रविवार, 23 जनवरी 2011

युवाओँ के प्रेरणा स्रोत धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द भाग - दो


1897 मेँ भारत वापस आकर स्वामी विवेकानन्द ने भारतीयोँ को हजारोँ वर्षो के आलस्य को छोडकर नए आत्मविश्वास के साथ भारत को विश्व गुरू बनाने के लिए उठ खडे होने तथा समाज के वंचित वर्गो व स्त्रियोँ को शिक्षित करने और विद्या एवं स्वालम्बन द्वारा उनके उत्थान के माध्यम से देश का उत्थान करने का संदेश दिया । स्वामी विवेकानन्द ने स्वदेश मन्त्र देते हुए कहा -
हे भारत ! तुम यह मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियोँ का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती है , मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर है, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और जीवन, इन्द्रिय - सुख के लिये, अपने व्यक्तिगत सुख के लिये नहीँ है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही ' माता ' के लिये बलिस्वरूप रखे गये गए हो, तुम मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र हैँ, मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारे रक्त हैँ, तुम्हारे भाई हैँ । हे वीर ! साहस का आश्रय लो । गर्व से कहो कि मैँ भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, कहो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्रह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी - सब मेरे भाई हैँ । भारतवासी मेरे प्राण हैँ, भारत की देव - देवियाँ मेरे ईश्वर हैँ, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और बुढापे की काशी है । भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग हैँ, भारत के कल्याण से मेरा कल्याण हैँ, और रात - दिन कहते रहोँ - हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो, माँ ! मेरी दुर्बलता और कापुरूषता दूर कर दो । माँ मुझे मनुष्य बना दो ।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने कार्य को दृढ आधार प्रदान करने के लिए 1 मई 1897 को कलकत्ता मेँ ' रामकृष्ण मिशन ' और 9 दिसम्बर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर मेँ ' रामकृष्ण मठ ' की स्थापना की । निवेदिता गर्ल्स स्कूल की स्थापना की गई तथा अनेक पत्रोँ का प्रकाशन एवं साहित्य का सृजन किया गया । उनके अंग्रेज शिष्य कैप्टेन सर्वियर तथा श्रीमती सर्वियर द्वारा स्वामी विवेकानन्द की इच्छानुसार मायावती ( अल्मोडा ) मेँ ' अद्वैत आश्रम ' की स्थापना की गई । स्वामीजी के अनुयायी उनके निर्देशानुसार ' नर सेवा, नारायण सेवा ' के काम मेँ लग गये ।
4 जुलाई 1902 को बेलूर के रामकृष्ण मठ मेँ उन्होँने ध्यान की अवस्था मेँ महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिये । उनका पार्थिव शरीर चला गया, किन्तु अपनी चिर, अमरता का संदेश देने के लिए उनके वे शब्द स्थाई एवं चिर व्याप्त है जो उन्होँने मिस्टर एरिक हैमंड को लन्दन मेँ कहे थे, - ' सम्भवतः यह अच्छा होगा कि मैँ अपने इस शरीर के बाहर निकल आऊं और इसे जीर्ण वस्त्र की भांति उतार फेकूं, किन्तु फिर भी मैँ कार्य करने से रूकूंगा नहीँ । मानव समाज मेँ मैँ तब तक सर्वत्र प्रेरणा प्रदान करता रहूंगा जब तक कि संसार यह भाव आत्मसात न कर लेँ कि वह ईश्वर के साथ एक है । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, कवि रविन्द्रनाथ टैगोर और महर्षि अरविन्द घोष जैसे महान व्यक्तियोँ ने धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जाग्रत करने वाला और राष्ट्रवाद के युगनायक के रूप मेँ देखा । भारत सरकार ने भी उनके सम्मान मेँ उनके जन्मदिन 12 जनवरी को ' राष्ट्रीय युवा दिवस ' के नाम से घोषित किया है । स्वामी विवेकानन्द के कुछ अमर संदेश प्रस्तुत है -
* " उतिष्ठित, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत् " - उठो, जागो और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये ।
* ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्धि कर सकता है । सभी जीवन्त ईश्वर है - इस भाव से सबको देखोँ । मनुष्य का अध्ययन करोँ, मनुष्य ही जीवन काव्य है । जगत मेँ जितने ईसा या बुद्ध हुये हैँ, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्यमान है । इस ज्योति को छोड देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीँ रह सकेँगे, मर जायेँगे । तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहोँ ।
* जिसका जो जी चाहे कहे, अपने आप मेँ मस्त रहोँ- दुनियां तुम्हारे पैरोँ तले आ जाएगी, चिन्ता मत करोँ । लोग कहते है - इस पर विश्वास करोँ, उस पर विश्वास करोँ, मैँ कहता हूँ - अपने आप पर विश्वास करोँ । अपने पर विश्वास करोँ - सब शक्ति तुम मेँ है, इसको धारण करोँ और शक्ति जगाओँ - कहो हम कुछ भी कर सकते हैँ ।
* हे मेरे युवक बन्धुगण ! बलवान बनोँ - यहीँ तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है । गीता पाठ करने की अपेक्षा फुटबॉल खेलने से तुम स्वर्ग के अधिक नजदीक पहुंचोगे । मैने अत्यन्त साहसपूर्वक ये बाते कही है और इनकोँ कहना अत्यावश्यक हैँ, कारण मैँ तुमको प्यार करता हूँ । मैँ जानता हूँ कि कांटा कहाँ चुभता हैँ । मैँने कुछ अनुभव किया है । बलवान शरीर से और मजबूत पुट्ठोँ से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे ।
* मन का विकास करो और उसका संयम करोँ, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो - उससे अतिशीघ्र फल प्राप्ति होगी । यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय । एकाग्रता सीखो और जिस और इच्छा हो, उसका प्रयोग करो । ऐसा करने पर तुम्हे कुछ खोना नहीँ पडेगा ।
* वीरता के साथ आगे बढो । एक दिन या एक वर्ष मे सिद्धी की आशा न रखो । उच्चतम आर्दश पर दृढ रहो । स्थिर रहो । स्वार्थपरता और ईष्या से बचो । आज्ञा-पालन करो । सत्य, मनुष्य-जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे । याद रखो व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय कुछ भी नही ।
* संसार का इतिहास उन थोडे से व्यक्तियोँ का इतिहास है जिनमेँ आत्मविश्वास था । विश्वास-विश्वास ! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा पर विश्वास - यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है । यदि पुराणो के तेँतीस करोड देवताओँ के ऊपर और विदेशियो ने बीच - बीच मे जिन देवताओँ को तुम्हारे बीच मे घुसा दिया है, उन सब पर तुम्हारा विश्वास हो और अपने आप पर विश्वास न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नही हो सकते ।
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

युवाओँ के प्रेरणा स्रोत धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द भाग - एक


" उतिष्ठित, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत् " - उठो, जागो और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये, का सन्देश देने वाले स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे सन्यासी धर्मयोद्धा का नाम है जिन्होँने आधुनिक इतिहास मेँ पहली बार सनातन वैदिक संस्कृति का अंतरराष्ट्रिय स्तर पर प्रतिनिधित्व किया । उन्होँने अपने सम्बोधन की शुरूआत ' बहनोँ और भाईयोँ ' से की जिसे सुनकर श्रोताओँ ने खडे होकर ऐसी तुमुल तालियोँ की बोछार की जो लगातार दो मिनट तक जारी रही और जिससे पूरा सभामण्डप गूँज उठा । श्रोतागण भी कोई साधारण मानवोँ का समूह नहीँ था, विश्व के कोने - कोने से आमन्त्रित सात हजार तत्वचिन्तक और प्रबुद्ध विद्वान थे । यह उस समय की बात है जब भारत परतंत्र था और पाश्चात्य जगत को भारत और भारतीयोँ के नाम से भी घृणा थी ।
