रविवार, 6 मार्च 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - तीन


नेताजी सुभाष की कथित मृत्यु की घोषणा के बाद जवाहर लाल नेहरू ने 1956 मेँ शाहनवाज कमेटी तथा इन्दिरा गांधी ने 1970 मेँ खोसला आयोग द्वारा जांच करवाई तथा दोनोँ जांच रिपोर्टो मेँ नेताजी को उस विमान दुर्घटना मेँ मृत घोषित किया गया । लेकिन जिस देश मेँ यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनोँ आयोगोँ ने बात ही नहीँ की । 1978 मेँ मोरारजी देसाई सरकार ने इन रिपोर्टो को रद्द कर दिया । 1999 मेँ अटलबिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व मेँ तीसरा आयोग बनाया गया । 2005 मेँ ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान की भूमि पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीँ था । मुखर्जी आयोग ने सोनिया गांधी की यूपीए सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौप दी, जिस मेँ उन्होँने कहा है कि नेताजी सुभाष की मृत्यु उस विमान दुर्घटना मेँ होने का कोई प्रमाण नहीँ हैँ । लेकिन यूपीए सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया । कांग्रेसनीत यूपीए सरकार द्वारा इस रिपोर्ट को रद्द किया जाना वीर महात्मा नाथूराम गोडसे के उस वचन की याद दिलाते हैँ जिसमेँ उन्होँने कहा था कि - ' गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न था स्वाधीन, शक्तिशाली और समृद्ध । नेताजी भारत को अखण्ड राष्ट्र के रूप मेँ देखना चाहते थे । लेकिन गांधी - नेहरू की भ्रष्ट साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीतियोँ ने देश का विभाजन करके उनके स्वप्न की हत्या कर दी । दो धर्म - दो देश के आधार पर भारत का विभाजन करा दिया गया जो विश्व की सबसे बडी त्रासदी हैँ । कांग्रेस यदि नेताजी की चेतावनी पर समय रहते ध्यान देती और गांधीवाद के पाखण्ड मेँ न फंसी होती तो देश न बटता तथा मानवता के माथे पर भयानक रक्त - पात का कलंक लगने से बच जाता । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि " आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक गुलामी से छुटकारा ही नहीं हैं , देश की सम्पत्ति का समान बटवारा , जात-पात के बंधनों और सामाजिक ऊँच-नीच से मुक्ति तथा साम्प्रदायिकता और धर्मांधता को जड से उखाड फेंकना ही सच्ची आजादी होगी । "
आप सभी राष्ट्रवादियोँ से विनम्र निवेदन हैँ कि आप सब भी जाति - धर्म, पार्टी - संगठन आदि के भेद को भूलकर नेताजी के अधूरे स्वप्न को पूरा करने की दिशा मेँ अग्रसर होँ । वास्तव मेँ निस्वार्थ भाव से राष्ट्रहित मेँ अपना सर्वस्य न्यौछावर कर देने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सच्चे नायकोँ मेँ से एक थेँ ।
जय नेताजी सुभाष
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - दो



उस समय गांधीवादी यही समझते थे कि गांधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या को अपना पूर्ण समर्थन दिया है इसलिए वह आसानी से चुनाव जीत जाएंगे । लेकिन परिणाम उनकी आशा के ठीक विपरीत आया । सुभाष चन्द्र बोस को चुनाव मेँ 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले । गांधीजी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष 203 मतोँ से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये । गांधीजी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैँ । ' गांधी व उनके साथियोँ ने सुभाष को उनके कार्यो मेँ सहयोग करना तो दूर उल्टा उन्हेँ मानसिक रूप से प्रताडित करना शुरू कर दिया । सुभाष ने समझोते की बहुत कौशिश की, लेकिन गांधी व गांधी के सहयोगियोँ ने उनकी एक न मानी । आखिर मेँ परेशान होकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष बाबू ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । और 3 मई 1939 मेँ फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी बना ली । सितम्बर 1939 मेँ यूरोप मेँ महायुद्ध छिड गया और फॉरवर्ड ब्लॉक ने नेताजी सुभाष के नेतृत्व मेँ अंग्रेजोँ के विरूद्ध देश भर मेँ प्रदर्शनोँ का आयोजन किया । 1940 मेँ सुमाष को उनके घर मेँ ही नजरबंद कर दिया गया ।
