सोमवार, 20 दिसंबर 2010

आजाद हिन्द फौज के संस्थापक आर्यन पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप


राजा महेन्द्र प्रताप एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे ।उनका जन्म 1 दिसम्बर 1886 को मुरसान ( अलीगढ के पास, उत्तरप्रदेश मेँ) के राजा घनश्याम सिँह के घर मेँ हुआ । हाथरस के राजा हरनारायण सिँह ने कोई संतान न होने पर उन्हेँ गोद ले लिया । इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोडकर हाथरस राज्य के राजा बने । जिँद ( हरियाणा ) की राजकुमारी से उनका विवाह हुआ ।
राजा महेन्द्रप्रताप आर्यन पेशवा थे । उन्होँने अपनी आर्य परम्परा का निर्वाह करते हुए 32 वर्ष देश देश से बाहर रहकर, अंग्रेज सरकार को न केवल तरह - तरह से ललकारा बल्कि अफगानिस्तान मेँ बनाई अपनी आजाद हिन्द फौज द्वारा कबाइली इलाकोँ पर हमला करके कई इलाके अंग्रेजोँ से छिनकर अपने अधिकार मेँ ले लिये थे और ब्रिटिस सरकार को क्रान्तिकारियोँ की शक्ति का अहसास करा दिया था ।
1906 मेँ जिँद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता मेँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन मेँ भाग लिया और स्वदेशी का प्रचार करने लगे । उनका दृष्टिकोण विस्तृत था । वह ब्रह्मण - भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष मेँ नहीँ थे । वह जाति, पंथ, वर्ग, रंग आदि भेदोँ को मानवता के विरुद्ध घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे । उन्होँने संस्कारित शिक्षा के लिए वृन्दावन मेँ प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी । जो क्रान्तिकारियोँ की शरणस्थली बना ।
राजा महेन्द्रप्रताप लाला हरदयाल और चंपक रमन पिल्लई जैसे राष्ट्रवादी नेताओँ से निरन्तर संपर्क बनाये हुये थे और उनके द्वारा भेजे जाने वाले हथियारोँ को भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ मेँ न केवल बाटते थे बल्कि उन्हेँ धन भी उपलब्ध कराते थे । इन गतिविधियोँ के चलते वे अंग्रेज जासूसोँ की नजरोँ मेँ चढ चुके थे और यहाँ रहते हुए कोई बडा काम करना, अब उनके लिए संभव नहीँ रह गया था । अतः वे जितनी संपत्ति यहां से ले जा सकते थे, लेकर चुपचाप बिना पासपोर्ट के जर्मनी चले गये ।वहां उन्हेँ बर्लिन समिति का सदस्य बनाया गया । उसके बाद उन्होँने जर्मनी के शासक कैसर से मुलाकात की । कैसर ने उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ हर संभव सहायता देने का वचन दिया । वहां से तुर्की होकर अफगानिस्तान पहुँचे । अफगानिस्तान के अमीर से मुलाकात की और उनसे अफगानिस्तान मेँ अस्थाई आजाद हिन्द सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा । जिसे विचार - विर्मश के पश्चात स्वीकृति प्रदान कर दी गई । अंततः 29 अक्तूबर 1915 को अस्थाई "आजाद हिन्द सरकार" अस्तित्व मेँ आ गई । इस अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिँधी और विदेशमंत्री डा. चंपक रमन पिल्लई को बनाया गया । इसी सरकार के अंतर्गत "आजाद हिन्द फौज" का गठन भी किया गया जिसमेँ सीमावर्ती पठानोँ और कबीलाईयोँ को लेकर छह हजार सैनिक भर्ती किये गये ।
आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजी अधिकार वाले भारतीय क्षेत्रोँ को आजाद कराने के लिये अंग्रेज सेना पर हमला बोल दिया जिसे अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला खाँ की दोगली नीतियोँ के कारण विफलता का सामना करना पडा । तब राजा महेन्द्र प्रताप रुस चले गये और लेनिन से मिले । परन्तु लेनिन ने कोई विशेष सहायता नहीँ की । 1920 से 1946 तक देश की आजादी के लिए विदेशोँ मेँ भ्रमण करते रहेँ ।
राजा महेन्द्र प्रताप एशियाई देशोँ को मिलाकर "आर्यान" की स्थापना के लिए जुट गये और वही तरफ महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस भी "एशियन यूथ एसोसिएशन" की स्थापना कर कुछ ऐसा ही करने की दिशा मेँ बढ रहे थे । यह भी एक संयोग था कि राजा महेन्द्र प्रताप ने 29 अक्तूबर 1915 को अफगानिस्तान मेँ जो बीज बोया था, उसे 28 वर्ष बाद 4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने जापान मेँ विराट रुप से विकसित करके उनके अधूरे सपने को न केवल पूरा कर दिया था बल्कि पूर्ण आजादी का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे राष्ट्रपितामह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के हाथोँ सौप दिया था ।
राजा महेन्द्र प्रताप को मातृभूमि के स्पर्श करने का सौभाग्य 1946 मेँ मिला, वह भारत वापस लौटे । सरदार पटेल की बहिन मणीबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अडडे गई । वे सांसद भी रहे । वे स्वतंत्र भारत मेँ जीवन पर्यँत मानवता का प्रचार करते रहेँ । राजनीतिक कारणोँ से भारतीय इतिहास ने उन्हेँ वह स्थान नहीँ दिया जिसके वह अधिकारी थे ।
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

