मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

गौहत्या पर प्रतिबंध के खिलाप गांधी - नेहरू परिवार




मोहनदास कर्मचन्द गांधी जी कहा करते थे कि गौरक्षा करने से मोक्ष मिलता हैं । सन 1921 में गोपाष्टमी के अवसर पर पटौदी हाउस में एक सभा के अन्दर , जिसमें हकीम अजमल खान , डॉ. अन्सारी , लाला लाजपतराय , पं. मदन मोहन मालवीय आदि उपस्थित थे , तभी इन सभी लोगों के समझ एक प्रस्ताव पास कराया गया कि -
" गौहत्या को अंग्रेजी सरकार कानूनी दृष्टि से बन्द करे , नहीँ तो देशव्यापी असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया जायेगा । "
इसके बाद कांग्रेस के कार्यक्रमों में ' गौरक्षा ' सम्मेलनों का आयोजन होने लगा । ( आर्गनाइजर 26 फरवरी 1995 द्वारा रमाशंकर अग्निहोत्री )
परन्तु गांधी जी ने यह पाखण्ड केवल हिन्दुओं को अपना अनुयायी बनाने के लिए किया था ।
15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होने पर देश के कोने - कोने से लाखों पत्र और तार प्रायः सभी जागरूक व्यक्तियों तथा सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा भारतीय संविधान परिषद के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के माध्यम से गांधी जी को भेजे गये जिसमें उन्होंने मांग की थी कि अब देश स्वतन्त्र हो गया हैं अतः गौहत्या को बन्द करा दो । तब गांधी जी ने कहा कि -
" राजेन्द्र बाबू ने मुझको बताया कि उनके यहाँ करीब 50 हजार पोस्ट कार्ड , 25 - 30 हजार पत्र और कई हजार तार आ गये हैं । हिन्दुस्तान में गौ - हत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता । इसका मतलब तो जो हिन्दू नहीं हैं , उनके साथ जबरदस्ती करना होगा . . . . . . जो आदमी अपने आप गौकुशी नहीं रोकना चाहते , उनके साथ मैं कैसे जबरदस्ती करूँ कि वह ऐसा करें । इसलिए मैं तो यह कहूँगा कि तार और पत्र भेजने का सिलसिला बन्द होना चाहिये इतना पैसा इन पर फैंक देना मुनासिब नहीं हैं । मैं तो अपनी मार्फत सारे हिन्दुस्तान को यह सुनाना चाहता हूँ कि वे सब तार और पत्र भेजना बन्द कर दें । भारतीय यूनियन कांग्रेस में मुसलमान , ईसाई आदि सभी लोग रहते हैं । अतः मैं तो यही सलाह दूँगा कि विधान - परिषद् पर इसके लिये जोर न डाला जाये । " ( पुस्तक - ' धर्मपालन ' भाग - दो , प्रकाशक - सस्ता साहित्य मंडल , नई दिल्ली , पृष्ठ - 135 )
गौहत्या पर कानूनी प्रतिबन्ध को अनुचित बताते हुए इसी आशय के विचार गांधी जी ने प्रार्थना सभा में दिये -
" हिन्दुस्तान में गौ-हत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता । इसका मतलब तो जो हिन्दू नहीं हैं उनके साथ जबरदस्ती करना होगा । " - ' प्रार्थना सभा ' ( 25 जुलाई 1947 )
हिन्दुस्तान ( 26 जुलाई 1947 ) , हरिजन एवं हरिजन सेवक ( 26 जुलाई 1947 )
अपनी 4 नवम्बर 1947 की प्रार्थना सभा में गांधी जी ने फिर कहा कि -
" भारत कोई हिन्दू धार्मिक राज्य नहीं हैं , इसलिए हिन्दुओं के धर्म को दूसरों पर जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता । मैं गौ सेवा में पूरा विश्वास रखता हूँ , परन्तु उसे कानून द्वारा बन्द नहीं किया जा सकता । "