16 जनवरी 1941 को सुभाष ब्रिटिस सरकार के पहरे को तोडकर भेष बदलकर घर से भाग निकले और अखण्ड भारत को अंग्रेजोँ से मुक्त कराने के प्रयास मेँ अफगानिस्तान, रूस होते हुये जर्मनी पहुँच गये । उन्होँने जर्मनी मेँ भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिन्द रेडियोँ की स्थापना की । इसी दौरान सुभाष चन्द्र बोस नेताजी के उपनाम से जाने जाने लगे । 29 मई 1942 को नेताजी एडॉल्फ हिटलर से मिले । हिटलर ने उन्हेँ भारत का उच्च प्रतिनिधि स्वीकार किया और बिना शर्त अपना समर्थन दिया । कुछ वर्ष पूर्ण हिटलर ने ' माईन काम्फ ' नाम से अपना आत्मचरित्र लिखा था जिसमेँ उन्होँने भारत और भारतीय लोगो पर कुछ आपत्तिजनक बाते लिखी थी । नेताजी ने निर्भिक स्वर मेँ हिटलर से अपना विरोध जताया तो हिटलर ने खेद प्रकट किया और अगले संस्करण मेँ भारतीय दृष्टिकोण को बदल देने का वचन दिया ।
13 मई 1943 को नेताजी सुभाष जापान पहुँच गये और वहाँ के प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो से 10 जून 1943 को मुलाकात की । जापान के प्रधानमन्त्री तोजो ने नेताजी सुभाष के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ सहकार्य करने का आश्वासन दिया । जून 1943 मेँ नेताजी ने टोकियो रेडियोँ से घोषणा की कि ' अंग्रेजोँ से यह आशा करना व्यर्थ हैँ कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड देगे, हमेँ स्वयं भारत के भीतर व बाहर से भी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करना होगा ।
4 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष ने महान प्रवासी क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से आजाद हिन्द फौज का दायित्व ग्रहण किया । 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाष ने सिंगापुर मेँ स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार की स्थापना की । कुछ ही दिनोँ मेँ विश्व के नौ देशोँ जापान, जर्मनी, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, बर्मा, थाईलैण्ड और आयरलैण्ड ने ' आजाद हिन्द सरकार ' को मान्यता दे दी । जापान ने अंडमान तथा निकोबार द्वीप इस अस्थाई सरकार को दे दिये । नेताजी ने अंडमान का शहीद द्वीप और निकोबार का स्वाराज्य द्वीप नामाकरण करके 30 दिसम्बर 1943 को वहाँ स्वतंत्र भारत का ध्वज फैरा दिया ।
4 फरवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने नेताजी के नेतृत्व मेँ जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिस सेना पर भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय क्षेत्रोँ को अंग्रेजोँ से मुक्त करा लिया । 22 सितम्बर 1944 को नेताजी सुभाष ने रंगून के जुबली हॉल मेँ अपने भाषण मेँ राष्ट्रभक्तोँ का आह्वान करते हुये कहा था कि - ' हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज मेँ हैँ, तुम मुझे खून दोँ, मैँ तुम्हेँ आजादी दूंगा, यह स्वातंत्र्य देवी की मांग हैँ । ' किन्तु दुर्भाग्यवश युद्ध मेँ आगे जाकर अंग्रेजोँ का पलडा भारी पडा और दोनो सेनाओँ को पीछे हटना पडा । ऐसे समय मेँ गांधीजी ने जिनके हाथ मेँ उस समय करोडोँ भारतीयोँ की नब्ज थी और जिनसे आजाद हिन्द फौज को काफी मदद मिल सकती थी सुभाष की सहायता के लिए कुछ नहीँ किया बल्कि गांधी के प्रिय जवाहर लाल नेहरू ने 24 अप्रैल 1945 को गुवाहाटी की एक जनसभा मेँ कहा कि - ' यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान की सहायता से भारत पर हमला किया तो मैँ स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लडकर रोकने जाऊँगा । '
द्वितीय विश्वयुद्ध मेँ जापान और जर्मनी की हार और भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ के प्रति गांधी के नकारात्मक दृष्टिकोण को देखते हुये सुभाष ने अखण्ड भारत की आजादी के लिये रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया । 18 अगस्त 1945 को नेताजी ने हवाई जहाज से मांचुरिया के लिए उडान भरी । इस उडान के बाद से नेताजी का कुछ भी प्रमाणित पता नहीँ हैँ ।
23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने तथाकथित विमान दुर्घटना मेँ नेताजी सुभाष की मृत्यु का समाचार प्रसारित किया । जिस पर स्वभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि नेताजी सुभाष यदि 18 अगस्त 1945 को मर चुके थे तो उन्हेँ 1999 तक राष्ट्र संघ का युद्ध अपराधी घोषित क्योँ किया गया ?