रविवार, 19 दिसंबर 2010

जीवन मेँ नवयोग चेतना


हमेँ जीवन मेँ नवयोग की ऐसी चेतना उत्पन्न करनी है जिसके द्वारा ऐसे जीवन का निर्माण हो सके जो वैज्ञानिकता और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हो । वह जीवन एडीसन, न्यूटन, धन्वन्तरि, कणाद, बौधायन, रदरफोर्ड, पतञ्जलि, आईँस्टीन के द्वारा सम्पन्न हो और साथ ही राम, कृष्ण, बुद्ध, चाणक्य, जीजस, विवेकानन्द, शिवाजी, विक्रमादित्य के द्वारा भी सम्पन्न हो । वह जीवन सभी आयामोँ से सम्पन्न बने बाह्य रुप से भी और आन्तरिक रुप से भी ।
चेतना ही जीवन है, जीवन्तता है । चेतना उत्साह है, कुछ करने की, कुछ पाने की ।।
चेतना जीवन का गीत है, संगीत है । चेतना हृदय का प्रकाश है, ईश्वर का अनुदान है ।।
भावनाओँ को जागृत करने का नाम है चेतना । उत्साह की तरंगोँ मेँ उफान लाने का नाम है चेतना ।।
जीवन मेँ आगे बढने का नाम है चेतना । किसी परम् उद्देश्य के लिए समर्पित हो जाने का नाम है चेतना ।।
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