स्वामी विवेकानन्द एक युगांतरकारी प्रतिभाशाली मनीषी थे । उनकी अलौकिक प्रतिभा केवल आध्यात्मिक क्षेत्र मेँ ही प्रस्फुटित नहीँ हुई अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेँ उनकी दिव्य - दृष्टि का संचरण हुआ है । उन्होँने राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग , स्वाधीन भारत, कला, भाषा-संस्कृति, राष्ट्रधर्म, सन्यास, दलितोद्धार, शिक्षा, नारी सशक्तिकरण आदि विविध विषयोँ पर मौलिक विचार प्रकट किये है जिनकी प्रासांगिकता आने वाली पीढियोँ के लिए भी बनी रहेगी । स्वामीजी ने परतंत्रता, पाखण्ड और कुरूतियोँ की बेडियोँ मेँ जकडकर नष्ट हो चले हिन्दू धर्म को गतिशील एवं व्यवहारिक बनाया तथा सुदृढ भारत के पुनर्निमाण के लिए लोगोँ से पश्चिमी विज्ञान और भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोडने का आग्रह किया ।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 ईश्वी मेँ कलकत्ता ( वर्तमान कोलकाता ) के एक कुलीन परिवार मेँ हुआ । इनका पूर्व - आश्रम नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, सन्यास लेने के बाद मेँ अपने शिष्य खेतडी नरेश के अनुरोध पर अपना नाम ' विवेकानन्द ' धारण किया । इनके पिता थे विश्वनाथदत्त और माता का नाम था श्रीमती भुवनेश्वरी देवी । इनमेँ एक ओर जहाँ आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात प्रवृत्ति तथा प्राचिन धार्मिक प्रथाओँ के प्रति आदर था, वही दूसरी ओर उतना ही उनका प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था । वह प्रत्येक समस्या के समाधान के लिये वे अकाटय दलीलोँ की अपेक्षा किया करते थे । इसके लिए वे अनेक प्राख्यात धार्मिक नेताओँ से मिले किन्तु संतोष जनक उत्तर न पा सके - उनकी आध्यात्मिक प्यास और भी बढ गई ।
1881 मेँ वह स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले । नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा, " महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है ' ' हाँ, मैँने उन्हेँ देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हेँ देख रहा हूँ, बल्कि तुमसे भी अधिक प्रगाढ रूप से । " - श्रीरामकृष्ण देव ने दृढता से उत्तर दिया । नरेन्द्रनाथ का संशय स्वाहा हो गया, शिष्य की दीक्षा का यही से प्रारम्भ हुआ । 1881 से 1886 तक स्वामी विवेकानन्द अपने गुरू परमहंस रामकृष्ण से आध्यात्मिक जीवन की विद्या ग्रहण करते रहे । मात्र 16 वर्ष की अवस्था मेँ दक्षिणेश्वर के दिव्य संत से मिलन के बाद इनका जीवन सन्यास के रूप मेँ परिणित हो गया ।
अपनी महासमाधि के तीन - चार दिन पूर्व श्रीरामकृष्णदेव ने नरेन्द्रनाथ को अपनी स्वयं की सारी शक्ति दे डाली और उनसे कह दिया - ' मेरी इस शक्ति से जो तुममेँ संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बडे - बडे काम होँगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये होँ ।' शक्तिपात्त के बाद स्वामी विवेकानन्द के दृष्टिकोण मेँ एक जबर्दस्त परिवर्तन हुआ । भारतवर्ष को अच्छी प्रकार से जानने और पुनर्निमाण करने की तीव्र आकांक्षा से प्रेरित होकर उन्होँने छ्ह वर्षो तक सम्पूर्ण भारत का पैदल भ्रमण किया, इस काल मेँ उनको कई दिनोँ तक भूखे भी रहना पडा । अपने भ्रमण काल मेँ वस सामर्थ्यवानोँ और गरीबोँ दोनोँ के अतिथि रहेँ । उनकी भारत भ्रमण की यह यात्रा कन्याकुमारी मेँ सम्पन्न हुई । वहाँ स्वामी विवेकानन्द ने परम वैभलशाली भारत के पतन के कारणोँ का मनन किया और उन साधनोँ का चिन्तन किया जिससे भारत का पुनर्निमाण होँ । उसी क्षण उन्होँने पाश्चात्य देश मेँ होने वाली शिकागो धर्म संसद मेँ जाने का निश्चय किया ।
अपने नवयुवक भक्तोँ और खेतडी नरेश के आर्थिक सहयोग से स्वामीजी शिकागो पहुंचे । शिकागो धर्म संसद मेँ वह बिना आमंत्रण के गये थे, अतः परिषद् मेँ उनको प्रवेश की अनुमति मिलनी कठिन हो गयी । उनकोँ प्रवेश न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया । उस समय भारतीय होना पाप समक्षा जाने लगा था तथा पाश्चात्य जगत हिन्दू संस्कृति से घृणा करता था । हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के उद्योग से किसी प्रकार उन्हेँ धर्मसभा मेँ समय मिला और 11 सितम्बर 1893 को उनकी अपरोक्षानुभूति से निकले औजस्वी तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौका दिया । स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण की शुरूआत " अमेरिकी बहनोँ और भाईयोँ " से की तथा वहाँ एकत्र विद्वानोँ को वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देने वाले भारत एवं हिन्दू धर्म के वेदान्तिक संदेशोँ से अवगत कराया जो सभी धर्मो का सार है । अपने औजस्वी विचारोँ द्वारा उन्होँने भारत तथा हिन्दू धर्म की गौरवमय भव्यता को जाग्रत किया । 