क्रमश ......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

शनिवार, 5 मार्च 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एक नया दृष्टिकोण भाग - एक


23 जनवरी 1897 को कटक के प्रसिद्ध अधिवक्ता जानकीनाथ बोस के घर जन्मेँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस बाल्यकाल से ही निर्भय, बलवान एवं साहसी थे । इनकी माता प्रभावती एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी । अंग्रेजी प्रबंधकोँ द्वारा भारतीयोँ पर किये जा रहे अत्याचारोँ ने तथा धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द के भाषणोँ एवं लेखोँ ने उनके अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला, अल्प आयु मेँ ही उन्होँने ग्राम सुधार के क्रान्तिकारी कार्यो मेँ भाग लेना शुरू कर दिया । सुभाष ने 1913 मेँ मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । 1919 मेँ कोलकात्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की । 15 सितम्बर 1919 को सुभाष इंग्लैँड गये और कैंब्रिज विश्वविद्यालय मेँ प्रवेश ले लिया । आई. सी. एस. की परीक्षा पास कर लेने पर अंग्रेजी सरकार ने उन्हेँ लन्दन मेँ ही नौकरी दे दी । लेकिन सुभाष ने भारत की जनता पर अंग्रेजी सरकार द्वारा किये जा रहे अत्याचारोँ को देखते हुये अंग्रेजोँ की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और 16 जुलाई 1921 को भारत वापस लौटकर मातृभूमि को आजाद करवाने के कार्य मेँ जुट गये । 20 जुलाई 1921 को उन्होँने गांधीजी से मुलाकात की और अपना समर्थन दिया । सुभाष अपने भारत प्रवास के दौरान ग्यारह बार अंग्रेजोँ की कैद मेँ रहें । आजाद हिन्द फौज के पुर्नसंस्थापक एवं आजाद हिन्द सरकार के पुरोधा नेताजी सुभाष ने रंगून के जुबली हॉल मेँ अपने भाषण मेँ राष्ट्रभक्तोँ का आह्वान करते हुये कहा था कि - ' हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज मेँ हैँ, तुम मुझे खून दोँ, मैँ तुम्हेँ आजादी दूंगा । '
राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सुभाष को प्रेरित करने मेँ चितरंजन दास का विशेष योगदान था । 1922 मेँ सुभाष कलकत्ता महानगर पालिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चुने गये । सुभाष ने अपने कार्यकाल के दौरान कोलकात्ता महापालिका का पूरा तंत्र और कार्यपद्धति को ही बदल डाला । कोलकात्ता के रास्तोँ के नाम बदलकर, उन्हेँ भारतीय नाम दिये गये । स्वतंत्रता संग्राम मेँ प्राण न्योछावर करने वालोँ के परिवार के सदस्योँ को नौकरी दी जाने लगी । बहुत ही कम समय मेँ सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण शक्तिशाली युवा नेता बन गये । युवा वर्ग के प्रति उनके विचार काफी दृढ थेँ, वे सदैव युवाओँ को अपने आन्दोलन से जोडते रहेँ । जवाहर लाल नेहरू के साथ मिलकर सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकोँ की इंडिपेडन्स लिग शुरू की ।
1928 मेँ कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन मेँ सुभाष ने गणवेश धारण करके उस समय के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी । गांधीजी उन दिनोँ पूर्ण स्वतंत्रता की मांग से सहमत नहीँ थे और इस अधिवेशन मेँ उन्होँने अंग्रेजी सरकार की अपनिवेशी स्वतंत्रता की सन्धि को स्वीकार कराने की ठान ली थी । लेकिन सुभाष को पूर्ण स्वतंत्रता से पिछे हटना स्वीकार न था । सुभाष ने इस सन्धि का विरोध करते हुये कहा कि हम भारत की पूर्ण आजादी से कम कोई भी बात स्वीकार नहीँ करेंगे । हमेँ अधूरी आजादी स्वीकार नहीँ हैँ । हमेँ पूर्ण स्वतंत्रता चाहिये और हम इसे प्राप्त करने के लिये कुछ भी करने को तैयार हैँ ।