अखण्ड भारत के स्वप्न द्रष्टा - वीर नाथूराम गोडसे भाग - 3



पिछले दो भागोँ मेँ आपने श्री नाथूरामजी गोडसे द्वारा गांधीजी का वध करने के प्रमुख कारणोँ को पढा,अब आगे ......
वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी वध का निर्णय लिया था । गांधी और मेरे जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का । गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ ।
मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था । किसी का वध करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ ।
यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे अत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया ! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए !!
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य ' नीति की दृष्टि ' से पूर्णतया उचित है । मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे ।
मोहनदास गांधीजी की हत्या करने के कारण नाथूराम गोडसेजी एवँ उनके मित्र नारायण आपटेजी को फाँसी की सजा सुनाई गई थी । न्यायालय मेँ जब गोडसे को फाँसी की सजा सुनाई गई तो पुरुषोँ के बाजू फडक रहे थे, और स्त्रियोँ की आँखोँ मेँ आँसू थे । नाथूराम गोडसे व नारायण आपटे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला (हरियाणा) मेँ फासी दी गई । फाँसी दिये जाने से कुछ ही समय पहले नाथूराम गोडसे ने अपने भाई दत्तात्रेय को हिदायत देते हुए कहा था, कि
" मेरी अस्थियाँ पवित्र सिन्धू नदी मेँ ही उस समय प्रवाहित करना जब सिन्धू नदी एक स्वतन्त्र नदी के रुप मेँ भारत के झंडे तले बहने लगे, भले ही इसमेँ कितने भी वर्ष लग जायेँ, कितनी ही पीढियाँ जन्म लेँ, लेकिन तब तक मेरी अस्थियाँ विसर्जित न करना ।"
श्रीनाथूराम गोडसे ने तो न्यायालय से भी अपनी अन्तिम इच्छा मेँ सिर्फ यही माँगा था - " हिन्दुस्थान की सभी नदियाँ अपवित्र हो चुकी है, अतः मेरी अस्थियोँ को पवित्र सिन्धू नदी मेँ प्रवाहित कराया जाए ।"
वीर नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे ने वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुये फाँसी के फंदे को अखण्ड भारत का स्वप्न देखते हुये चुमा और देश के लिए आत्म बलिदान दे दिया ।
नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के अन्तिम संस्कार के बाद उनकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करना तो दूर उनकी राख भी उनके परिवार वालोँ को नहीँ सौँपी गई थी । जेल अधिकारियोँ ने अस्थियोँ और राख से भरा मटका रेलवे पुल के ऊपर से घग्गर मेँ फेँक दिया था । दोपहर बाद मेँ उन्ही जेल कर्मचारियोँ मेँ से किसी ने बाजार मेँ जाकर यह बात एक दुकानदार को बताई, उस दुकानदार ने तत्काल यह सूचना स्थानीय हिन्दू महासभा कार्यकर्ता इन्द्रसेन शर्मा तक पहुँचाई ।इन्द्रसेन उस समय ' द ट्रिब्यून ' के कर्मचारी भी थे । इन्द्रसेन तत्काल अपने दो मित्रोँ को साथ लेकर दुकानदार द्वारा बताये गये स्थान पर पहुँचेँ । उन दिनोँ घग्गर नदी मेँ उस स्थान पर बहुत ही कम पानी था । उन्होँने वह मटका वहाँ से सुरक्षित निकालकर प्रोफेसर ओमप्रकाश कोहल को सौप दिया, जिन्होँने आगे उसे डाँ. एल वी परांजये को नाशिक मेँ ले जाकर सुपुर्द किया । उसके पश्चात वह अस्थिकलश 1965 मेँ नाथूराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे तक पहुँचाया गया, जब वे जेल से रिहा हुए । वर्तमान मेँ यह अस्थिकलश पूना मेँ उनके निवास पर उनकी अंतिम इच्छा पूरी होने की प्रतिक्षा मेँ रखा हुआ है ।
15 नवम्बर 1950 से अभी तक प्रत्येक 15 नवम्बर को महात्मा गोडसे का " शहीद दिवस " मनाया जाता है । सबसे पहले नाथूराम गोडसे और नारायण आपटे के चित्रोँ को अखण्ड भारत के चित्र के साथ रखकर फूलमाला पहनाई जाती है ।उसके पश्चात जितने वर्ष उनके आत्मबलिदान को हुए है उतने दीपक जलाये जाते है और आरती होती है । अन्त मेँ उपस्थित सभी लोग यह प्रतिज्ञा लेते है कि वे महात्मा गोडसेजी के " अखण्ड हिन्दुस्थान " के स्वप्न को पूरा करने के लिये काम करते रहेँगे । हमे पूर्ण विश्वास है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश एक दिन टुकडे- टुकडे होकर बिखर जायेगे और अन्ततः उनका भारत मेँ विलय होगा और तब गोडसेजी का अस्थिविर्सजन किया जायेगा ।
हमेँ स्मरण रखना होगा कि यहूदियोँ को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, प्रत्येक वर्ष वे प्रतिज्ञा लेते थे कि अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा । इसी प्रकार हमेँ भी प्रत्येक 15 नवम्बर को अखण्ड भारत बनाने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये ।
मेरा यह लेख लिखने का उद्देश्य किसी की भावनाओँ को ठेस पहुँचाना नहीँ, बल्कि उस सच को उजागर करना है, जिसे अभी तक इतिहासकार और भारत सरकार अनदेखा करती रही है । गांधीजी के बलिदान को नही भूला जा सकता है तो गोडसेजी के बलिदान को भी नही ।
वन्दे मातरम्
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