( दिल्ली डायरी , पृष्ठ 134 से 140 तक )
इससे स्पष्ट हैं कि गांधी जी की गौरक्षा के प्रति कोई आस्था नहीं थी । वह केवल हिन्दुओं की भावनाओं का शौषण करने के लिए बनावटी तौर पर ही गौरक्षा की बात किया करते थे , इसलिए उपयुक्त समय आने पर देश की सनातन आस्थाओं के साथ विश्वासघात कर गये ।
7 नवम्बर 1966 को गोपाष्टमी के दिन गौरक्षा से सम्बन्धित संस्थाओं ने संयुक्त रूप से संसद भवन के सामने एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया जिसमें तत्कालीन सरकार से गौहत्या बन्दी का कानून बनाने की मांग की गई । इस प्रदर्शन में भारत के प्रत्येक राज्य से करीब 10 - 12 लाख गौभक्त नर - नारी , साधु - संत और छोटे - छोटे बालक - बालिकाएं भी गौमाता की हत्या बन्द कराने इस धर्मयुद्ध में आये थे ।
उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर थी और गुलजारिलाल नन्दा गृहमंत्री थे । श्री नन्दा जी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को परामर्श दिया कि इतनी बडी संख्या में देशभर के सर्व विचारों के जनता की मांग गौहत्या बन्दी का कानून स्वीकार करें । तब इंदिरा गांधी ने कठोरता से कहा " गौहत्या बन्दी का कानून बनाने से मुसलमान और ईसाई समाज कांग्रेस से नाराज हो जायेंगे । गौहत्या बन्दी का कानून नहीं बन सकता । " इंदिरा के न मानने पर गुलजारिलाल नन्दा ने अपने गृहमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और गौभक्त भारतीयों के इतिहास में अमर हो गये ।
उधर इंदिरा गांधी ने प्रदर्शन खत्म कराने के लिए निहत्थे अहिंसक गौभक्तों प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी जिसमें अनेकों साधुओं व गौभक्तों की हत्याएँ हुई । इंदिरा गांधी ने यह नृशंश हत्याकाण्ड गौपाष्टमी के पर्व पर कराया था अतः विधि का विधान देखिये कि - इंदिरा गांधी की हत्या भी गौपाष्टमी को हुई थी , संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु भी अष्टमी को हुई , राजीव गांधी की हत्या भी अष्टमी को हुई , गौहत्या के महापाप से गांधी - नेहरू परिवार का नाश हो गया ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के इतने दिन बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर गौहत्या बन्दी का कानून न बन पाना भारतीयों के लिए बडे ही दुःख और अपमान की बात हैं । हे परमात्मा , नेहरू के वंशजों और गांधी के अनुयायी इन राजनेताओं को सद्बुद्धि दो । भारत की प्राणाधार गौमाता की हत्या बन्दी का कानून सम्प्रदायवाद की भावना से उठकर शीघ्र बने यहीं प्रार्थना हैं ।
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

इरविन - गांधी समझौता और भगतसिँह की फाँसी