26 जनवरी 1931 के दिन कोलकात्ता मेँ सुभाष स्वतंत्रता के उपासकोँ के एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ चलायी और सुभाष को घायल कर दिया । जब सुभाष जेल मेँ थे तो गांधीजी ने चतुराई पूर्वक क्रान्तिकारियोँ मेँ आपसी फूट डालने के लिये अंग्रेजी सरकार से समझोता किया और सब कांग्रेसी कैदियोँ को रिहा किया गया । लेकिन अंग्रेजी सरकार ने भगतसिंह जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारियोँ को रिहा करने से इन्कार कर दिया । भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी माफ कराने के लिये गांधीजी ने अंग्रेजी सरकार से बात तो की लेकिन उन्हेँ बचाने के लिये कोई दृढ इच्छाशक्ति प्रकट नहीँ की । सुभाष चाहते थे कि इस मुद्दे पर गांधीजी अंग्रेजी सरकार के साथ किया गया समझोता तौड देँ । लेकिन गांधीजी अंग्रेजी सरकार के साथ किया गया समझोता तौडने को तैयार न हुये । अन्त मेँ भगतसिंह और उनके साथियोँ को नियम विरूद्ध 24 मार्च 1931 को प्रातःकाल दी जाने वाली फाँसी 23 मार्च को शाम मेँ ही दे दी गई, सारा देश इस अन्याय के खिलाप उठ खडा हुआ, लेकिन गांधीजी शान्त रहेँ । भगतसिंह को न बचा पाने के कारण सुभाष तथा अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की नीतियोँ के विरोधी हो गये ।
नेताजी सुभाष मेँ नेतृत्व के सभी गुण विद्यमान थे । प्रखर देशभक्ति, त्याग की भावना, कार्य निष्पादित करने की लगन, दार्शनिकता और दूरदर्शी सोच । अतः 1938 मेँ सुभाष को कांग्रेस के 51 वेँ अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया । अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल मेँ सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की और जवाहर लाल नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया । इसी दौरान यूरोप मेँ द्वितीय विश्व युद्ध के बादल छा गए । सुभाष चाहते थे कि इंग्लैँड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत की आजादी की लडाई को ओर तेज किया जाये । यह भारत की आजादी के लिए स्वर्णिम अवसर है । लेकिन गांधीजी को उनके स्वतंत्रता के हेतुक कार्यकलाप पसंद नहीँ आये और वह उनके विचारोँ से सहमत नहीँ हुये ।
1939 मेँ जब कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो अखण्ड भारत की पूर्ण आजादी के विषय पर किसी के दबाव के सामने न झुके । ऐसा कोई व्यक्ति सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहा । लेकिन गांधीजी जिस बात को अपने अनुकूल नहीँ पाते थे उसे दबा देते थे । सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीतियोँ पर नहीँ चले अतः गांधीजी व उनके साथी सुभाष को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे । गांधीजी ने सुभाष के खिलाप पट्टाभी सीतारमैय्या को चुनाव लडाया । किन्तु उस समय गांधी से कही ज्यादा लोग सुभाष को चाहते थे । उस समय सिर्फ सुभाष ही थे जिन्होँने लोगो के दिलोँ पर राज किया था ।
क्रमश ......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'