अखण्ड भारत के स्वप्न द्रष्टा - वीर नाथूराम गोडसे भाग-2



जैसा कि पिछले भाग मेँ बताया गया है कि श्री नाथूराम गोडसे व अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की हठधर्मिता और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध थे, हिन्दुस्थान की जनता के दिलोँ मेँ गांधीजी के झूठे अहिँसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी । उस समय गांधीजी के चरित्र पर भी अंगुली उठ रही थी जिसके चलते वरिष्ठ नेता जे. बी. कृपलानी और वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओँ ने उनसे दूरी बना ली । यहा तक की कई लोगोँ ने उनका आश्रम छोड दिया था । अब उससे आगे के बयान .......
इस बात को तो मैँ सदा से बिना छिपाए कहता रहा हूँ कि मैँ गांधीजी के सिद्धांतोँ के विरोधी सिद्धांतोँ का प्रचार कर रहा हूँ । यह मेरा पूर्ण विश्वास रहा है कि अहिँसा का अत्याधिक प्रचार हिन्दू जाति को अत्यन्त निर्बल बना देगा और अंत मेँ यह जाति ऐसी भी नहीँ रहेगी कि वह दूसरी जातियोँ से, विशेषकर मुसलमानोँ के अत्याचारोँ का प्रतिरोध कर सके ।
हम लोग गांधीजी की अहिँसा के विरोधी ही नहीँ थे, प्रत्युत इस बात के अधिक विरोधी थे कि गांधीजी अपने कार्यो और विचारोँ मेँ मुस्लिमोँ का अनुचित पक्ष लेते थे और उनके सिद्धांतोँ व कार्यो से हिन्दू जाति की अधिकाधिक हानि हो रही थी ।
मालाबार, नोआख्याली, पंजाब, बंगाल, सीमाप्रांत मेँ हिन्दुओँ पर अत्याधिक अत्याचार हुयेँ । जिसको मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है । उसमेँ हिन्दुओँ की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बडा हमला हुआ । हिन्दुओँ को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया, स्त्रियोँ के अपमान हुये । गांधीजी अपनी नीतियोँ के कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे । प्रत्युत यह कहना शुरु कर दिया कि मालाबार मेँ हिन्दुओँ को मुसलमान नहीँ बनाया गया ।यद्यपि उनके मुस्लिम मित्रोँ ने यह स्वीकार किया कि सैकडोँ घटनाऐँ हुई है । और उल्टे मोपला मुसलमानोँ के लिए फंड शुरु कर दिया ।
कांग्रेस ने गांधीजी को सम्मान देने के लिए चरखे वाले ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाया ।प्रत्येक अधिवेशन मेँ प्रचुर मात्रा मेँ ये ध्वज लगाये जाते थे । इस ध्वज के साथ कांग्रेस का अति घनिष्ट सम्बन्ध था । नोआख्याली के 1946 के दंगोँ के बाद वह ध्वज गांधीजी की कुटिया पर भी लहरा रहा था, परन्तु जब एक मुसलमान को ध्वज के लहराने पर आपत्ति हुई तो गांधी ने तत्काल उसे उतरवा दिया । इस प्रकार लाखोँ - करोडोँ देशवासियोँ की इस ध्वज के प्रति श्रद्धा को गांधी ने अपमानित किया । केवल इसलिए की ध्वज को उतारने से एक मुसलमान खुश होता था ।
कश्मीर के विषय मेँ गांधी हमेशा यह कहते रहे की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जाये, केवल इसलिए की कश्मीर मेँ मुस्लिम है । इसलिए गांधीजी का मत था कि महाराजा हरिसिँह को संन्यास लेकर काशी चले जाना चाहिए, परन्तु हैदराबाद के विषय मेँ गांधी की नीति भिन्न थी । यद्यपि वहाँ हिन्दूओँ की जनसंख्या अधिक थी, परन्तु गांधीजी ने कभी नहीँ कहा की निजाम फकीरी लेकर मक्का चला जायेँ ।
जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो मुसलमानोँ को बहुत निराशा हुई और अपना क्रोध हिन्दुओँ पर उतारा । गांधीजी ने गुप्त रुप से अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया, जो गांधीजी के लेख के इस अंश से सिद्ध हो जाता है - " मैँ नही समझता कि जैसे खबर फैली है, अली भाईयोँ को क्योँ जेल मेँ डाला जायेगा और मैँ क्योँ आजाद रहूँगा ? उन्होँने ऐसा कोई कार्य नही किया है जो मैँ न करु ।यदि उन्होँने अमीर अफगानिस्तान को आक्रमण के लिए संदेश भेजा है, तो मैँ भी उनके पास संदेश भेज दूँगा कि जब वो भारत आयेँगे तो जहाँ तक मेरा बस चलेगा एक भी भारतवासी उनको हिन्द से निकालने मेँ सरकार की सहायता नहीँ करेगा ।"
मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए गांधी ने एक मुसलमान के द्वारा भूषण कवि के विरुद्ध पत्र लिखने पर उनकी अमर रचना शिवबवनी पर रोक लगवा दी, जबकि गांधी ने कभी भी भूषण का काव्य या शिवाजी की जीवनी नहीँ पढी । शिवबवनी 52 छंदोँ का एक संग्रह है जिसमेँ शिवाजी महाराज की प्रशंसा की गयी है । इसके एक छंद मेँ कहा गया है कि अगर शिवाजी न होते तो सारा देश मुसलमान हो जाता । गांधीजी को ज्ञात हुआ कि मुसलमान वन्दे मातरम् पसंद नही करते तो जहाँ तक सम्भव हो सका गांधीजी ने उसे बंद करा दिया ।
राष्ट्रभाषा के विषय पर जिस तरह से गांधी ने मुसलमानोँ का अनुचित पक्ष लिया उससे उनकी मुस्लिम समर्थक नीति का भ्रष्ट रुप प्रगट होता था । किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस देश की राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार हिन्दी को है । गांधीजी ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मेँ हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया । लेकिन जैसे ही उन्हेँ पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नही करते, तो वे उन्हेँ खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी का प्रचार करने लगे । बादशाह राम, बेगम सीता और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामोँ का प्रयोग होने लगा । मुसलमानोँ को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दु का वर्ण संकर रुप) स्कूलोँ मेँ पढाई जाने लगी । इसी अवधारणा से मुस्लिम तुष्टिकरण का जन्म हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है ।
गांधीजी का हिन्दू मुस्लिम एकता का सिद्धांत तो उसी समय नष्ट हो गया जिस समय पाकिस्तान बना । प्रारम्भ से ही मुस्लिम लीग का मत था कि भारत एक देश नही है । हिन्दू तो गांधी के परामर्श पर चलते रहे किन्तु मुसलमानोँ ने गांधी की तरफ ध्यान नही दिया और अपने व्यवहार से वे सदा हिन्दुओँ का अपमान तथा अहित करते रहे । अंत मेँ देश का दो टुकडोँ मेँ विभाजन हो गया और भारत का एक तिहाई हिस्सा विदेशियोँ की भूमि बन गया ।
32 वर्षो से गांधीजी मुसलमानोँ के पक्ष मेँ कार्य कर रहे थे और अंत मेँ उन्होँने जो पाकिस्तान को 55 करोड रुपये दिलाने के लिए धूरर्ततापूर्ण अनशन करने का निश्चय किया, इन बातोँ ने मुझे गांधी वध करने का निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया । 30 जनवरी 1948 को बिडला भवन की प्रार्थना सभा मेँ देश की रक्षा के लिए मैने गांधी को गोली मार दी ।
क्रमश ......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

