसी मैना दूर तक शत्रुओं का पीछा करती रही । यह युद्ध कई घण्टे चला । वह अंग्रेजों को चकमा देकर युद्ध भूमि से निकल गई और गंगा नदी के तट पर तात्या टोपे के साथ आगे की योजना बनाने लगी कि तभी घोड़े पर सवार अंग्रेज सेना की टुकड़ी आ धमकी । तात्या टोपे तो नदी को पार कर निकल गये परन्तु मैना घिर गई । मैना तुरन्त तलवार निकाल कर अंग्रेज सेना के साथ वीरतापूर्ण युद्ध करने लगी । दुर्भाग्य से उनके हाथ से तलवार गिर गई और शत्रुओं ने उन्हें पकड़कर बंदी बना लिया और फिर उन्हें सेनापति के सामने पेश किया गया । सेनापति कुछ देर तक मैना को देखता रहा फिर उसने डांटकर उनसे उनका परिचय पूछा तो मैना ने कहां कि मैं वीर सैनानी नाना साहब पेशवा की बेटी हूँ , मेरा नाम मैना है । यह सुनकर सेनापति कुटिलतापूर्वक बोला , ' तुम नाना की बेटी हो जो हमारा कट्टर शत्रु है , तुम्हें अपने पिता का ठिकाना तो मालूम ही होगा ? तुम हमें अपने पिता का पता बता दो तो तुम्हें ईनाम मिलेगा अन्यथा तुम्हें जिंदा जला दिया जायेगा । '
अंग्रेज सेनापति की बात सुनकर मैना का स्वाभिमान जाग उठा , ' गोरे सरदार शायद तुमने वीरांगनाओं का इतिहास नहीं पढ़ा है । तुम मुझे जला देने की धमकी दे रहे हो , इस बात पर मुझे हँसी आती है । आग ही विपत्ति के समय भारतीय वीरांगनाओं की रक्षा करती है । मैं प्राण देना उचित समझती हूँ पर भेद नहीं बता सकती । '
मैना का ओजस्वी उत्तर सुनकर अंग्रेज सेनापति क्रौध से बौखला उठा और मैना को शैतान लड़की बताकर आग में झोंकने का आदेश दे दिया । अंग्रेज सेनापति द्वारा दी गई सजा को सुनकर आत्मा की अमरता को जानने वाली वीर मैना ने निर्भीकता पूर्वक कहा , ' आज तुम मुझे कोई भी दंड दो , उसकी मुझे कोई चिंता नहीं है लेकिन याद रखो , तुम इस देश को अधिक समय तक गुलाम बनाकर नहीं रख सकोगे । '
गिरफ्तारी के दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही अंग्रेजों ने मानवता को शर्मसार करते हुए मैना को खम्बे से बांधकर अंग्नि के हवाले कर दिया । तेरह वर्ष की उम्र में आत्म - उत्सर्ग करने वाली माँ भारती की वीर पुत्री मैना को कोटि - कोटि प्रणाम ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

विजया दशमी उत्सव का संदेश


विजयादशमी उत्सव विजय का प्रतीक है । सम्पूर्ण राष्ट्र भक्तों के अंतःकरण में नव चैतन्य , आत्मविश्वास एवं विजय की आकांक्षा जगाने और उसे पूर्ण करने के लिए समाज की सुसंगठित शक्ति खड़ी करने तथा उसके लिए कटिबद्ध होकर खड़े होने का संदेश देना वाला यह दिवस है । इसका ऐतिहासिक एवं पौराणिक महत्व भी है । सनातन धर्म परंपरा में आश्विन शुक्ल दशमी अक्षय स्फूर्ति , शक्ति पूजा एवं विजय प्राप्ति का दिवस है । किसी भी शुभ , सात्विक तथा राष्ट्र गौरवशाली कार्य को प्रारम्भ करने के लिए यह दिवस सर्वोत्तम माना गया है । विजय की अदम्य प्रेरणा इसके द्वारा प्राप्त है । यह उत्सव आसुरी शक्तियों पर दैवी शक्तियों की विजय का प्रतीक है ।
सत्ययुग में भगवती दुर्गा के रूप में देवताओं की सामूहिक शक्ति ने असुरता का , महिषासुर का मर्दन किया । त्रेता में भगवान श्रीराम ने वनजातियों का सहयोग लेकर , उन्हें संगठित कर विश्वविजेता रावण की आसुरी शक्ति का विनाश किया , रावण का वध किया । द्वापर में इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में दैवी शक्तियों ने संगठित होकर आसुरी शक्तियों का विध्वंश किया । इस दिन शस्त्र पूजन की परंपरा है । बारह वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात पाण्डवों ने अपने शस्त्रों का पूजन इसी दिन किया था तथा उन्हें पुनः धारण किया था । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिन्दुत्व का स्वाभिमान लेकर हिन्दुपद पादशाही की स्थापना करने वाले क्षत्रपति शिवाजी द्वारा सीमोल्लंघन की परम्परा का प्रारम्भ भी इसी दिवस से हुआ था ।
रामलीला तथा दुर्गापूजा इन दोनों उत्सवों को इस विजयशाली दिवस की पावन स्मृति लोक मानस में बनाये रखने की दृष्टि से ही मनाया जाता है । यह शक्ति - उपासना एवं विजय प्राप्ति का पर्व है । संघे शक्ति सर्वदा । दुर्गा पूजा - दुर्गा संगठित शक्ति की प्रतिक है और शस्त्र पूजा शक्ति का प्रतीक है । शस्त्र संचालन के अभ्यास से पौरूष , पराक्रम , साहस , उत्साह व उमंग का संचार होता है और सीमोल्लंघन अर्थात आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त होती है । इस उत्सव के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न बनने और राष्ट्र - धर्म के लिए सर्वस्व अर्पण करने की प्रेरणा दी जाती है । पतित , पराभूत , आत्म - विस्मृत तथा आत्मविश्वास शून्य हिन्दू समाज को शक्तिशाली और वैभवयुक्त बनाने के लिए कितनी भी विकट परिस्थितियों में विचलित न होने , आत्मविश्वास व नीतिमत्ता तथा धैर्य से , प्रबल से प्रबल शत्रुओं को परास्त करने का संदेश देता है यह महान उत्सव ।
सभी को विजयादशमी उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

गांधी जी नेताजी सुभाष की दृष्टि में ?


आजाद हिन्द फौज के पुर्नसंस्थापक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने गांधी जी के जीवन - चरित्र को देखते हुए उनकी तुलना हिटलर जैसे तानाशाह से की थी । यह पढ़कर आप चकित होगें कि क्या यह लेख सत्य है - अंतरराष्ट्रीय मंच से गांधी जी को " राष्ट्रपिता " की उपाधि देने वाले नेताजी सुभाष ने उनकी ऐसी तुलना की होगी , कदापि नहीं । किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है - नेताजी सुभाष ने ऐसा ही लिखा है । ऑक्सफोर्ड पूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुस्तक " द इंडियन स्ट्रगल 1920 - 1942 " में बोस ने लिखा है कि गांधी ने जनता की मनोभावना का ठीक वैसे ही दोहन किया , जैसे इटली में मुसोलिनी , रूस में लेलिन और जर्मनी में हिटलर ने किया था ।
गांधी जी जानते थे कि भारतीय हिन्दू समाज में यूरोप की तर्ज पर स्थापित चर्च की तरह कभी कोई संस्था नहीं रही , लेकिन भारतीय जन मानस को हमेशा से आध्यात्मिक व्यक्तित्व प्रभावित करते रहे है और लोग उन्हें साधु , संत और महात्मा के रूप में पहचानने लगते है । भारतीय जनता की इसी मनोभावना का दोहन गांधी जी ने मिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनकर किया था ।
नेताजी सुभाष ने गांधी जी को बहुत निकट एवं गहराई से देखा था , उनके साथ भारतीय स्वाधीनता की लडाई लड़ी थी , तो फिर क्या कारण रहें कि गांधी जी को राष्ट्रपिता कहकर सम्मानित करने वाले नेताजी सुभाष ने उनकी तुलना हिटलर जैसे निरंकुश तानाशाह से कर दी ?
इसका कारण खोजने के लिए हमें उस समय के इतिहास के पन्नों को खंगालना होगा । कुछ विशेष कारणों को आप इसी ब्लॉग पर लिखें गये निम्नलिखित लेखों से भी जान सकते है -
1. नेताजी सुभाष के प्रति गांधीजी का द्वेषपूर्ण व्यवहार
2. इरविन - गांधी समझौता और भगतसिंह की फाँसी भाग - एक , भाग - दो
3. अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा वीर नाथूराम गोडसे भाग - एक , भाग - दो , भाग - तीन
4. गौहत्या पर प्रतिबंध के खिलाप गांधी - नेहरू परिवार
5. क्रान्तिकारी सुखदेव का गांधी जी के नाम खुला पत्र ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 28 सितंबर 2011