1893 से 1896 तक स्वामीजी ने पाश्चात्य देशोँ मेँ भ्रमण कर औजस्वी भाषण दिये, वेदान्त समिति की स्थापना की, उनके ग्रन्थ राजयोग का संकलन किया गया । अनेक विद्वानोँ ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया जिनमेँ कैप्टेन तथा श्रीमती सर्वियर, भगिनी निवेदिता, ई. टी. स्टर्डी एवं जे. जे. गुडविन प्रमुख है । पाश्चात्य देशोँ मेँ भारत तथा हिन्दू धर्म की विजय पताका फैराकर स्वामी विवेकानन्द भारत वापस लौट आये ।
क्रमश ......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

लालचौक पर तिरंगा न फैलायेँ भारतीय युवा - उमर अब्दुल्ला


क्या जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नही है या वह किसी इस्लामिक राष्ट्र का अंग है ! वहाँ के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान से तो यही लगता है । इतिहास की दृष्टि से देखे तो जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिँह ने उसका भारत मेँ विधिवत विलय किया था । लेकिन मोहनदास गांधी द्वारा आधुनिक भारतीय राजनीति मेँ बोये गये मुस्लिम तुष्टिकरण के बीज को जवाहरलाल नेहरु ने सीँचकर विशाल वट वृक्ष और भारत के अभिन्न अंग जम्मू कश्मीर को भारत का सर दर्द बना दिया । जिसका फायदा अलगाववादी आतंकवादी, उमर अब्दुल्ला जैसी सोच के कट्टर स्वार्थी मुसलमान, भारत सरकार से सम्मान पाने वाली विश्व विख्यात देश की गद्दार लेखिका अरुन्धति राँय और हमारेँ अल्पसंख्यक हित चिन्तक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता उठाते है । तभी तो एक ओर जहाँ जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर के लालचौक ( वह स्थान जहाँ राष्ट्रवादी चिन्तक व राजनेता डाँ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान हुआ था । ) पर राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फैराने की भारतीय युवाओँ की पवित्र भावनाओँ का विरोध करते हुए इससे राज्य के हालात बिगडने का आरोप लगाया । वही दूसरी ओर जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन आतंकवादी मौहम्मद यासीन मलिक ने तो राष्ट्रभक्त युवाओँ को खुली चेतावनी देते हुए कहा कि उन्हेँ लालचौक मेँ तिरंगा नहीँ फैराने दिया जायेगा । गद्दार लेखिका अरुन्धति राँय भी जम्मू कश्मीर को भारत का अंग मानने से इन्कार कर चुकी है । और वर्तमान भारतीय राजनीति वोट बैँक के चक्कर मेँ नपुंसक हो चुकी है । ऐसी स्थिति मेँ क्या हमेँ लगता है कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है ।
जम्मू कश्मीर को दिये गये विशेषाधिकार अनुच्छेद 370 के कारण भारतीय नागरिक उसकी रक्षा के लिए अपनी जान तो दे सकता है लेकिन वहाँ पर जमीन का एक टुकडा भी नहीँ खरीद सकता । खुद जम्मू कश्मीर के अन्दर भी जम्मू और लद्दाख सम्भागोँ के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है । अब समय आ गया है कि हम जम्मू कश्मीर समस्या के स्थाई समाधान की दिशा मेँ कुछ ठोस करेँ । आज के स्वार्थी राजनीतिक माहौल मेँ केवल लालचौक पर तिरंगा फैलाने से कुछ न होगा । इसके लिए हमेँ जम्मू कश्मीर को तीन हिस्सोँ जम्मू, कश्मीर और लद्दाख मेँ बाटना होगा । जिसके लिए हमे अमरनाथ श्राईन बोर्ड आंदोँलन की तर्ज पर एक दीर्घकालिक योजना बद्ध उग्र आंदोँलन छेडना होगा । जिसे जम्मू और लद्दाख सम्भाग के निवासी शुरु करेँ और शेष भारत के नागरिक उसका सभी तरह से समर्थन करेँ । जम्मू कश्मीर के तीन हिस्सोँ मेँ बटते ही अनुच्छेद 370 अपने आप हट जायेगा तथा वहाँ पर देशद्रोहियोँ को मुँह की खानी पडेगी । यह भारत के दीर्घकालिक हित मेँ हैँ, इसके अतिरिक्त जम्मू कश्मीर मेँ भारतीय एकता का दूसरा कोई स्थाई विकल्प नहीँ हैँ ।
वन्दे मातरम्
विश्वजीत सिंह 'अनंत'