मार्च 1931 मेँ गांधीजी ने ब्रिटिस सरकार के प्रतिनिधि लार्ड एडवर्ड इरविन के साथ समझौता किया । इस समझौते के अन्तर्गत ब्रिटिस सरकार द्वारा कांग्रेसी आन्दोलन के सभी बंदी छोड दिये गये , परन्तु क्रान्तिकारी आन्दोलन गदर पार्टी के बंदी , लोदियोँ मार्शल ला के बंदी , अकाली बंदी , देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केश आदि के बंदियोँ को छोडने से इन्कार कर दिया । गांधीजी ने भी इस समझौते के अनुपालन मेँ अपना आन्दोलन वापस ले लिया और अन्य आन्दोलन कर्ता क्रान्तिकारियोँ से भी अपना आन्दोलन वापस लेने की अपील की । गांधीजी की अपील के प्रत्युत्तर मेँ लाहौर षडयन्त्र केस के क्रान्तिकारी सुखदेव ने गांधीजी के नाम खुला पत्र लिखकर गांधीजी पर क्रान्तिकारियोँ को कुचलने के लिए ब्रिटिस सरकार का साथ देने का आरोप लगाया था और पत्र मेँ दो विचार धाराओँ के बीच मतभेदोँ पर प्रकाश डाला था । उन्होँने इस समझोते पर सवाल खडे किये थे तथा गांधीजी से अपनी शंका का समाधान करने का आग्रह किया था । लेकिन गांधीजी ने सुखदेव के जीते - जी उनके पत्र का कोई उत्तर नहीँ दिया था । सुखदेव के पत्र का संक्षिप्त सार यह हैँ -
अत्यन्त सम्मानीय महात्मा जी आपने क्रान्तिकारियोँ से अपना आन्दोलन रोक देने की अपील निकाली हैँ । कांग्रेस लाहौर के प्रस्तावानुसार स्वतन्त्रता का युद्ध तब तक जारी रखने के लिए बाध्य हैँ जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये । बीच की संधिया और समझौते विराम मात्र हैँ । यद्यपि लाहौर के पूर्ण स्वतन्त्रता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन स्थगित पर दिया हैँ , जिसके फलस्वरूप आपके आन्दोलन के बन्दी छुट गए हैँ । परन्तु क्रान्तिकारी बंदियोँ के बारे मेँ आप क्या कहते हो । सन 1915 के गदर पार्टी वाले राजबंदी अब भी जेलोँ मेँ सड रहे हैँ , यद्यपि उनकी सजाऐ पूरी हो चुकी हैँ । लोदियोँ मार्शल ला के बंदी जीवित ही कब्रो मेँ गडे हुए है , इसी प्रकार दर्जनोँ बब्बर अकाली कैदी जेल मेँ यातना पा रहे है । देवगढ , काकोरी , महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केस , दिल्ली , चटगॉव , बम्बई , कलकत्ता आदि स्थानोँ मेँ चल रहे क्रान्तिकारी फरार , जिनमेँ बहुत सी तो स्त्रियाँ है । आधा दर्जन से अधिक कैदी तो अपनी फाँसियोँ की बाट जोह रहे हैँ । इस विषय मेँ आप क्या कहते हैँ । लाहौर षडयन्त्र के हम तीन राजबंदी जिन्हेँ फाँसी का हुक्म हुआ है और जिन्होँने संयोगवश बहुत बडी ख्याति प्राप्त कर ली है , क्रान्तिकारी दल के सब कुछ नहीँ हैँ । देश के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीँ हैँ । वास्तव मेँ इनकी सजाओँ के बदलने से देश का उतना कल्याण न होगा जितना की इन्हेँ फाँसी पर चढा देने से होगा ।
परन्तु इन सब बातोँ के होते हुए भी आप इनसे अपना आन्दोलन खीँच लेने की सार्वजनिक अपील कर रहे है । अपना आन्दोलन क्योँ रोक ले , इसका कोई निश्चित कारण नहीँ बतलाया । ऐसी स्थिति मेँ आपकी इन अपीलोँ के निकालने का मतलब तो यहीँ हैँ कि आप क्रान्तिकारियोँ के आन्दोलन को कुचलने मेँ नौकरशाही का साथ दे रहेँ होँ । इन अपीलोँ द्वारा स्वयं क्रान्तिकारी दल मेँ विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे होँ । गवर्नमेँट क्रान्तिकारियोँ के प्रति पैदा हो गयी सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी तरह से उन्हेँ कुचल डालना चाहती है । अकेले मेँ वे सहज ही कुचले जा सकते है , ऐसी हालत मेँ किसी प्रकार की भावुक अपील निकाल कर उनमेँ विश्वासघात और फूट पैदा करना बहुत ही अनुचित