गढ़ तो आया पर सिंह चला गया



तानाजी मालुसरे शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान सरदार थे । उनके पुत्र के विवाह की तैयारी हो रही थी । चारों ओर उल्लास का वातावरण था ।
तभी शिवाजी महाराज का संदेश उन्हें मिला - माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता , तब तक वे अन्न - जल ग्रहण नहीं करेंगी । तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है ।
स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया - विवाह के बाजे बजाना बन्द करों , युद्ध के बाजे बजाओं ।
अनेक लोगों ने तानाजी से कहा - अरे , पुत्र का विवाह तो हो जाने दो , फिर शिवाजी के आदेश का पालन कर लेना । परन्तु , तानाजी ने ऊँची आवाज में कहा - नहीं , पहले कोण्डाणा दुर्ग का विवाह होगा , बाद में पुत्र का विवाह । यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा । यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे ।
बस , युद्ध निश्चित हो गया । सेना लेकर तानाजी शिवाजी के पास पुणे चल दिये । उनके साथ उनका भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए । पुणे में शिवाजी ने तानाजी से परामर्श किया और अपनी सेना उनके साथ कर दी ।
दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग पर तानाजी के नेतृत्व में हिन्दू वीरों ने रात में आक्रमण कर दिया । भीषण युद्ध हुआ । कोण्डाणा का दुर्गपाल उदयभानु नाम का एक हिन्दू था जो स्वार्थवश मुस्लिम हो गया था । इसके साथ लड़ते हुए तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए । थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया ।
सूर्योदय होते - होते कोण्डाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया । शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे । परन्तु , जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है , तब उनके मुख से निकल पड़ा - गढ़ तो हाथ में आया , परन्तु मेरा सिंह ( तानाजी ) चला गया ।
उसी दिन से कोण्डाणा दुर्ग का नाम सिंहगढ़ हो गया ।
तानाजी जैसे स्वामी भक्त वीर तथा क्षत्रपति शिवाजी जैसे वीर स्वामी को कोटि - कोटि नमन ।
वन्दे मातरम् ुसरे शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान सरदार थे । उनके पुत्र के विवाह की तैयारी हो रही थी । चारों ओर उल्लास का वातावरण था ।
तभी शिवाजी महाराज का संदेश उन्हें मिला - माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता , तब तक वे अन्न - जल ग्रहण नहीं करेंगी । तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है ।
स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया - विवाह के बाजे बजाना बन्द करों , युद्ध के बाजे बजाओं ।
अनेक लोगों ने तानाजी से कहा - अरे , पुत्र का विवाह तो हो जाने दो , फिर शिवाजी के आदेश का पालन कर लेना । परन्तु , तानाजी ने ऊँची आवाज में कहा - नहीं , पहले कोण्डाणा दुर्ग का विवाह होगा , बाद में पुत्र का विवाह । यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा । यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे ।
बस , युद्ध निश्चित हो गया । सेना लेकर तानाजी शिवाजी के पास पुणे चल दिये । उनके साथ उनका भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए । पुणे में शिवाजी ने तानाजी से परामर्श किया और अपनी सेना उनके साथ कर दी ।
दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग पर तानाजी के नेतृत्व में हिन्दू वीरों ने रात में आक्रमण कर दिया । भीषण युद्ध हुआ । कोण्डाणा का दुर्गपाल उदयभानु नाम का एक हिन्दू था जो स्वार्थवश मुस्लिम हो गया था । इसके साथ लड़ते हुए तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए । थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया ।
सूर्योदय होते - होते कोण्डाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया । शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे । परन्तु , जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है , तब उनके मुख से निकल पड़ा - गढ़ तो हाथ में आया , परन्तु मेरा सिंह ( तानाजी ) चला गया ।
उसी दिन से कोण्डाणा दुर्ग का नाम सिंहगढ़ हो गया ।
तानाजी जैसे स्वामी भक्त वीर तथा क्षत्रपति शिवाजी जैसे वीर स्वामी को कोटि - कोटि नमन ।
वन्दे मातरम्
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 25 सितंबर 2011

महाराजा हरिसिंह द्वारा लार्ड माउंटबेटन को लिखा गया पत्र


मित्रों जम्मू और कश्मीर ऐतिहासिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग है । किन्तु फिर भी कुछ अरब साम्रज्यवादी विचारधारा के अलगाववादी जेहादी आतंकवादी उसे भारत से अलग करने की मांग करते रहते है । अब उनकी देशविभाजक मांग को कश्मीर की कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टीयों और सैक्युलर भेड़ियों का भी समर्थन प्राप्त होने लगा है । एक तरफ केन्द्र सरकार के वार्ताकार जम्मू कश्मीर को स्वायतता दिये जाने के पक्ष में है तो दूसरी तरफ अन्ना हजारे ग्रुप के सदस्य प्रशांत भूषण उसे पाकिस्तान को दिये जाने की बात करते है । ऐसी विषम स्थिति में महाराजा हरिसिंह द्वारा लार्ड माउंटबेटन को लिखा गया पत्र आपके सामने है । आप स्वयं विचार करें कि जम्मू कश्मीर पर किसका अधिकार है ?
मेरे प्रिय लार्ड माउंटबेटन ,
मुझे आपको सूचित करना है कि मेरे राज्य में एक गम्भीर आपातकाल की स्थति उत्पन्न हो गई है और मैं आपकी सरकार से तुरन्त सहायता प्रदान करने की प्रार्थना करता हूँ । जैसा कि आपको जानकारी है , जम्मू और कश्मीर राज्य का भारत या पाकिस्तान किसी में भी विलय नहीं हुआ है । भौगोलिक रूप से , मेरा राज्य दोनों ( भारत व पाक ) से निकटस्थ है । इसके साथ ही , मेरे राज्य की सीमाएँ सोवियत रूस व चीन के साथ भी मिलती है । अपने परराष्ट्र सम्बन्धों में , भारत और पाकिस्तान इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते । मैं अपने राज्य का किस देश में विलय करूँ या दोनों देशों से मित्रवत् सम्बन्ध रखते हुए , दोनों देशों के व अपने राज्य के सर्वश्रेष्ठ हितों को ध्यान में रखकर स्वाधीन बना रहूँ , ऐसा निश्चित करने के लिए मैंने समय चाहा । तत्संगत रूप से , मैंने भारत और पाकिस्तान से अपने राज्य के साथ एक स्थिर अनुबंध करने के लिए सम्पर्क किया । पाकिस्तान सरकार ने यह अवस्था स्वीकार कर ली , भारत सरकार ने मेरी सरकार के प्रतिनिधियों के साथ और आगे बातचीत करने की अच्छा जताई । नीचे लिखे हालातों के कारण मैं ऐसी व्यवस्था नहीं कर सका । असल में , स्थिर अनुबन्ध के तहत पाकिस्तान सरकार मेरे राज्य में डाक और तार सेवाओं का संचालन कर रही है । यद्यपि हमने पाकिस्तान के साथ एक स्थिर अनुबन्ध किया है , फिर भी पाकिस्तान ने मेरे राज्य में खाना , नमक और पैट्रोल जैसी मूलभूत चीजों की आपूर्ति लगातार अवरोध करने की स्वीकृति ( साजिश ) प्रदान कर रखी है ।
प्रथमतः पुंछ इलाके में , फिर सियालकोट में और अन्त में रामकोट क्षेत्र के हाजरा जिले व उसके पास के सम्पूर्ण क्षेत्र में ,आधुनिक हथियारों से लैस अफरीदी ( कबाइली ) , सादा कपडों में सैनिक व आताताइयों के क्षुण्डों को मेरे राज्य में घुसपैठ कराई गई है । परिणाम स्वरूप राज्य की छोटी सी सीमित सेना को एक साथ कई मोर्चों पर दुश्मन से लड़ना पड़ा जिससे जान माल की अनियंत्रित लूटपाट को रोकना बहुत मुश्किल हो रहा है एवं आताताइयों ने महुरा बिजलीघर जो पूरे श्रीनगर को बिजली की आपूर्ति देता है , को भी लूट लिया और जला दिया है । असंख्य महिलाओं के अपहरण और शीलभंग के कारण मेरा हृदय खून के आँसू रो रहा है । पूरे राज्य पर चढ़ दौडने के प्रथम प्रयास के तहत , मेरी सरकार की ग्रीष्म राजधानी श्रीनगर को हथियाने के उद्देश्य से इन जंगली फौजों को मेरे राज्य पर चढ़ा दिया गया है । मनबेहरा - मुजफ्फराबाद सड़क से मोटर ट्रकों से लगातार आते हुए , अत्याधुनिक हथियारों से लैस , उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश के दूर दराज इलाकों के झुण्ड के झुण्ड कबाइलियों की घुसपैंठ उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश की सरकार व पाकिस्तान सरकार के संज्ञान के बिना नहीं हो सकती । मेरी सरकार की बारम्बार विनतियों के बावजूद मेरे राज्य में घुसपैठ करने वाले इन आक्रांताओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की गई । असल में , पाकिस्तान के रेडियों व प्रेस ने इन सब घटनाओं की रिपोर्ट दी है , पाकिस्तान रेडियों ने यह खबर भी दी कि कश्मीर में एक अन्तरिम सरकार स्थापित हो गई है । मेरे राज्य की प्रजा , मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों ने ही तनिक भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया है ।
मेरे राज्य में उत्पन्न इन परिस्थितियों में और जैसी विकराल आपातकाल की स्थिति यहाँ उपलब्ध है , इन सबको देखते हुए मेरे पास भारत राज्य से सहायता मांगने के अलावा और कोई चारा नहीं है । स्वाभाविकतया वे ( भारत ) मेरे राज्य का भारत में विलय हुए बिना मेरी कोई सहायता नहीं कर सकते इसलिए मैँने ऐसा करने का निश्चय किया है और इस पत्र के साथ आपकी सरकार द्वारा स्वीकृति हेतु अपना विलय प्रस्ताव संलग्न कर रहा हूँ । दूसरा विकल्प अपने राज्य और उसकी प्रजा को उन आक्रांताओं के रहमोकरम पर छोड देना है । इस आधार पर , कोई सभ्य नागरिक सरकार चल नहीं सकती और न कायम रह सकती है ।
जब तक मैं अपने राज्य का शासक हूँ , मैं इस विकल्प को कभी नहीं चुनूंगा और मेरा जीवन अपने राज्य की रक्षा करने के लिये ही है । मैं आपकी सरकार को यह भी सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा इरादा तुरन्त एक अन्तरिम सरकार स्थापित करने का व इस आपातकाल में मेरे प्रधानमंत्री के साथ जिम्मेदारियों को वहन करने हेतु शेख अब्दुल्ला को बुलाने का है ।
यदि मेरे राज्य को बचाना है तो श्रीनगर में तुरन्त सहायता उपलब्ध होनी चाहिए । श्री वी. पी. मेनन स्थिति की विकरालता से पूर्ण परिचित है । यदि और जानकारी चाही गई तो वह आपको पूरा - पूरा विस्तार से बता देंगे ।
अत्यावश्यकता , में हार्दिक आदर के साथ ,
आपका सद्भावी
हरि सिंह
26 अक्टू. 1947लिये ही है । मैं आपकी सरकार को यह भी सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा इरादा तुरन्त एक अन्तरिम सरकार स्थापित करने का व इस आपातकाल में मेरे प्रधानमंत्री के साथ जिम्मेदारियों को वहन करने हेतु शेख अब्दुल्ला को बुलाने का है ।
यदि मेरे राज्य को बचाना है तो श्रीनगर में तुरन्त सहायता उपलब्ध होनी चाहिए । श्री वी. पी. मेनन स्थिति की विकरालता से पूर्ण परिचित है । यदि और जानकारी चाही गई तो वह आपको पूरा - पूरा विस्तार से बता देंगे ।
अत्यावश्यकता , में हार्दिक आदर के साथ ,
आपका सद्भावी
हरि सिंह
26 अक्टू. 1947