रविवार, 12 दिसंबर 2010

अखण्ड भारत के स्वप्नद्रष्टा -वीर नाथूराम गोडसे भाग - एक




19 मई 1910 को मुम्बई - पुणे के बीच ' बारामती ' में संस्कारित राष्ट्रवादी हिन्दु परिवार मेँ जन्मेँ वीर नाथूराम गोडसे एक ऐसा नाम है जिसके सुनते ही लोगोँ के मन-मस्तिष्क मेँ एक ही विचार आता है कि गांधी का हत्यारा । इतिहास मेँ भी गोडसे जैसे परम राष्ट्रभक्त बलिदानी का इतिहास एक ही पंक्ति मेँ समाप्त हो जाता है । गांधी का सम्मान करने वाले गोडसे को गांधी का वध आखिर क्योँ करना पडा,इसके पीछे क्या कारण रहे, इन कारणोँ की कभी भी व्याख्या नही की जाती ।
नाथूराम गोडसे एक विचारक, समाज सुधारक, पत्रकार एवं सच्चा राष्ट्रभक्त था और गांधी का सम्मान करने वालोँ मेँ भी अग्रीम पंक्ति मेँ था । किन्तु सक्ता परिवर्तन के पश्चात गांधीवाद मेँ जो परिवर्तन देखने को मिला, उससे नाथूराम ही नहीँ करीब-करीब सम्पूर्ण राष्ट्रवादी युवा वर्ग आहत था । गांधीजी इस देश के विभाजन के पक्ष मेँ नहीँ थे । उनके लिए ऐसे देश की कल्पना भी असम्भव थी, जो किसी एक धर्म के अनुयायियोँ का बसेरा हो । उन्होँने प्रतिज्ञयापूर्ण घोषणा की थी कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा । परन्तु न तो वे विभाजन रोक सके, न नरसंहार का वह घिनौना ताण्डव, जिसने न जाने कितनोँ की अस्मत लूट ली, कितनोँ को बेघर किया और कितने सदा - सदा के लिए अपनोँ से बिछड गये । खण्डित भारत का निर्माण गांधीजी की लाश पर नहीँ, अपितु 25 लाख हिन्दू, सिक्खोँ और मुसलमानोँ की लाशोँ तथा असंख्य माताओँ और बहनोँ के शीलहरण पर हुआ ।
किसी भी महापुरुष के जीवन मेँ उसके सिद्धांतोँ और आदर्शो की मौत ही वास्तविक मौत होती है । जब लाखोँ माताओँ, बहनोँ के शीलहरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बडी त्रासदी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ । उस समय गांधी के लिए हिन्दुस्थान की जनता मेँ जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था ।प्रायः प्रत्येक की जुबान पर एक ही बात थी कि गांधी मुसलमानोँ के सामने घुटने चुके है ।रही - सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड रुपये देने के लिए गांधी के अनशन ने पूरी कर दी । उस समय सारा देश गांधी का घोर विरोध कर रहा था और परमात्मा से उनकी मृत्यु की कामना कर रहा था ।
जहाँ एक और गांधीजी पाकिस्तान को 55 करोड रुपया देने के लिए हठ कर अनशन पर बैठ गये थे, वही दूसरी और पाकिस्तानी सेना हिन्दू निर्वासितोँ को अनेक प्रकार की प्रताडना से शोषण कर रही थी, हिन्दुओँ का जगह - जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनोँ की अस्मतेँ लूटी जा रही थी, बच्चोँ को जीवित भूमि मेँ दबाया जा रहा था । जिस समय भारतीय सेना उस जगह पहुँचती, उसे मिलती जगह - जगह अस्मत लुटा चुकी माँ - बहनेँ, टूटी पडी चुडियाँ, चप्पले और बच्चोँ के दबे होने की आवाजेँ ।ऐसे मेँ जब गांधीजी से अपनी जिद छोडने और अनशन तोडने का अनुरोध किया जाता तो गांधी का केवल एक ही जबाब होता - "चाहे मेरी जान ही क्योँ न चली जाए, लेकिन मैँ न तो अपने कदम पीछे करुँगा और न ही अनशन समाप्त करुगा ।" आखिर मेँ नाथूराम गोडसे का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारोँ से ज्यादा ही व्यथित हो उठा तो मजबूरन उन्हेँ हथियार उठाना पडा । नाथूराम गोडसे ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ नही लगाया था । 