और क्रान्ति विरोधी कार्य होगा । इसके द्वारा गवर्नर को , उन्हेँ कुचल डालने मेँ प्रत्यक्ष सहायता मिलती हैँ । इसलिए आपसे हमारी प्रार्थना है कि या तो आप क्रान्तिकारी नेताओँ से जो कि जेलोँ मेँ हैँ , इस विषय पर सम्पूर्ण बातचीत कर निर्णय लीजिये या फिर अपनी अपील बन्द कर दीजिये । कृपा करके उपरोक्त दो मार्गो मेँ से किसी एक का अनुसरण कीजिये । अगर आप उनकी सहायता नहीँ कर सकते तो कृपा करके उन पर रहम कीजिये और उन्हेँ अकेला छोड दीजिये । वे अपनी रक्षा आप कर लेगे ।
आशा है आप अपरोक्त प्रार्थना पर कृपया विचार करेँगे और अपनी राय सर्व साधारण के सामने प्रकट कर देगे ।
आपका
अनेकोँ मेँ से एक
भगतसिँह व उनके साथियोँ को मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश आक्रोषित था व गांधीजी की ओर इस आशा से देख रहा था कि वह अनशन कर इन देशभक्तोँ को मृत्यु से बचाएगे । राष्ट्रवादियोँ ने गांधीजी से राजगुरू , सुखदेव और भगतसिँह के पक्ष मेँ हस्तक्षेप कर ब्रिटिस सरकार से उनकी फाँसी माफ कराने की प्रार्थना की । परन्तु जनता की प्रार्थना को गांधीजी ने इस तर्क के साथ ठुकरा दिया कि मैँ हिँसा का पक्ष नहीँ ले सकता । जब प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914 - 1918 ) के दौरान भारतीय सैनिकोँ ने हजारोँ जर्मनोँ को मौत के घाट उतारा तो क्या गांधीजी ने हिँसा का पक्ष नहीँ लाया था ? परन्तु शायद वह हिँसा इसलिए नहीँ थी , क्योँकि वे सैनिक अंग्रेजोँ की सेना मेँ जर्मनोँ को मारने के लिए उन्होँने भर्ती कराये थे । विश्वयुद्ध के दौरान गांधीजी ने वायसराय चेम्स फोर्ड को एक पत्र भी लिखा था । पत्र मेँ उन्होँने लिखा था - " मैँ इस निर्णायक क्षण पर भारत द्वारा उसके शारीरिक रूप से स्वस्थ पुत्रोँ को अंग्रेजी साम्राज्य पर बलिदान होने के रूप मेँ प्रस्तुत किये जाने के लिए कहूँगा । "
प्रथम विश्वयुद्ध मेँ उन्हेँ ब्रिटिस साम्राज्य के प्रति उनकी सेवाओँ के लिए 'केसर-ए-हिन्द' स्वर्ण पदक से अलंकृत किया गया था ।
अगर गांधी जी हस्तक्षेप करते तो भगतसिंह और उसके साथियों को बचाया जा सकता था , क्योंकि ब्रिटिस सरकार ने ऐसे संकेत दिये थे । गांधी जी जानते थे कि वायसराय के पास फाँसी की सजा माफ करने के पूरे अधिकार हैं । लेकिन उनकी तरफ से इस बारे में कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए ।
लार्ड इरविन ने अपनी डायरी में लिखा था कि ' दिल्ली में जो समझौता हुआ उससे अलग और अंत में मिस्टर गांधी ने भगत सिंह का उल्लेख किया था , पर उनकी फाँसी की सजा रदद करने के लिए कोई पैरवी नहीं की । ' इस सन्दर्भ में गांधी जी के करीबी और उनके अनन्य भक्त डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या ने लिखा हैं , ' समझौते की बातचीत के दौरान भगत सिंह और उनके साथी राजगुरू व सुखदेव की फाँसी की सजा को अन्य सजा के रूप में परिवर्तित कर देने के बारे में गांधी जी और वाइसराय के बीच बार - बार लम्बी बातें हुई । इस संदर्भ में वायसराय ने इतना ही आश्वासन दिया कि मार्च , 1931 की अंतिम तिथियों में कराची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन तक इन्हें फाँसी नहीं दी जाएगी । ' गांधी जी ने वायसराय से कहा , ' अगर इन नौजवानों को फाँसी पर लटकाना ही हैं तो कांग्रेस अधिवेशन के बाद ऐसा करने के बजाय उससे पहले ठीक होगा । इससे लोगों के दिलों में झूठी आशाएं नहीं बंधेगी । '