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

शौकत अली को वीर सावरकर का करारा जबाब


सन् 1914 में हिन्दुओं के सुप्त स्वाभिमान को जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ दिनों के लिए वीर सावरकर मुम्बई में ठहरे हुए थे । एक दिन अरब साम्राज्यवादी कट्टर जेहादी मुसलमानों के हिन्दुस्थानी प्रतिनिधि नेता शौकत अली उनसे मिलने आये । उन्होंने वीर सावरकर की भूरि - भूरी प्रशंसा की । परन्तु साथ ही साथ बतलाया कि ' आपको हिन्दू संगठन का कार्य नहीं करना चाहिए । '
वीर सावरकर ने कहा - ' आप यदि खिलापत आन्दोलन बन्द करते है , तब तो आपके सुझाव पर मैं कुछ विचार कर सकता हूँ । '
शौकत अली ने कहा - ' खिलापत आन्दोलन तो मेरा प्राण है । वह मैं कैसे छोड़ सकता हूँ ? ' ( खिलापत आन्दोलन तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया विशुद्ध साम्प्रदायिक आन्दोलन था , जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई सम्बन्ध नहीं था । )
वीर सावरकर ने उत्तर दिया - ' अच्छा तो यह बात है । मुसलमान अपनी अलग खिचड़ी पकाते रहेंगे । वे मुसलमानों की संस्थाएँ चलाते रहेंगे । वे धर्मान्तरण भी कराते रहेंगे और चाहेंगे कि हिन्दू हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें , तो यह कभी नहीं हो सकता । हिन्दू संगठन और शुद्धि का कार्यक्रम तीव्र गति से चलाने का हमारा निश्चय है । '
सौकत अली ने कहा - ' मैं इतना भर कह सकता हूँ कि सब मुसलमान हिन्दू संगठन के विरोध में है । आपके इन आन्दोलनों ने उन्हें प्रक्षुब्ध कर दिया है । यदि आप इन सब गतिविधियों को छोड़ते नहीं है , तब आपके भाग्य का ही हवाला देना पड़ेगा । फिर आप पर क्या बीतेगी , मैं नहीं कह सकता । '
वीर सावरकर ने कहा - ' तोप , तमंचा और आधुनिक शस्त्रास्त्रों से लैस अंग्रेज सरकार जब मुझे नहीं झुका सकी तब क्या समझते है कि मैं केवल मुसलमानों के हाथ के छुरों से डर जाऊँगा ? '
सौकत अली ने कहा - ' देखों , मुसलमानों के तो कई देश है । यहाँ रहना यदि असम्भव हुआ , तो मुसलमान कही अन्यत्र चले जायेंगे । तब आपकी क्या गति होगी । '
वीर सावरकर ने तपाक से कहा - ' शौक से जाइये । कल जाना हो तो आज जाइये । जिनकी यहाँ निष्ठा नहीं है , वे यहाँ न रहें तभी अच्छा है । '
विदा होते समय हाथ मिलाते हुए शौकत अली ने हँसते - हँसते हुए कहा - ' देखो सावरकर जी ! मैं कितना ऊँचा , पूरा और बलिष्ठ हूँ । आप मेरे सामने बहुत छोटे है । मैं आपको पल भर में मसल सकता हूँ । '
वीर सावरकर ने तपाक से उत्तर दिया - ' वैसा प्रयत्न कीजिये और आजमाइये कि क्या नतीजा निकलता है । मैं आपको जबाबी चुनौती देता हूँ । एक बात ध्यान में रखिये । अफजल खाँ का आकार राक्षस जैसा था । उसकी तुलना में शिवाजी नाटे और छोटे थे । परन्तु किसकी विजय हुई , यह सारी दुनिया जानती है । '
वीर सावरकर का यह तेजस्वी जबाब सुनकर समूचे हिन्दुस्थान को दारूल इस्लाम बनाने का स्वप्न देखने वाले शौकत अली ठण्डे पड़ गये ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

क्या भारत का पुनः विभाजन होगा ?


मित्रों आज सुबह समाचार पढा कि जम्मू कश्मीर में पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी ( पी. डी. पी. ) के विधायक निजामुद्दीन भट्ट द्वारा राज्य के संविधान में संशोधन करवाने हेतु विधेयक प्रस्तुत कर राज्य के संविधान की धारा 147 के उपबंध - 2 के स्थान पर नई धारा बनाने की मांग की । इस विधेयक के पारित होने से विधानसभा सदस्यों पर लगा वह प्रतिबंध समाप्त हो जायेगा जिसके अन्तर्गत वे खण्ड - 3 में संशोधन नहीं कर सकते क्योंकि इसमें जम्मू कश्मीर को भारत का अटूट अंग करार दिया गया है । यह विधेयक यदि पास हो गया तो जम्मू कश्मीर भारत का अटूट अंग नहीं रहेगा ।
भारत में आज फिर से विध्वंसकारी शक्तियों तथा साम्प्रदायिक वोटों के भूखे नेताओं के कारण 14 अगस्त 1947 की सी स्थिति बनती जा रही है । उन दिनों भारत भर के अरबपंथी समाज ने मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अलग देश की मांग की थी । पंजाब से बंगाल , आसाम तक धरने , प्रदर्शन , नारे , रैलियाँ निकल रही थी । डायेरेक्ट एक्शन की धमकियां दी जा रही थी । कलकत्ता और नवाखली में खून बहाया जा रहा था , पंजाब जल रहा था । आखिर हिन्दु - मुस्लिम के आधार पर पाकिस्तान बन ही गया ।
मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था " भारत के विभाजन का बीज तो उसी दिन पड़ गया था , जिस दिन प्रथम हिन्दू इस्लाम में दीक्षित हुआ था । "
इसी अलगाववादी सोच के आधार पर 14 अगस्त 1947 को अधिकारिक रूप से भारत को विभाजित कर दिया गया । परन्तु यह भारत का प्रथम विभाजन नहीं था । इसके पहले भी भारत के अनेक बार टुकड़े किये गए । सर्वप्रथम 26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिरशाह से संधि कर अफगानिस्तान उसे सौंप दिया । आने वाले समय में क्रमशः नेपाल , भूटान , तिब्बत , ब्रह्मदेश ( म्यांमार ) और पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान ( बांग्लादेश ) भारत से अलग कर दिए गए । स्वतंत्रता पश्चात सन् 1947 और सन् 1962 में आज के पाक अधिकृत लद्दाख को तत्कालीन राज्यकर्ताओं ने थाल में सजाकर पाकिस्तान और चीन को दे दिए । सिकुड़ते जाने की इस यात्रा पर पूर्ण विराम नहीं लगा है । चीन अब अरूणांचल प्रदेश पर अपना अधिकार जता रहा है । कश्मीर घाटी को तोड़ने के प्रयास चल रहे है और करोड़ों बांग्लादेशी घुसपैठिये पूर्वांचल समेत सारे देश पर दृष्टि गड़ाए है ।
साम्प्रदायों में बँटी जनता तथा भ्रष्ट नेता देश की अखण्डता कैसे कब तक सुरक्षित रख सकते है ? ये साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की कुनीति तो भारतीयता और भारतीय - दोनों ही की शत्रु है । उदाहरण के लिए पूर्वोत्तर के छः प्रदेश नागालैण्ड , मिजोरम , अरूणांचल , त्रिपुरा , मेघालय और असम में भारतीय सत्ता सही मायनों में कितने प्रतिशत है ? जम्मू कश्मीर राज्य किन अर्थो में भारतीय गणराज्य का राष्ट्रीय अंग है ? इन राज्यों के नागरिक कितने प्रतिशत ऐसे है जो अपने को भारतीय कहते है ? इन प्रदेशों में हिन्दू समाज का कोई व्यक्ति शक्ति सम्पन्न नेतृत्व क्यों नहीं कर सकता ? वहाँ केन्द्रिय सरकार द्वारा भेजे गये वरिष्ठ अधिकारी गोली से क्यों मारे जाते है ? क्या यह सच नहीं है कि यदि उन प्रदेशों में भारी सैन्य छावनियाँ न हों तो अब तक ये मुस्लिम व ईसाई बाहुल्य प्रदेश चीन एवं पाकिस्तान में जा मिलेंगे । भारतीय सत्ता से विद्रोह का कारण विदेशी मत - मजहब की प्रेरणा नहीं है ? आज भारत में राजनीतिक स्वार्थवश जो साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की आंधी चल रही है तो क्या ऐसी स्थिति में भारत का पुनः विभाजन नहीं होगा ?
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 14 सितंबर 2011