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने जब गांधी पर गोली चलायी तो गांधी गिर गये । उनके इर्द-गिर्द उपस्थित लोगोँ ने गांधी को बाहोँ मेँ ले लिया । कुछ लोग नाथूराम गोडसे के पास पहुँचे । गोडसे ने उन्हेँ प्रेमपूर्वक अपना हथियार सौप दिया और अपने हाथ खडे कर दिये । गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीँ किया । गांधी वध के पश्चात उस समय समूची भीड मेँ एक ही स्थिर मस्तिष्क वाला व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे । गिरफ्तार होने के बाद गोडसे ने डाँक्टर से शांत मस्तिष्क होने का सर्टिफिकेट मांगा, जो उन्हेँ मिला भी ।
नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए गांधी का वध करने के 150 कारण बताये थे। उन्होँने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वह अपने बयानोँ को पढकर सुनाना चाहते है । अतः उन्होँने वो 150 बयान माइक पर पढकर सुनाए । लेकिन नेहरु सरकार ने (डर से) गोडसे के गांधी वध के कारणोँ पर रोक लगा दी जिससे वे बयान भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पाये । गोडसे के उन क्रमबद्ध बयानोँ मेँ से कुछ बयान आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा जिससे आप जान सके कि गोडसे के बयानोँ पर नेहरु ने रोक क्योँ लगाई ? तथा गांधी वध उचित था या अनुचित ?
दक्षिण अफ्रिका मेँ गांधीजी ने भारतियोँ के हितोँ की रक्षा के लिए बहुत अच्छे काम किये थे । लेकिन जब वे भारत लोटे तो उनकी मानसिकता व्यक्तिवादी हो चुकी थी । वे सही और गलत के स्वयंभू निर्णायक बन बैठे थे । यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिये था तो उनकी अनमनीयता को स्वीकार करना भी उनकी बाध्यता थी । ऐसा न होने पर गांधी कांग्रेस की नीतियोँ से हटकर स्वयं अकेले खडे हो जाते थे । वे हर किसी निर्णय के खुद ही निर्णायक थे । सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीति पर नहीँ चलेँ । फिर भी वे इतने लोकप्रिय हुए की गांधीजी की इच्छा के विपरीत पट्टाभी सीतारमैया के विरोध मेँ प्रबल बहुमत से चुने गये । गांधी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा की सुभाष की जीत गांधी की हार है । जिस समय तक सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की गद्दी से नहीँ उतारा गया तब तक गांधी का क्रोध शांत नहीँ हुआ ।
मुस्लिम लीग देश की शान्ति को भंग कर रही थी और हिन्दुओँ पर अत्याचार कर रही थी । कांग्रेस इन अत्याचारोँ को रोकने के लिए कुछ भी नहीँ करना चाहती थी, क्योकि वह मुसलमानोँ को खुश रखना चाहती थी । गांधी जिस बात को अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । इसलिए मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है की आजादी गांधी ने प्राप्त की । मेरा विचार है की मुसलमानोँ के आगे झुकना आजादी के लिए लडाई नहीँ थी । गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे ।
क्रमश .......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