वायसराय भी मान गया । वह भी इस मुसीबत से जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहता था । अंततः कराची - कांग्रेस अधिवेशन से पूर्व राजगुरू , सुखदेव और भगतसिंह को नियम भंग कर 24 मार्च 1931 को प्रातःकाल दी जाने वाली फाँसी 23 मार्च को शाम में ही दे दी गई । अंग्रेजों ने निमर्मता की सभी हदे पार करते हुए उनके शवों के टुकडे - टुकडे करें और उन्हें चुपचाप लाहौर से पचास मील दूर ले जाकर फिरोजपुर के समीप सतलुज नदी के किनारे जला डाला । सारा देश इस अन्याय के विरूद्ध उठ खडा हुआ , लेकिन गांधी जी शान्त रहें ।
इसके बाद कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गांधी जी कराची पहुंचे तो नौजवानों ने उन्हें काले कपडे से बने फूल और वह राख भेट की जो इन तीन वीर शहीदों की लाशों को जलाने के बाद बची रह गयी थी । नौजवान नारे लगा रहे थे - गांधीवाद का नाश हो , गांधी वापस जाओ ।
भगत सिंह की फाँसी पर आये कुछ प्रसिद्ध वक्तव्य -
' मैने भगतसिंह को कई बार लाहौर में एक विद्यार्थी के रूप में देखा । मैं उसकी विशेषता को शब्दों में बयां नही कर सकता । उसकी देशभक्ति और भारत के लिए उसका अगाध प्रेम अतुलनीय हैं । लेकिन इसने अपने असाधारण साहस का दुरूपयोग किया । मैं भगत सिंह और उसके साथी देशभक्तों को पूरा सम्मान देता हूँ । साथ ही देश के युवाओं को आगाह करता हूँ कि वे इसके मार्ग पर न चले । ( मोहनदास कर्मचन्द गांधी )
जिस व्यक्ति ने वायसराय को इन नौजवानों को फाँसी पर लटकाने की सलाह दी , वह देश का गद्दार और शैतान था । ( पंजाब केसरी )
यह काफी दुखद और आश्चर्यजनक हैं कि भगतसिंह और उसके साथियों को एक दिन पूर्व ही फाँसी दे दी गई , 24 मार्च को कलकत्ता से कराची जाते हुए रास्ते में यह दुखद समाचार मिला । भगतसिंह युवाओं में नई जागरूकता का प्रतिक बन गया हैं । ( सुभाष चन्द्र बोस )
अंग्रेजी कानून के अनुसार भगत सिंह को साडर्स हत्याकाण्ड में दोषी नहीं ठहराया जा सकता था । फिर भी उसे फाँसी दे दे गई । ( सरदार वल्लभ भाई पटेल )
भगत सिंह ऐसे किसी अपराध का आरोपी नहीं था जिसके लिए उसे फाँसी दी जाती । हम इस घटना की कडी निन्दा करते हैं । ( डी. वी. रंगाचरियार )
गांधी जी की जरा भी इच्छा नहीं थी कि कराची के कांग्रेस अधिवेशन में शहीद भगत सिंह और उनके साथियों के बलिदान के प्रति कोई सम्मान जताया जाये । वह नहीं चाहते थे कि कांग्रेस इन शहीदों के समर्थन में कोई प्रस्ताव पास करें । लेकिन दबाव इतना अधिक था कि कांग्रेस को इन वीर शहीदों के पक्ष में प्रस्ताव पास करना पडा । जहां तक समझौते की बात थी इरविन - गांधी समझौता एक मजाक बनकर रह गया था । जिन शर्तो को लेकर गांधी जी ने समझौता किया था उनमें से एक भी शर्त लार्ड इरविन ने पूरी तरह नहीं मानी थी ।
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

क्या गांधी जी राष्ट्रपिता हैँ ?