गांधी जी और हिन्दी भाषा


श्रीमोहनदास करमचंद गांधी जी ने अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान देखा और समझा कि भारत से अनेक लोग जो अफ्रीका में रोजगार के लिए आए है वे तमिल, तेलगू, गुजराती, मराठी आदि भाषा बोलने वाले है तथा हिन्दी भाषी अल्पसंख्या में है, तो भी वे सब आपस में एक दूसरे से हिन्दी में ही बात करते है, अतः भारत में विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच कोई संपर्क भाषा हो सकती है तो वह केवल हिन्दी है। गांधी जी स्वयं भी हिन्दी नहीं जानते थे, फिर भी उन्होंने हिन्दी के महत्व को पहचाना और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा था।
जनवरी 1915 ईश्वी में गांधी जी अफ्रीका से भारत वापस लौट आये और हिन्दी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के प्रबल समर्थक बनकर उभरे। 5 फरवरी 1916 को नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के तत्वावधान आयोजित गोष्ठी में बोलते हुए गांधी जी ने नागरी प्रचारिणी सभा के पदाधिकारियों वकीलों से तथा उपस्थित विद्यार्थियों से हिन्दी को व्यवहार में अपनाने का आह्वान किया।
29-31 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर एक साक्षात्कार में गांधी जी ने कहा, 'जब तक हिन्दी में सब सरकारी काम-काज नहीं होता, देश की प्रगति नहीं हो सकती । जब तक कांग्रेस अपना सारा काम-काज हिन्दी में नहीं करती, तब तक स्वराज संभव नहीं है।...मैं यह नहीं कहता कि सभी सभी प्रांत अपनी-अपनी भाषाएँ छोड़कर हिन्दी में लिखना-पढ़ना शुरू कर दें। प्रांतीय मसलों में, प्रांतीय भाषाओं का प्रयोग अवश्य होना चाहिए। किंतु सभी राष्ट्रीय प्रश्नों पर विमर्श केवल राष्ट्रीय भाषा में होना चाहिए। यह आसानी से किया जा सकता है। यह कार्य जो आज हम अंग्रेजी में कर रहे है, उसे हिन्दी में करना चाहिए।'
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के लिए उसके राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार हेतु गांधी जी ने प्रबल प्रयास किये। 29दिसम्बर1916 को 'ऑल इंडिया कॉमन स्क्रिप्ट एंड कॉमन लैंग्वेज कांफ्रेंस' लखनऊ में बोलते हुए उन्होंने श्रोताओं से अपील की, 'कृपया पाँच-दस ऐसे लोग ढूंढिए जो मद्रास जाकर हिन्दी का प्रचार करे। 'हिन्दी के राष्ट्रव्यापी प्रचार के लिए कृतसंकल्प गांधी जी ने अपने निश्चय को केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे मूर्तरूप देने में पहल भी की। उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिन्दी के प्रचार और शिक्षण के लिए मद्रास भेजा। 17अगस्त1918 को एक पत्र में गांधी जी ने देवदास गांधी को लिखा, 'मैंने हिन्दी शिक्षण की तुम्हारी दो महीने की रिपोर्ट पढ़ी और मैं संतुष्ठ हूँ।...ईश्वर करे तुम्हारी लंबी आयु हो जिससे मद्रास प्रेसीडेंसी में हिन्दी की एकीकरण की धुन गूंजे, उत्तर और पश्चिम की खाई एकदम मिट जाए और इन दोनों भागों के लोग एक हो जाएं।' हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद की गतिविधियों में भी गांधी जी ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
18अप्रैल1919 को हिन्दी लिटरेरी कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा, 'इस समय देश में चल रहा सत्याग्रह हिन्दी भाषा के मुद्दे के लिए भी है। और अगर हममें सत्य के प्रति सम्मान की भावना है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी ही एकमात्र भाषा है, जिसे हम लोग राष्ट्रभाषा बना सकते है। कोई भी दूसरी क्षेत्रिय भाषा यह दावा नहीं कर सकती। '
गांधी जी का हिन्दी हितेषी का यह प्रबल स्वरूप खिलापत आन्दोलन (अरबपंथी कट्टर मुसलमानों द्वारा तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया एक विशुद्ध साम्प्रदायिक आन्दोलन, जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई संबंध नहीं था।) को 20अगस्त1920 में अपना नेतृत्व प्रदान करने से पूर्व तक बना रहा। जब गांधी जी ने देखा कि मुस्लिम हिन्दी को पसंद नहीं करते तो उनका उत्साह हिन्दी के प्रति धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा और वह हिन्दी के साथ उर्दू का भी प्रयोग करने लगे। वह सांप्रदायिक तुष्टिकरण हेतु हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी (फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू ) भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करने लगे। भगवान श्रीराम को शहजादा राम, महाराजा दशरथ को बादशाह दशरथ, माता सीता को बेगम सीता और महर्षि वाल्मीकि को मौलाना वाल्मीकि संबोधित कराया जाने लगा।
गांधी जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लगातार 27 वर्षो तक अध्यक्ष रहे। अतः वे समझते थे कि वे जो चाहेंगे और कहेंगे, उसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन आँख बंद करके मानेगा किंतु ऐसा नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से कार्यरत था। गांधी जी ने चाहा कि भविष्य में हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा का प्रचार करें जो देवनागरी के साथ फारसी लिपि (जिसमें उर्दू लिखी जाती है।) का भी प्रचार हो किंतु हिन्दी साहित्य सम्मेलन फारसी लिपि के प्रचार के लिए सहमत नहीं हुआ तो गांधी जी को बहुत निराशा हुई। उन्होंने 25 मई 1945 को हिन्दी के श्लाका पुरूष राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को पत्र लिखा, 'सम्मेलन की दृष्टि से हिन्दी राष्ट्रभाषा हो सकती है, जिसमें नागरी लिपि को ही राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है। जब मैं सम्मेलन की भाषा हिन्दी और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ, तब मुझे सम्मेलन से हट जाना चाहिए। ऐसी दलील मुझे योग्य लगती है। इस हालत में क्या सम्मेलन से हट जाना मेरा फर्ज नहीं होता है क्या?'
इस पत्र में गांधी जी ने टंडन जी पर मनोवैज्ञानिक दबाब डालते हुए परामर्श चाहा था कि क्या उनको सम्मेलन से त्यागपत्र दे देना चाहिए? किंतु टंडन जी ने निर्भिकतापूर्वक अपने 8 जून 1945 के उत्तर में गांधी जी को सम्मेलन से त्यागपत्र देने के लिए लिख दिया, 'आपकी आत्मा कहती है कि सम्मेलन से अलग हो जाऊँ, तो आपके अलग होने की बात पर बहुत खेद होने पर भी नतमस्तक हो आपके निर्णय को स्वीकार करूंगा।' अंततः गांधी जी ने 25 जुलाई 1945 को पत्र के माध्यम से अपना त्यागपत्र भेज दिया।
14अगस्त1947 को सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ, जिसमें गांधी जी की हिन्दुस्तानी भाषा पत्ते की तरह बिखर गयी।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 11 सितंबर 2011

वीर सावरकर और हिन्दी भाषा


स्वातंत्र्यवीर सावरकर हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के प्रबल समर्थक थे । 6 जनवरी 1924 में वीर सावरकर को कारागार से मुक्त किया गया और उन्हें सशर्त रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर दिया गया । केवल जनपद भर में घुमने - फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दी गई , इसका लाभ उठाकर वीर सावरकर ने हिन्दी भाषा के प्रचार - प्रसार के लिए भाषा - शुद्धि आन्दोलन प्रारम्भ किया । आन्दोलन के प्रचार के लिए उन्होंने भाषा शुद्धि नामक विस्तृत लेख लिखा । उन्होंने लिखा - ' अपनी हिन्दी भाषा को शुद्ध बनाने के लिए हमें सबसे पहले हिन्दी भाषा में घुसाये गये अंग्रेजी व उर्दू के शब्दों को निकाल बाहर करना चाहिए । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा है । हिन्दी में अंग्रेजी व उर्दू शब्दों के मिश्रण से वर्णसंकरी भाषा बन गयी है । ' उन्होंने देवनागरी लिपि को ही भारत की एकता का आधार बताते हुए लिखा -
' भारत के सब भाषा - भाषी लोग यदि नागरी लिपि में अपनी भाषाओं को लिखना आरम्भ कर दें तो भारत की भाषायी समस्या सुविधापूर्वक हल हो सकती है । ' नागरी लिपि में छपाई के कुछ दोष देखकर उन्होंने इसकी वर्णमाला में आवश्यक सुधार किया , ताकि छपाई में अधिक सुविधा हो । आज तो उन सुधारों को प्रायः सभी मराठी प्रेसों ने अपनाकर अपने टाईपों में परिवर्तन कर लिया है और हिन्दी प्रेसों में भी उनका तेजी से अनुकरण किया जा रहा है ।
वीर सावरकर ने हिन्दी के विकास के लिए एक हिन्दी शब्दकोष की भी रचना की । शहीद के स्थान पर हुतात्मा , प्रूफ के स्थान पर उपमुद्रित , मोनोपोली के लिए एकत्व , मेयर के लिए महापौर आदि शब्द वीर सावरकर की ही देन है । वीर सावरकर ने अनेक बार ' परकीय शब्दों का बहिष्कार करों ' का उद्घोष कर शुद्ध हिन्दी अपनाने पर बल दिया ।
गांधी जी ने जब साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की विभाजक नीतियों पर चलते हुए हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा ( फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू भाषा ) को हिन्दुस्थान की राष्ट्रभाषा बनाये जाने का आह्वान किया और भगवान श्रीराम को शहजादा राम , महाराजा दशरथ को बादशाह दशरथ और माता सीता को बेगम सीता तथा महर्षि वाल्मीकि को मौलाना वाल्मीकि शब्दों से संबोधित कराया तो वीर सावरकर ने गांधी जी की अनुचित भाषा की कड़ी आलोचना करते हुए हिन्दुस्थान की आत्मा पर घोर प्रहार बताया । पुणे में जब राजर्षि श्री पुरूषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में हिन्दी राष्ट्रभाषा सम्मेलन हुआ तो गांधी जी की हिन्दुस्तानी भाषा का प्रस्ताव गिरा दिया गया और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रस्ताव पास हो गया ।
हिन्दी भाषा के श्लाकापुरूष राजर्षि श्री पुरूषोत्तम दास टंडन ने एक लेख में लिखा था - ' मुझे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के आन्दोलन की प्रेरणा वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी । ' वीर सावरकर ने ही सबसे पहले विशुद्ध हिन्दी अपनाओं आन्दोलन प्रारम्भ किया था ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अछूतोद्धारक वीर सावरकर