सोमवार, 15 नवंबर 2010

सुर्दशन के बयान पर तनाव क्योँ


बुधवार को भोपाल मेँ संघ के घरने मेँ राष्टीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघ चालक श्री कुप्प सी सुर्दशन ने यूपीये अध्यक्षा सोनिया गाँधी पर लग रहे आरोपो की पुर्नावृत्रि क्या कर दी की पूरे देश मेँ लाखोँ स्थानोँ पर उनके पुतले फुंके जा रहे है ।हमारे देश के माननीय सांसदोँ और सम्मानीय नेताओँ ने उन्हेँ मानसिक रुप से दिवालिया तक कह दिया ।शायद उन्हे यह भी ज्ञात नहीँ कि 17 अप्रैल 2004 को `द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' मेँ एस गुरुमूर्ति ने शौधलेख `अनमास्किँग सोनिया गाँधी' लिखकर सोनिया गाँधी पर उससे भी बडे तथ्यपूर्ण आरोप लगाये थे । कहा गया है कि जैसा राजा करता है प्रजा भी वैसा ही करती है ।यदि आप किसी के मुँह पर तमाचा मारनेँ का साहस करते है तो आपको भी मुक्का सहने को तैयार रहना चाहिये ।क्योँकि ईंट का जबाब पत्थर होता है ।यदि आप किसी के विरुद्ध तीखी भाषाशैली का प्रयोग करते है तो आपको भी अपने कानोँ को पत्थर की तरह कठोर बना लेना चाहियेँ । संस्कृति और मानवता को अपने पैरोँ तले कुचल देने वाले गाँधी और नेहरु के मानसपुत्रोँ की भाषाशैली स्वतंत्रता के बाद से अब तक क्या कर रही है ? यह सर्वविदित है । जब भरी जनसभा मे सोनिया ने लोकतंत्रात्मक रुप से चुने गये गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मौत का सोदागर कह कर पुकारा था,और उसके पुत्र राहुल गाँधी ने संघ और सीमी को एक ही तरह का आतंकी संगठन करार दिया था, तब वह कौन सी मर्यादित भाषाशैली थी ।जब भरी जनसभा मे यूपीये के प्रधानमन्त्री ने समस्त संसाधनोँ पर एक सम्प्रदाय विशेष (मुसलमानोँ) का अधिकार जताया था, और भारत सरकार के केन्दिय मन्त्री ने हिन्दुओँ को बर्बर आतंकवादी कह कर पुकारा था और सम्पूर्ण भगवा परिवार को नृशंस हत्यारा कहा था, तो वह कौन सी मर्यादित भाषाशैली थी । राजनीतिक वोटोँ के सोदागर संस्कृति, मानवता और लोकतन्त्र को गाँधी-नेहरु परिवार के श्री चरणोँ मे समर्पित कर चुके है । गाँधी-नेहरु के वंशज दूसरों के बारे मे चाहे कुछ भी टिप्पणी करे उन्हे वह स्वीकार है । लेकिन उनके बारे मे किसी भी टिप्पणी को न तो वे बर्दाश्त कर सकते है और न ही टिप्पणीकार को अपना पक्ष रखने का कोई अवसर दे सकते है । लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, राष्टपितामह सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल भी तो कांग्रेसी थे उन पर तो कोई अंगुली नही उठती, तो फिर गाँधी-नेहरु परिवार पर ही अंगुली क्योँ उठती है , यह एक विचारणीय विषय है । सुर्दशन ने जो भी कहा एक जागरुक नागरिक की हैसियत से कहा है । अतःउनके बयान पर तनाव पैदा करना राष्ट् के हित में नहीँ हैँ ।
- विश्वजीत सिंह 'अनंत'

रविवार, 14 नवंबर 2010

नाथूराम गोडसे के शहीद दिवस 15 नवम्बर के अवसर पर, फाँसी लगने से 5 मिनट पूर्व दिया गया उनका दिव्य संदेश

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वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैँने गाँधी जी पर गोली चलायी थी । मैँ मानता हूँ कि गाँधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए । जिसके कारण मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीँ था । मैँ किसी प्रकार की दया नहीँ चाहता हूँ । मैँ यह भी नहीँ चाहता कि मेरी ओर से कोई और दया की याचना करेँ । यदि अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ कि यह पाप मैँने किया है । यदि वह पुण्य है तो उससे उत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र अधिकार है । मुझे विश्वास है की मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेँरे कार्य को अपराध नही समझा जायेगा । मैँने देश और जाति की भलाई के लिए यह कार्य किया है ! मैँने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए ! मुझे इस बात मेँ लेशमात्र भी सन्देह नहीँ की भविष्य मे किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे । - नाथूराम गोडसे