गांधी जी के कट्टर भक्त, भारत की केन्द्रिय सरकार और कुछ हमारे अपने भारतवासी जो भारत की संस्कृति और इतिहास से अनभिज्ञ हैँ गांधी जी को राष्ट्रपिता कहते हैँ । गांधी जी भी अपने आपकोँ राष्ट्रपिता कहलाने मेँ गर्व का अनुभव करते थे । भारत एक सनातन राष्ट्र हैँ और यहाँ की संस्कृति अरबोँ वर्ष पुरानी हैँ । इससे पुराना राष्ट्र विश्व मेँ कोई दूसरा नहीँ हैँ, तो फिर इसका पिता अट्ठारहवीँ - उन्नीसवीँ ईसाई सदी मेँ कैसे पैदा हो सकता हैँ ! यह महान आश्चर्य की बात है कि अरबोँ वर्षो से यह राष्ट्र बिना पिता के कैसे चल रहा था ?
राष्ट्रपिता की अवधारणा पाश्चात्य मैकालेवाद की देन हैँ । भारत की संस्कृति तो पृथ्वी को, जन्म भूमि को माता के रूप मेँ देखती हैँ और अपने आपकोँ उसका पुत्र मानती हैँ । यदि हम पाश्चात्य अवधारणा पर ही विचार करेँ, तो जो अन्न, विद्या और सुशिक्षा आदि का दान देकर पालन - पोषण और रक्षण करता हैँ, वहीँ पिता कहलाता हैँ । तो क्या गांधी जी ने शास्त्र की आज्ञानुसार इस राष्ट्र का पोषण और रक्षण किया था जो वह राष्ट्रपिता हुये ? जबकि वास्तव मेँ गांधी जी एक ऐसे अहिँसक मसीहा थे जिन्होँने अपने निजी स्वार्थ के लिये स्वतंत्र अखण्ड भारत के उपासक सच्चे देशभक्तोँ को नष्ट कराया और बाद मेँ भारत माता को भी टुकडोँ मेँ विभाजित करा दिया । यदि गांधी जी चाहते तो पाकिस्तान नहीँ बनता ।
गांधी जी इस राष्ट्र के पिता हैँ, तो यह राष्ट्र उनका पुत्र हुआ और जो अपने पुत्र के टुकडे करा देँ, वह पुत्र का रक्षक हुआ या भक्षक ? वास्तव मेँ गांधी जी इस राष्ट्र के पिता तो क्या पुत्र कहलाने के लायक भी नहीँ थे, क्योँकि पुत्र वह होता हैँ जो अपने पिता को दुर्गति से बचाता हैँ । आधुनिक भारत राष्ट्र की दुर्गति करने वाले ही सिर्फ गांधी जी थे, इसलिए वे इस राष्ट्र के पिता तो क्या, पुत्र भी कहलाने के अधिकारी नहीँ हैँ ।
* मैं जानता हूँ कि करोड़ों भारतवासी जो गांधी जी में आस्था रखते है मेरे इस एक लेख से मेरे विरूद्ध हो जायेगे , मुझे उनके आक्रोश का शिकार भी होना पड सकता है , पर क्या करूँ , सच को झुठलाने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है । मैं मानता हूँ कि देवता भी गलती कर सकते है तो इसमें गांधी जी या गोडसे जी अपवाद कैसे हो सकते है , थे तो आखिर वे मनुष्य ही ।
इस लेख पर कोई अन्तिम निणर्य देने से पूर्व इसी ब्लॉग पर लिखे निम्नलिखित लेख :-
1. अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा वीर नाथूराम गोडसे भाग - एक , भाग - दो , भाग - तीन
2. वीर महात्मा नाथूराम गोडसे एक नया दृष्टिकोण
3. इरविन - गांधी समझौता और भगतसिंह की फाँसी भाग - एक , भाग - दो
4. क्रान्तिकारी सुखदेव का गांधी जी के नाम खुला पत्र
5. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार
6. गांधी जी नेहरू की दृष्टि में ?
7. गौहत्या पर प्रतिबंध के खिलाप गांधी - नेहरू परिवार
8. गांधी जी और हिन्दी भाषा
...... भी पढें और फिर अपना निश्पक्ष निर्णय दे कि क्या गांधी जी राष्ट्रपिता है ?
विश्वजीत सिंह 'अनंत'