स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे तथा इसे एक ऐसी बेड़ी मानते थे जिसमें हिन्दू समाज जकड़ा हुआ है, और जिसके कारण समाज में सिर्फ बिखराव हुआ है तथा हिन्दू धर्म का मार्ग अवरूद्ध हुआ है। उनके अनुसार आदिकाल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। यह कार्य पर आधारित थी तथा शिक्षा एवं कार्य के अनुसार बदलती रहती थी। वैदिक काल में समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने में इसकी भूमिका रही, पर अब धीरे-धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित होने पर यह एक अभिशाप बन गयी है तथा समस्त हिन्दू समाज की एकता में बाधक है। अतः उन्होंने सहभोजों के आयोजन एवं अर्न्तजातीय विवाहों का समर्थन किया। अछूतोद्धार पर उनके और गांधी जी के दृष्टिकोण में एक बड़ा अन्तर था। जहाँ गांधी जी ने दलित जातियों के अत्थान का कार्य करते हुए उन्हें हरिजन शब्द देकर एक अलग वर्ग में रख दिया वहीं वीर सावरकर जी हिन्दुओं में अस्पृश्यता की जिम्मेदार जाति प्रथा के ही उन्मूलन के पक्ष में थे। उनका मानना था कि समाज की यह बुराई तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न अंगों के बीच वैमनस्यता का अन्त इस प्रथा के उन्मूलन से ही होगा। उनके विचार अंदमान की सैल्यूलर जेल से लिखे उनके पत्रों से पुष्ट होते है।
(9मार्च1915 को अपने छोटे भाई नारायण सावरकर को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'एक बात और, हमारी सामाजिक संस्थाओं में सबसे निकृष्ट संस्था है - जाति। जाति-पांति हिन्दुस्थान का सबसे बडा शाप है। इससे हिन्दू जाति के वेगवान प्रवाह के दलदल और मरूभूमि में धँस जाने का भय है। यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि हम जातियों को घटाकर चातुर्वर्ण्य की स्थापना करेंगे। यह न होगा, न होना ही चाहिए। इस पाप को जड़मूल से नष्ट ही कर डालना चाहिए।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1916 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
मैं उस समय को देखने का अभिलाषी हूँ जबकि हिन्दुओं में अर्न्तजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों एवं जातियों की दीवार टूट जायेगी और हमारे हिन्दू जीवन की विशाल सरिता समस्त दलदलों एवं मरूस्थलों को पार करके सदा शक्तिमान एवं पवित्र प्रवाह से प्रवाहित होगी ...... सैंकड़ों वर्षो से हम छोटे-छोटे बच्चों के विवाह करते आये है इस कारण वह बातें नहीं बढ़ पाती जो शरीर, मन और आत्मा की उन्नति करने वाली है, जिसकी जीवनी शक्ति तथा मर्दानगी नष्ट हो चुकी है।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1920 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'मैंने हिन्दुस्थान की जाति पद्धति और अछूत पद्धति का उतना विरोध किया है जितना बाहर रहकर भारत पर शासन करने वाले विदेशियों का।'
अंग्रेजी न्यायालय से दो जन्मों की कालेपानी की सजा पाये वीर सावरकर को कैद से छुडवाने के लिए भारत में राष्ट्रभक्तों की' नेशनल यूनियन' ने वीर सावरकर की रिहाई के लिए पम्फलेट, पत्रक तथा समाचार पत्रों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण निर्मित किया कि गांव-गांव और शहर-नगरों में राजनैतिक बंदी और महान क्रान्तिकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति लोगों में सहानुभूति उमड़ पड़ी। 'सावरकर सप्ताह' मनाया गया और करीब सत्तर हजार हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आन्दोलन कभी नहीं हुआ था। अंत में सरकार को विवश होकर वीर सावरकर को पूरे दस वर्ष तक अंदमान में नारकीय यातनाएं देने के बाद 2 मई 1921 को कालापानी से रत्नागिरि जेल, महाराष्ट्र के लिए भेजना पड़ा। बाद में 6 जनवरी 1924 को उनको जेल से मुक्ति मिली और उन्हें रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर रखा गया। केवल रत्नागिरि जनपद की सीमा में घूमने-फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दे दी गई, इसका लाभ उठाकर उन्होंने रत्नागिरि में अछूतोद्धार, साहित्य सृजन और हिन्दू संगठन का कार्य प्रारंभ किया।
यह कार्य इतनी निष्ठा लगन से किया गया कि वीर सावरकर का रत्नागिरि में नजरबंदी का 13 वर्षो का इतिहास अछूतोद्धार व हिन्दू-संगठन का इतिहास कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में छुआ-छूत उग्ररूप में फैली हुई थी, वीर सावरकर ने सर्वप्रथम इसी विषाक्त कुप्रथा पर प्रहार करने का निश्चय किया। उन्होंने घूम-घूमकर जनपद के विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। वीर सावरकर की तर्कपूर्ण दलीलों से प्रभावित होकर अनेक शिक्षित नवयुवक उनके साथ हो लिए। अवकाश के दिन ये लोग दलित-अस्पृश्य परिवारों में जाते, उनके साथ सहभोज करते, उन्हें उपदेश देते और उनसे साफ-स्वच्छ रहने एवं मद्य-मांस छोड़ने का आग्रह करते। इस पारस्परिक मिलन से अछूतों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही। वीर सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक सम्पन्न सुधारवादी व्यक्ति ने ढाई लाख रूपये व्यय करके रत्नागिरि में 'श्री पतित पावन मन्दिर' का निर्माण करा दिया। इसमें किसी भी जाति, पंथ, वर्ण, सम्प्रदाय का प्रत्येक हिन्दू, चाहे वह अछूत जाति का ही क्यों न हो, पूजा कर सकता है। इस मन्दिर के पुजारी भी अछूत कहे जाने वाली जाति के ही बनाये गये। इस प्रकार वीर सावरकर के इस क्रांतिकारी अछूतोद्धार के कार्य के कारण जातिवाद की दुकान खोले बैठे पाखण्डीयों का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने इसका न केवल विरोध ही किया, अपितु इसमें बाधा डालने का भरसक प्रयत्न भी किया। परंतु वीर सावरकर के औजस्वी साहस के सम्मुख विरोधियों को अपनी हार माननी पड़ी।
वीर सावरकर केवल अछूतोद्धार से ही संतुष्ठ न हुए। ईसाई पादरियों और मुल्लाओं द्वारा भोले-भाले हिन्दुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मान्तरण के विरोध में वीर सावरकर ने शुद्धिकरण आंदोलन चलाकर धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, वे धर्मान्तरण को राष्ट्रान्तर मानते थे। हिन्दू एकता पर उनका स्पष्ट चिंतन था कि जब तक भारत में हिन्दुओं में जाति-पांति का भेदभाव रहेगा, हिन्दू संगठित नहीं हो सकेगा और वे भारत माता की आजादी लेने व उसे सफलतापूर्वक सुरक्षित रखने में सफल नहीं होंगे।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 4 सितंबर 2011

अभिनव क्रांतिकारी वीर सावरकर


* नासिक के समीप भगूर नामक ग्राम में 28 मई , सन् 1883 को जन्मे वीर सावरकर आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति के जाज्लयमान नक्षत्र है । वे पहले ऐसे राष्ट्रभक्त विद्यार्थी थे , जिन्होंने अंग्रेजी सरकार का कायदा - कानून भारत में स्वीकार करने से इन्कार किया और लोगों को भी उस बारे में ललकारा ।
* " पूर्ण स्वतंत्रता ही भारत का लक्ष्य है " की उद्घोषणा करने वाले सर्वप्रथम नेता वीर सावरकर ही थे ( लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से भी पहले ) ।
* वीर सावरकर ने सबसे पहले स्वदेशी की आवाज उठायी थी । वह पहले ऐसे नेता थे , जिन्होंने स्वदेशी की अलख जगाने के लिए पुणे में ( सन् 1906 में ) विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर ( मोहनदास करमचंद गांधी से भी पहले ) लोगों को विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने को कहा था ।
* वीर सावरकर के सरकार विरोधी भाषणों के लिए उन्हें कालेज से निकाल दिया गया था । राजनीतिक कारणों से किसी कालेज से निकाले जाने वाले वह पहले विद्यार्थी थे । परीक्षा के समय कालेज के अधिकारियों ने उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दे थी ।
* वीर सावरकर पहले स्नातक थे , जिनसे उनके स्वतंत्रता के लगाव के कारण बम्बई विश्वविद्यालय ने 1911 में डिग्री छीन ली थी ( उसी डिग्री को 1960 में वापस लौटाया ) ।
* वीर सावरकर पहले भारतीय थे , जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता के विरोध में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप में बगावत की और दूसरे देशों के क्रांतिकारियों से संबंध प्रस्थापित किया । जिसका लाभ आगे चलकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उन की सेना को भी हुआ ।
* वीर सावरकर द्वारा लिखित " 1857 का स्वतंत्रता समर " विश्व की पहली पुस्तक है , जिस पर उसके प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबंध लगा दिया गया । ( तब तक अंग्रेजों और अंग्रेजों के चमचों ने इस स्वतंत्रता संग्राम को दुनिया के सामने सैनिक विद्रोह के स्वरूप में ही रखा था । ) उन्होंने लंदन में 1857 के स्वतंत्रता समर का अर्द्ध शताब्दी ( 50 वीं वर्षगाँठ ) समारोह भी धूमधाम से मनाया ।
* वीर सावरकर पहले देशभक्त थे , जिन्होंने भारत स्वतंत्र होने से चालीस वर्ष पूर्व ही स्वतंत्र भारत का ध्वज बनाकर जर्मनी के स्टुटगार्ट में होने वाली अंतरराष्ट्रीय परिषद् में मादाम भीखाजी कामा के हाथों दुनिया के सामने लहराया ।
* वीर सावरकर पहले ऐसे विद्यार्थी थे , जिन्हें इंग्लैंड में बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बावजूद , ब्रिटिस साम्राज्य के प्रति राजनिष्ठ रहने की शपथ लेने से इन्कार करने के कारण , प्रमाणपत्र नहीं दिया गया ।
* सन् 1909 में जब वीर सावरकर यूरोप में थे , उनके बड़े भाई श्री गणेश दामोदर सावरकर को आजीवन कालापानी की सजा हुई । भारत में ब्रिटिस सरकार ने उनके परिवार की तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली । परिवार के लोग सड़क पर खडे रह गये ।
* वीर सावरकर विश्व के प्रथम राजनीतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी ( फ्रांस ) भूमि पर बंदी बनाने के कारण जिनका अभियोग हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला ।
* वीर सावरकर विश्व इतिहास के प्रथम महापुरूष है , जिनके बंदी विवाद के कारण फ्रांस के प्रधानमंत्री एम. बायन को त्याग - पत्र देना पडा था ।
* वीर सावरकर विश्व मानवता के इतिहास में प्रथम व्यक्ति थे , जिन्हें दो आजीवन कारावास ( 50 वर्ष ) की लम्बी कालेपानी की कैद की सजा दी गई ।
* वीर सावरकर विश्व के प्रथम कैदी कवि थे , जिन्होंने कालेपानी की कठोर सजा ( कोल्हू में बैल की जगह जुतना , चुने की चक्की चलाना , रामबांस कूटना , कोड़ों की मार सहना ) के दौरान कागज और कलम से वंचित होते हुए भी अंदमान जेल की कालकोठरी में 11 हजार पंक्तियों की ' गोमांतक ' ' कमला ' जैसी काव्य रचनाएँ जेल की दीवारों पर कील और काँटों की लेखनी से लिखकर की । दीवारों को प्रत्येक वर्ष सफेदी की जाती थी , इसलिए उन काव्यों को कंठस्थ करके यह सिद्ध किया कि सृष्टि के आदि काल में आर्यो ने वाणी ( कण्ठ ) द्वारा वेदों को किस प्रकार जीवित रखा ।
* जहाँ गांधी और नेहरू को जेल में क्लास ए की सुविधाएँ उपलब्ध थीं , वही सावरकर की श्रेणी डी ( खतरनाक ) थी , कैद के दौरान उन्होंने घोर अमानवीय यातनाओं को झेलना पढा , जिसमें कोल्हू में तैल पेरना , रस्सी बटना आदि शामिल था ।
* अंदमान जेल में भी जोर - जबरदस्ती हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया जाता था , जिसका वीर सावरकर ने प्रबल विरोध किया ।
* वीर सावरकर ने हिन्दुस्थान में सामाजिक परिवर्तन और एकता लाने के लिए जाति - वर्ण भेद के विरोध में ठोस कार्यवाही की , जैसे पतित - पावन मन्दिर की स्थापना , जहाँ सभी वर्ण के लोगों का प्रवेश था । मन्दिर का पुजारी एक अछूत था । अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों से वेद - शास्त्रों का पठन करवाया । भारतवंशीयों का शुद्धिकरण कर हिन्दू धर्म में वापस लाया गया । समाज को विज्ञाननिष्ठ बनने का आव्हान करते हुए उन्होंने अन्धश्रद्धाओं पर जबरदस्त हमला किया ।
* भाषाई और सांप्रदायिक एकता के लिए वीर सावरकर का योगदान अमूल्य है । वह मराठी साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष थे । संस्कृतनिष्ट हिंदी के प्रचार का बिगुल बजाया । इसके लिए उन्होंने एक हिन्दी शब्दकोष की भी रचना की । शहीद के स्थान पर हुतात्मा , प्रूप के स्थान पर उपमुद्रित , मोनोपोली के लिए एकत्व , मेयर के लिए महापौर आदि शब्द वीर सावरकर की ही देन है । वह उस समय के प्रथम ऐसे हिन्दू नेता थे जिनका सार्वजनिक सम्मान शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने किया था ।
* 83 वर्ष की आयु में योग की सवौच्च परंपरा के अनुसार 26 दिन तक खाना व दो दिन तक पानी छोड़कर आत्मसमर्पण करते हुए 26 फरवरी , 1966 को मृत्यु का वरण किया , ऐसे अभिनव क्रांतिकारी थे वीर सावरकर ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 17 अगस्त 2011

