महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कहा था - ' समृद्धि की अधिकता किसी भी सभ्यता के पतन का कारण बनती है । ' इसी बात को टायनबी ने कुछ इस प्रकार कहा है - ' सभ्यता जब अति सभ्य हो जाती है , तब कोई न कोई बर्बरता आकर उसे निगल जाती है । ' और अरब साम्राज्यवादी जेहादी विचारधारा के इसी अडियलपन , अनुदारता और असहिष्णुता की भावनाओं को देखते हुए जार्ज बर्नाड शा ने लिखा था - It is too bad to be too good . ( बहुत बुरा होता है बहुत भला भी होना । ) प्रख्यात साहित्यकार गुरूदत्त अक्सर कहा करते थे - ' हिन्दू समाज के पतन के दो कारण मुख्य है । एक तो ' भाग्यवाद ' और दूसरा ' वसुधैव कुटुम्बकम् ' की भावना ।
इतिहास साक्षी है कि विश्व विजेता रहे भारत का पराधीन होने का एक मूल कारण अति उदारता है जो अहिंसा के सच्चे अर्थ को न जानने के कारण उपजी । पिछले 2500 वर्षो से अत्याधिक उदारता ही हमारे राष्ट्र नायकों की विजयों को पराजयों में परिणत करती रही है । पृथ्वीराज चौहान की आँखें न जाती , भारत परतंत्र न होता , यदि उसने तरावडी के मैदान के पहले युद्ध में मोहम्मद गोरी को क्षमा करने के स्थान पर उसका सिर उडा दिया होता , और अरब साम्राज्यवादी मुस्लिम आक्रांताओं के समान ही उस सिर को भाले पर रख वह अपनी सेनाओं को गजनी तक ले गया होता ।
इतिहास इस बात को चीख - चीख कर कह रहा है कि तथाकथित अहिंसावादियों की कायरता अथवा उदारता के कारण ही साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान बना , और यही पाकिस्तान भारत के नपुंसक नेताओं की उदारता के कारण आज भी भारत का सबसे बडा सिर दर्द बना है । पाकिस्तान के विषैले दन्त आज हमें इस प्रकार न डस रहे होते यदि हमने ताशकन्द में उन टूटे दान्तों को फिर से उसी के मुँह में न लगा दिया होता , और फिर दोबारा शिमला में उस पराजित , हतगौरव मेमने को फिर से भेडिया बनने का अवसर न दिया होता । उदारता के इस अतिरेक को चेतावनी देते हुए ही राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था -
विष खींचना है तो उखाड विषदन्त फेंको ,
वृक-व्याघ्र-भीति से मही को मुक्त कर दो ।
अथवा अजा के छागलों को ही बनाओं व्याघ्र ,
दान्तों में कराल कालकूट विष भर दो ।।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
आदरणीय विश्वजीत सिंह जी, बहुत सही कहा,,,
जवाब देंहटाएंआचार्य चाणक्य भी कह गए हैं, अति सर्वत्र वर्ज्यते...
इसी अति उदारता के चलते हम पिछले बारह सौ वर्षों से पिटते आ रहे हैं|
पूर्णतया सहमत |
जवाब देंहटाएंजितना नुक्सान हमे दुर्जनों की दुर्जनता से नहीं हुआ... उससे
ज्यादा सज्जनों की निष्क्रियता से हुआ है... ― चाणक्य