न्यायालय में वीर मदनलाल ढींगरा का वक्तव्य


मैं अपने बचाव के पक्ष में कुछ नहीं कहना चाहता , सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ अंग्रेजों की कोई भी न्याय - व्यवस्था मुझे सजा देने का हक नहीं रखती है । इसी वजह से मैंने कोई वकील मुकर्रर करना मुनासिब नहीं समझा । जैसे जर्मनी के खिलाप लडना अंग्रेजों की देशभक्ति है , वैसे ही अंग्रेजों के खिलाप आजादी की लडाई हमारी देशभक्ति है । मैं अंग्रेजों को 8 करोड भारतीयों का हत्यारा मानता हूँ , जिनको गत 50 वर्षो में बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया है ।
अंग्रेज प्रति वर्ष दस करोड रूपया भारत से इंग्लैंड लाते है और भारत को चूस कर मौज उडाते हैं । अंग्रेजी हुकूमत ने मेरे देशवासियों को फाँसी की सजा और आजीवन कारावास दिया है । इंग्लैंड से एक अंग्रेज 100 रूपया पौंड की नौकरी पर भारत इसलिये भेजा जाता है कि वहा जाकर 1000 भारतीयों को मौत का निशाना बनाए क्योंकि 100 में 1000 भारतीय गुजर बसर करते है । अंग्रेजों की यह हवस साम्राज्य विस्तार के साथ - साथ भारतीयों के शोषण की दास्तान कहती है । जैसे जर्मनी को इंग्लैंड पर कब्जा जमा कर उसे गुलाम बनाने का कोई अधिकार नहीं है , वैसे ही अंग्रेजों को भारत को पराधीनता की बेडियों में रखने का कोई अधिकार नहीं है ।
मुझे अंग्रेजों के उस न्याय और कानून पर हंसी आती है जो पीडित मानवता की हमदर्दी पर घडियाली आंसू बहाता है और ढोंग - पाखण्ड का नाटक करता है । जब जर्मन को मार कर अंग्रेज अपने को देशभक्त कहता है तो निश्चित रूप से मैं भी देशभक्त हूँ । मातृभूमि का अपमान करने वालों की हत्या करना एक देशभक्त का पवित्र कर्तव्य है । मैंने वही किया है जो सच्चे देशप्रेमी को करना चाहिए । मुझे मृत्यु की जरा भी परवाह नहीं है । अंग्रेजों का काला कानून मुझे फाँसी की सजा दे सकता है , पर वह देशभक्ति की भावना को दफन नहीं कर सकता है । मेरी फाँसी के बाद देश में अंग्रेजों के खिलाप आजादी की जंग ओर तेज होगी ।

वीर मदन लाल ढींगरा का भारतवासियों के नाम ऐतिहासिक पत्र


प्यारे देशवासियों ,
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने एक अंग्रेज का खून बहाया है और वह इसलिये बहाया है कि मैं भारतीय देशभक्त नौजवानों को अमानवीय रूप से फाँसी के फंदों पर लटकाए जाने और उन्हें आजन्म कालेपानी की सजा दिये जाने का बदला ले सकूँ । इस प्रयत्न में अपनी अन्तरात्मा के अतिरिक्त मैंने किसी और से परामर्श नहीं लिया और अपने कर्तव्य के अतिरिक्त किसी अन्य से सांठ - गांठ नहीं की । मेरा विश्वास है कि जिस देश को संगीनों के बल पर दबाकर रखा जाता हो , वह हमेशा ही आजादी की लडाई लडता रहता है । जिस देश के हथियार छीन लिये गए हों , वह खुली लडाई लडने की स्थिति में नहीं होता । मैं खुली लडाई नहीं लड सकता था , इस कारण मैंने आकस्मिक रूप से आक्रमण किया । मुझे बंदूक रखने की मनाही थी , इस कारण मैंने पिस्तौल चला कर आक्रमण किया ।
हिन्दू होने के नाते मैं यह विश्वास करता हूँ कि मेरे देश के प्रति किया गया अपराध ईश्वर का अपमान है । मेरे मातृभूमि का कार्य ही भगवान राम का कार्य है । मातृभूमि की सेवा ही भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है । मुझ जैसे धनहीन और बुद्धिहीन व्यक्ति के पास अपने रक्त के अतिरिक्त मातृभूमि को समर्पित करने के लिये और क्या था , इसी कारण मैं मातृ - देवी पर अपनी रक्ताञ्जली अर्पित कर रहा हूँ । भारतवर्ष के लोगों को सीखने के लिये इस समय एक ही सबक है और वह यह है कि मृत्यु का आलिंगन किस प्रकार किया जाए और यह सबक सिखाने का एक ही तरीका है कि स्वयं ही मर कर दिखाया जाए , इसीलिये मैं मर कर दिखा रहा हूँ और अपनी शहादत पर मुझे गर्व है । यह पद्धति उस समय तक चलती रहेगी जब तक पृथ्वी के धरातल पर हिन्दू और अंग्रेज जातियों का अस्तित्व है । ( पराधीनता का यह अस्वाभाविक सम्बन्ध समाप्त हो जाए तो अलग बात है । )
ईश्वर से मेरी एक ही प्रार्थना है कि वह मुझे नया जीवन भी भारत - माता की गोद में ही प्रदान करे और मेरा वह जीवन भी भारत - माता की आजादी के पवित्र कार्य के लिये समर्पित हो । मेरे जन्म और बलिदान का यह क्रम उस समय तक चलता रहे जब तक भारत - माता आजाद न हो जाए । मेरी मातृभूमि की आजादी मानवता के हित - चिंतन और परम - पिता परमेश्वर के गौरव - संवर्द्धन के लिये होगी ।
वन्दे मातरम्

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

भारत के पतन का कारण - अविवेकी अहिंसा का आचरण



भारत जो कभी विश्वविजेता था , सम्पूर्ण विश्व जिसके ज्ञान - विज्ञान और शक्ति के सामने झुकता था तथा जिसकी शर्तो पर उसका विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार होता था । आखिर क्या कारण रहा कि वह अपने गौरवशाली इतिहास और वैभव को खो बैठा तथा पद्च्युत होकर बाहर से आई मुठ्ठीभर मजहबी और साम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम हो गया ?
इसका कारण जानने के लिए हमें भारतीय इतिहास के पाँच हजार वर्ष पुराने पृष्टों को खंगालना पडेगा । महाविनाशकारी विश्वयुद्ध महाभारत में बहुत बडी संख्या में वेदज्ञ विद्वानों के मारे जाने के कारण भारत में वेदों के पठन - पाठन और प्रचार का कार्य शनै - शनै लुप्त होता चला गया , तदानुपरांत विद्वानों की प्रतिष्ठा और क्षमता भी कम हो गई तो कालांतर में देश में में देश में अनेक अवैदिक और भोगवादी मत - मतांतरों चार्वाक , बृहस्पति , तांत्रिक और वाममार्गी आदि सम्प्रदायों ने जन्म लिया । वेदों के गूढ़ तत्वज्ञान से रहित अनेक प्राचीन भाष्यकारों ने अपने मंतव्यानुसार वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ कर दिया । वैदिक शास्त्रों को विकृत किया गया और अवैदिक शास्त्रों की रजना की गई । जिसके परिणाम स्वरूप बहुदेवतावाद , अवतारवाद , जातिवाद , छुत - अछुत , अशिक्षा , यज्ञ में पशु बलि देना जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ और स्वार्थी हो चले समाज के अमानवीय हिंसात्मक कार्यकलापों से मानवता त्राहि - त्राहि करने लगी । ऐसे विषम समय में लगभग 2600 वर्ष पूर्व भारतवर्ष में भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दो ऐसे महापुरूष उत्पन्न हुए जिन्होंने उस समय की परिस्थिति को देखते हुए केवल अहिंसा को ही परम धर्म माना । इन दोनों महापुरूषों ने अहिंसा पर बडा बल दिया और युद्ध का घोर विरोध किया । उनका संदेश था कि ' अपनी ही अन्तरात्मा से युद्ध करों बाहर के युद्ध से क्या लाभ ? '
वैदिक ज्ञान से वंचित हो चुके जनसामान्य के मन - मस्तिष्क पर उनका बहुत प्रभाव पडा तथा वे उनके अनुयायी हो गये , साथ ही जैन व बौद्ध धर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त हुआ । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि उस समय यज्ञ में जो पशु हिंसा होती थी , वह बंद हो गई । किन्तु भगवान महावीर व भगवान बुद्ध की देशनाओं को ठीक से न समझ पाने के कारण करोडों भारतीय वीर वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा का आश्रय लेकर जैन श्रावक और बौद्ध भिक्षुक बनकर कायर , डरपोक और नपुंसक बन गये ।
वे भूल गये कि जैन धर्म या बौद्ध की अहिंसा भी वैदिक अहिंसा की तरह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शस्त्र प्रतिकार का निषेध नहीं करती । जिन जैन लोगों ने राज्य स्थापित किये , वीर एवं वीरांगनाओं को निर्मित किया , जिन्होंने समरभूमि पर शस्त्रों से युद्ध किये , उनका जैन आचार्यो ने कहीं भी कभी भी निषेध नहीं किया है । अन्यायकारी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करना केवल न्याय ही न होकर आवश्यक भी है , ऐसा जैन धर्म का प्रकट प्रतिपादन है । यदि कोई सशस्त्र आतातायी मनुष्य किसी साधु की हत्या करने का प्रयास करे , तो उस साधु के प्राणों की रक्षा हेतु उस आतातायी को मार डालना यदि आवश्यक हो तो उसे अवश्य ही मारना चाहिये , क्योंकि उस प्रकार की हिंसा एक प्रकार से सच्ची अहिंसा ही है , ऐसा उसका समर्थन जैन शास्त्रों ने किया है । वैदिक शास्त्रों के कथनानुसार ही जैन शास्त्रों का यह भी कथन है कि ऐसी परिस्थिति में हत्या का पाप उसे लगता है जो मूलभूत हत्यारा है , न कि उसे , जो हत्यारे का वध करने वाला है - ' मन्युस्तन मन्युमर्हति । ' भगवान बुद्ध ने भी इसी प्रकार का उपदेश दिया है । एक बार किसी टोली के नेता भगवान बुद्ध के पास पहुँचे और किसी अन्य टोली के आक्रमण के विरूद्ध उनका सशस्त्र प्रतिकार करने की अनुज्ञा माँगने लगे , तब भगवान बुद्ध ने उन्हें सशस्त्र प्रतिकार करने की आज्ञा दी । भगवान महात्मा बुद्ध बोले , ' सशस्त्र आक्रमण के प्रतिकार स्वरूप युद्ध करने में क्षत्रियों के लिए कोई भी बाधा नहीं है । यदि सत्कार्य के लिए वे सशस्त्र लडते है तो उन्हें कोई पाप नहीं लगेगा । '
भारतवर्ष सम्राट अशोक के समय लगभग 2200 पूर्व तक तो गौरवपूर्ण और विश्ववंदित था , किन्तु अशोक के बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद का इतिहास भारत के पतन का इतिहास है । वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा को अपनाने के कारण भारत पर अनेक आक्रमण हुए और अन्ततः विश्वविजेता रहे भारत का पतन हो गया । सन 630 ईश्वी में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वैन्त्साग भारत में आया तो उसने लिखा कि कप्पिश ( काफिरस्तान ) सारा बौद्ध हो गया था । लम्पाक और नगर ( जलालाबाद ) में कुछ हिन्दुओं को छोडकर शेष सारा काबुल बौद्ध हो गया था । बंगाल और बिहार तो बौद्धों के प्रमुख गढ़ बन गये थे । बंगाल और बिहार में जैन और बौद्ध धर्म का हिंसा के विरूद्ध इतना प्रचार था कि बंगाल और बिहार के निवासी सेना में भरती नहीं होते थे । इस अविवेकी अहिंसा का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों के जीवन में शत्रुओं के दमन की , देश , जाति और धर्म की रक्षा की भावना नष्ट हो गई । परिणाम स्वरूप भारतवर्ष परतंत्र एवं पराधीन हुआ ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 10 अगस्त 2011

अहिंसा क्या है ?


साधारण अर्थ में मन , वचन और कर्म के द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट न देना , न सताना , न मारना अहिंसा कहलाता है । अहिंसा परमधर्म है । किन्तु अहिंसा की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधान कारक है । केवल शब्दार्थ से अहिंसा का भाव नहीं ढूँढा जा सकता , इसके लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पडेगा ।
जिस पुरूष के अन्तःकरण में ' मैं कर्ता हू ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थ और कर्मो में लिप्त नहीं होती है , वह पुरूष सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही पाप से बंधता है । जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता है , जिस लडाई से शान्ति की स्थापना होती है , जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है , उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है । वास्तव में मानवता की रक्षा के लिए दुष्टों का प्राण हरण करना तो शुद्ध अहिंसा है । अत्याचारी के अत्याचार को सहन करने का नाम अहिंसा नहीं यह तो मुर्दापन है । मृत शरीर पर कोई कितना ही प्रहार करता रहे , वह कोई प्रतिकार नहीं करता । इसी प्रकार जो मनुष्य चुपचाप अत्याचार सह लेता है , वह मृत नहीं तो और क्या है ?
भारतीय वैदिक संस्कृति में अत्याचार सहने का नहीं बल्कि अत्याचारी को दण्ड देने का विधान है जैसा कि मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक से प्रकट है -
गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मण वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।
गुरू हो , बालक हो , वृद्ध हो , ब्राह्मण हो अथवा बहुश्रुत ( बहुत शास्त्रों का श्रोता ) ही क्यों न हो - यदि आततायी के रूप में अत्याचार करने अथवा मारने आ रहा हो तो उसको बिना सोचे - विचारे मार देना चाहिये । इसलिए अहिंसा का सही भाव है कि जो निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों को हानि पहुँचाता है , या किसी के प्राण लेता है , तो वह हिंसा है , और जो परमार्थ के लिए या सार्वजनिक हित के लिए अत्याचारी को हानि पहुँचाता , या उसको मार डालता है , तो वह हिंसा न होकर सच्ची अहिंसा है । क्योंकि उससे सार्वजनिक हित होता है ।
जैसे यदि कोई अत्याचारी चोर , डाकू , लुटेरा , बलात्कारी आदि - आदि जब किसी पर आक्रमण करता है , उस समय उसके विरूद्ध वह व्यक्ति , जिस पर उसका आक्रमण है , अथवा अन्य कोई समर्थ व्यक्ति , अथवा राज्य द्वारा नियुक्त पुलिस विभाग का कर्मचारी , कोई भी सुरक्षात्मक रूप में आक्रामक पर वार करता है , जिससे वह मारा जाता है , तब वह कर्म वहाँ पर हिंसा नहीं है ? क्योंकि मारने वाले का लक्ष्य उसे मारना नहीं था , वरन् अपनी सुरक्षा हेतु अथवा बुराई को हटाने के लिए ही प्रत्याक्रमण करना था । अतः यह सिद्ध होता है कि मन , वचन और कर्म तीनों से ही दूसरों को हानि न पहुँचाना अहिंसा है ।
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करे तो अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट होता है । कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्व की बात नहीं है , क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है , इसलिए मारने न मारने में हिंसा - अहिंसा नहीं है । अहिंसा का अर्थ है - ' द्वेष रहित होना । ' निजी राग - द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित - अहित का विचार किये बिना जो कार्य किये जाते है , वे हिंसा पूर्ण है । यदि लोक कल्याण के लिए , मानवता की रक्षा के लिए किसी को मारना पडे तो उसमें दोष नहीं है , वास्तव में वह शुद्ध अहिंसा है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 8 अगस्त 2011

अति उदारता अति घातक


महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कहा था - ' समृद्धि की अधिकता किसी भी सभ्यता के पतन का कारण बनती है । ' इसी बात को टायनबी ने कुछ इस प्रकार कहा है - ' सभ्यता जब अति सभ्य हो जाती है , तब कोई न कोई बर्बरता आकर उसे निगल जाती है । ' और अरब साम्राज्यवादी जेहादी विचारधारा के इसी अडियलपन , अनुदारता और असहिष्णुता की भावनाओं को देखते हुए जार्ज बर्नाड शा ने लिखा था - It is too bad to be too good . ( बहुत बुरा होता है बहुत भला भी होना । ) प्रख्यात साहित्यकार गुरूदत्त अक्सर कहा करते थे - ' हिन्दू समाज के पतन के दो कारण मुख्य है । एक तो ' भाग्यवाद ' और दूसरा ' वसुधैव कुटुम्बकम् ' की भावना ।
इतिहास साक्षी है कि विश्व विजेता रहे भारत का पराधीन होने का एक मूल कारण अति उदारता है जो अहिंसा के सच्चे अर्थ को न जानने के कारण उपजी । पिछले 2500 वर्षो से अत्याधिक उदारता ही हमारे राष्ट्र नायकों की विजयों को पराजयों में परिणत करती रही है । पृथ्वीराज चौहान की आँखें न जाती , भारत परतंत्र न होता , यदि उसने तरावडी के मैदान के पहले युद्ध में मोहम्मद गोरी को क्षमा करने के स्थान पर उसका सिर उडा दिया होता , और अरब साम्राज्यवादी मुस्लिम आक्रांताओं के समान ही उस सिर को भाले पर रख वह अपनी सेनाओं को गजनी तक ले गया होता ।
इतिहास इस बात को चीख - चीख कर कह रहा है कि तथाकथित अहिंसावादियों की कायरता अथवा उदारता के कारण ही साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान बना , और यही पाकिस्तान भारत के नपुंसक नेताओं की उदारता के कारण आज भी भारत का सबसे बडा सिर दर्द बना है । पाकिस्तान के विषैले दन्त आज हमें इस प्रकार न डस रहे होते यदि हमने ताशकन्द में उन टूटे दान्तों को फिर से उसी के मुँह में न लगा दिया होता , और फिर दोबारा शिमला में उस पराजित , हतगौरव मेमने को फिर से भेडिया बनने का अवसर न दिया होता । उदारता के इस अतिरेक को चेतावनी देते हुए ही राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था -
विष खींचना है तो उखाड विषदन्त फेंको ,
वृक-व्याघ्र-भीति से मही को मुक्त कर दो ।
अथवा अजा के छागलों को ही बनाओं व्याघ्र ,
दान्तों में कराल कालकूट विष भर दो ।।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भारत की दत्तक आध्यात्मिक पुत्री श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा


महान व्यक्तियों के जीवन व विचार अनादि काल से विपरीत परिस्थितियों में हमारी राष्ट्रीय चेतना को जीवन्त रखते रहे है । उसी कडी में श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा भी है जिनका जन्म फ्रांस में हुआ था पर भारत की सनातन आध्यात्मिक परम्परा से प्रभावित होकर वे प्रभावित होकर वे भारत आई और यहीं की होकर रह गयी । महर्षि अरविन्द घोष के सान्निध्य में साधना के उच्चतम सोपानों का अनुभव कर एक माँ के रूप में उन्होंने भारत की सन्तानों को उनकी सनातन आध्यात्मिक चेतना के प्रति जागृत किया तथा भारत विश्व में अपनी मार्गदर्शक भूमिका निभा सके इस हेतु सक्रिय होने का उन्होंने आवाहन किया । उन्होंने कहा था कि - ' भारत एक जीवन्त सत्ता है । यह सत्ता उतनी ही जीवित जागृत है जितने शिव आदि देवता । '
श्री माँ का जन्म फ्रांस की राजधानी पेरिस में 21 फरवरी 1878 को हुआ था । नाम रखा गया मीरा अल्फाँसा , जिसके आद्याक्षर है एम. ए. ( अर्थात माँ ) । शैशव से ही ' माँ ' थी वे । चिन्तनशील , अध्ययनशील और अत्यन्त मेधावी । चार वर्ष की आयु में वह ध्यानस्थ हो जाती थीं और एक अलौकिक सी ज्योति मुखमंडल पर छा जाती थी । इसी स्थिति में 1904 में उन्हें एक भारतीय आध्यात्मिक संत का सूक्ष्म दर्शन प्राप्त हुआ । श्री माँ ने नारद भक्ति सूत्र एवं ईशादि उपनिषदों का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया । परमात्मा की पूर्ण प्राप्ति के लिए वह सदैव व्याकुल रहती थी । इसी खोज में उनके मन में भारत आने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई और 7 मार्च 1914 को वे अपने पति के साथ भारत के लिए रवाना हो गई जहाँ वह फ्रांस की राज्यसभा के लिए पांडिचेरी से चुनाव लडने वाले थे ।
29 मार्च 1914 को सायंकाल उन्होंने श्री अरविन्द के दर्शन किए तो पहली ही दृष्टी में पहचान लिया कि यह वही दिव्य अध्यात्म पुरूष हैं जो उनकी साधना में उनकी सहायता किया करते थे । अलौकिक शिष्या के अलौकिक गुरू ।
15 अगस्त 1914 को महर्षि अरविन्द के जन्मदिन पर श्रीमाँ ने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं में ' आर्य ' मासिक शुरू किया । सनातन हिन्दू विचार के प्रचार - प्रसार के लिए यह मासिक समर्पित था । कुछ समय बाद उन्हें फ्रांस वापस लौटना पडा , पर हृदय भारत में ही अटका रह गया । 1916 में वे फ्रांस से जापान गयी , जहां भगवद्गीता पर उनके भाषण हुए । जापानी स्त्रियों की एक सभा में उन्होंने कहा - ' केवल एक जीव को जन्म देना मातृत्व नहीं है । अपनी संतानों में दिव्यत्व प्रकट हो - इस हेतु जागरूकता से प्रयास करने का नाम ही मातृत्व है । '
24 अप्रैल 1920 में मीरा सदा के लिए भारत में रहने के लिए पांडिचेरी चली आयीं । यहाँ रहकर भारत के सनातन आदर्शो के अनुसार जीवन पद्धति अपनाकर साधनारत हो गयी । उन्होंने महर्षि अरविन्द के आश्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था का भार संभाल लिया । धीरे - धीरे वे ' मीरा ' से ' श्रीमाँ ' बन गयी । आध्यात्मिक साधना और अनुभूतियों से आश्रम में देवत्व भरा वातावरण बनाने में वे महर्षि अरविन्द की सहायिका थी । महर्षि ने लिखा है - ' चार महाशक्तियाँ श्री माता जी के माध्यम से कार्यरत है । महालक्ष्मी , महासरस्वती , महाकाली और महेश्वरी । '
15 अगस्त 1947 में भारत को खण्डित स्वतंत्रता मिली । श्री माँ ने कहा - ' हिन्दुस्थान की स्वाधीनता का प्रश्न हल नहीं हुआ है । हिन्दुस्थान के पुनः अखण्ड होने तक हमें प्रतिक्षा करनी होगी । तब तक हमारी एक ही घोषणा होगी - ' हिन्दू चैतन्य अमर है । " उन्होंने आश्रम पर भारत का ध्वज फहराया । इस पर श्रीलंका और ब्रह्मदेश सहित अखण्ड भारत का मानचित्र था । सम्पूर्ण वंदे मातरम् का सामूहिक गान किया । " भारत विभाजन असत्य है , उसको मिटाना चाहिये और यह मिट कर रहेगा । " यह उनकी दृढ धारणा थी । आश्रम के खेल के मैदान में अखण्ड भारत का मानचित्र यही सोचकर बनवाया । प्रतिदिन मैदान में गणप्रचलन के समय उसे प्रणाम किया जाने लगा ।
5 दिसम्बर 1950 को महर्षि अरविन्द ने यह देह त्यागी । उनकी दिव्य शक्तियाँ श्री माँ के शरीर में चली गयीं । 6 जनवरी 1952 को श्री माँ ने अन्तर्राष्ट्रीय विद्या केन्द्र की नीव आश्रम में रखी । बालकों में दिव्यत्व का प्रकटीकरण हो - ऐसी शिक्षा का कार्यक्रम संचालित किया ।
1965 में श्री माँ की कल्पना के अनुरूप ' उषानगरी ' ( औरोविले ) का निर्माण शुरू हुआ , जिसके केन्द्र में था मातृमन्दिर । 28 फरवरी 1968 को इसका उद्घाटन उन्होंने किया । 121 देशों के बच्चे उपस्थित थे । भारत के 23 राज्यों - केन्द्र शासित प्रदेशों से बच्चे आये थे । संस्कृत थी यहाँ कि सम्पूर्ण भाषा ।
भारत के भविष्य का वर्णन करते हुए उनका कथन था कि ' भारत की सच्ची नियति है विश्व गुरू बनना , विश्व की भावी व्यवस्था भारत पर निर्भर है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । भारत सरकार को इस क्षेत्र में भारत के महत्व को स्वीकार करना चाहिये और अपने को इसी के अनुसार सुयोजित करना चाहिये । '
इस प्रकार भारतीय जीवन को भविष्योन्मुखी और आध्यात्मिक और अध्यात्मकेन्द्रित करके तथा विश्व में दिव्य जीवन की चेतना का केन्द्र भारत को बनाकर श्री माँ ने 17 नवम्बर 1973 को अपना भौतिक शरीर त्याग दिया और भारत की आत्मा में ही अपनी आत्मा को लीन कर लिया । उनके ये शब्द हमें सदा झकझोरेंगे - ' विश्व की भलाई के लिए भारत की रक्षा करनी होगी , क्योंकि एकमात्र भारत ही विश्व को शांति और एक नवीन व्यवस्था प्राप्त कर सकता है । भारत का भविष्य एकदम स्पष्ट है । भारत जगद्गुरू है । विश्व का भावी संगठन भारत पर निर्भर है । भारत एक जीवन्त आत्मा है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । '
पूज्य श्री माँ मीरा अल्फाँसा के श्रीचरणों अनन्त नमन ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 1 अगस्त 2011

इस्लाम विरोधी नहीं है वंदे मातरम्


सन 1905 में ब्रिटिस वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया गया तो उसके विरोध में ' बंग भंग आन्दोलन ' हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिल कर किया । इस आन्दोलन का मुख्य नारा ही ' वन्दे मातरम् ' था । अन्ततः अंग्रेजों को बंगाल का विभाजन समाप्त करना पडा । ये कैसी विडम्बना है कि उसी राष्ट्रगीत का विरोध कुछ अरबपंथी कट्टर जेहादी मुल्ला - मौलवी इस्लाम के नाम पर करते रहते है और उसे गैर इस्लामी करार देते है ।
वन्दे मातरम् गीत में पूजा एवं अर्चना जैसी भावना नहीं है और न ही इसके शब्द किसी की मजहबी - आस्था को आहत करते है तो इस पर विवाद क्यों ! कविन्द्र बंकिम चन्द्र चैटर्जी ने देश प्रेम के उदात्त भाव से अभिभूत होकर यह अमर गीत वन्दे मातरम् लिखा था । श्री मौलाना सैयद फजलुलरहमान जी के शब्दों में ' वन्दे मातरम् गीत में बुतपरस्ती ( मूर्ति - पूजा ) की गन्ध नहीं आती है , वरन् यह मादरे वतन ( मातृभूमि ) के प्रति अनुराग की अभिव्यक्ति है । '
' नमो नमो माता अप श्रीलंका , नमो नमो माता ' ( श्रीलंका का राष्ट्रगीत )
' इंडोनेशिया तान्हे आयरकू तान्हे पुम्पहा ताराई ' ( इंडोनेशिया का राष्ट्रगीत )
भारत के वंदे मातरम् में ही भारत माता की वंदना नहीं है , श्रीलंका और मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया के राष्ट्रगीत में भी वही सब कुछ है जो वन्दे मातरम् में है । इनके राष्ट्रगीत में भी राष्ट्र को माता की ही संज्ञा दी गई है । जब वंदे मातरम् गैर इस्लामी है तो इन देशों के राष्ट्रगीत क्यों गैर इस्लामी नहीं करार दिये जाते ?
जिस आजादी की लडाई में वन्दे मातरम् का हिन्दू - मुस्लिम ने मिलकर उद्घोष किया था तो फिर क्यों आजादी के बाद यह इस्लाम विरोधी हो गया । वंदे मातरम् को गाते - गाते तो अशफाक उल्ला खां फाँसी के फंदे पर झूल गए थे । इसी वंदे मातरम् को गाकर न जाने कितने लोगों ने बलिदान दिया । जब देश के स्वतंत्रता संग्राम में यह गीत गैर इस्लामी नहीं था , तो आज कैसे हो गया !
अपनी मूल जडों से जुडा हुआ समझदार और पढा - लिखा राष्ट्रवादी मुसलमान अरबपंथी कट्टर जेहादियों की इस संकिर्णता एवं अमानवीयता से बेहद परेशान है । उनका कहना है - ' भारत का मुसलमान इसी भूमि पर पैदा हुआ है और इसी धरती पर दफन होता है इसलिए माता के समान इस जमीन की बंदगी से उसे कोई नहीं रोक सकता । ' मुसलमान सुबह से शाम तक इस भूमि पर 14 बार माथा टेकता है तो फिर उसे वन्दे मातरम् गाने में क्यों आपत्ति है ?
श्री ए. आर. रहमान ने तो इसका अनुवाद स्वरूप ' माँ तुझे सलाम ' स्वरबद्ध कर बन्दगी की है । पूर्व केन्द्रिय मन्त्री श्री आरिफ मोहम्मद खान का मानना है कि वन्दे मातरम् को मूर्ति पूजा से जोडना उचित नहीं । श्री खान ने स्वयं वन्दे मातरम् का अनुवाद मुस्लिम विद्वानों से उर्दू में कराया है और इसके माध्यम से सभी मुसलमानों को यह एहसास करवाने का प्रयास किया है कि वन्दे मातरम् इस्लाम विरोधी नहीं है । माँ के कदमों में जन्नत होती है तथा सच्चा इस्लाम भी यही शिक्षा देता है कि जिस धरती का अन्न - जल खाया है , हवा का सेवन किया है , उसका नमन वास्तव में खुदा की इबादत है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '