गुरुवार, 20 सितंबर 2012

रास बिहारी बोस का पत्र सुभाष के नाम

मेरे प्रिय सुभाष बाबू,
भारत के समाचार पत्र पाकर मुझे यह सुखद समाचार मिला है कि आगामी कांग्रेस सत्र के लिए आप अध्यक्ष चुने गये है । मैं हार्दिक शुभकामनायें भेजता हूँ । अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने में कुछ हद तक बंगाली भी जिम्मेदार थे । अतः मेरे विचार से बंगालियों का यह मूल कर्तव्य बनता है कि वे भारत को आजादी दिलाने में अधिक बलिदान करें ।
...देश को सही दिशा में ले जाने के लिए आज कांग्रेस को क्रांतिकारी मानसिकता से काम लेना होगा । इस समय यह एक विकासशील संस्था है - इसे विशुद्ध क्रांतिकारी संस्था बनाना होगा । जब पूरा शरीर दूषित हो तो अंगों पर दवाई लगाने से कोई लाभ नहीं होता ।
अहिंसा की अंधी वंदना का विरोध होना चाहिये और मत परिवर्तन होना चाहिये । हमें हिंसा अथवा अहिंसा - हर संभव तरीके से अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहिये । अहिंसक वातावरण भारतीय पुरूषों को स्त्रियोचित बना रहा है । वर्तमान विश्व में कोई भी राष्ट्र यदि विश्व में आत्म सम्मान के साथ जीना चाहता है तो उसे अहिंसावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये । हमारी कठिनाई यह है कि हमारे कानों में बहुत लम्बे समय से अन्य बातें भर दी गयी है । वह विचार पूरी तरह निकाल दिया जाना चाहिये ।
...मुसलमान कहते है : पीर, अमीर तथा फकीर - ताकि व्यक्ति दुनिया का सामना कर सके । यदि आप फकीर नहीं बन पाते, तो अमीर बन जायें और जीवन को जियें । यदि आप अमीर नहीं बन सकते, तो पीर बन जाइये । इसका अर्थ है कि काफिर को मार डालो और विश्व के लोग तुम्हें या तुम्हारी कब्र को ईश्वर की भांति पूजेंगे ।
... शक्ति आज की वास्तविक आवश्यकता है । इस विषय पर आपको अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिये । डॉ. मुंजे ने अपना मिलेटरी स्कूल स्थापित करके कांग्रेस की अपेक्षा अधिक कार्य किया है । भारतीयों को पहले सैनिक बनाया जाना चाहिये । उन्हें अधिकार हो कि वे शस्त्र लेकर चल सकें । अगला महत्वपूर्ण कार्य हिन्दू - भाईचारा है । भारत में पैदा हुआ मुस्लिम भी हिन्दू है, तुर्की, पर्शिया, अफगानिस्तान आदि के मुसलमानों से उनकी इबादत - पद्धति भिन्न है । हिन्दुत्व इतना कैथोलिक तो है कि इस्लाम को हिन्दुत्व में समाहित कर ले - जैसा कि पहले भी हो चुका है । सभी भारतीय हिन्दू है - हालांकि वे विभिन्न धर्मो में विश्वास कर सकते है । जैसे कि जापान के सभी लोग जापानी है, चाहे वे बौद्ध हों, या ईसाई ।
...हमें यह मालूम नहीं है कि जीवन कैसे जीया जाये और जीवन का बलिदान कैसे किया जाये । यही मुख्य कठिनाई है । इस संदर्भ में हमें जापानियों का अनुसरण करना चाहिये । वे अपने देश के लिए हजारों की संख्या में मरने को तैयार है । यही जागृति हम में भी आनी चाहिये । हमें यह जान लेना चाहिये कि मृत्यु को कैसे गले लगाया जा सकता है । भारत की स्वतंत्रता की समस्या तो स्वतः हल हो जायेगी ।
आपका शुभाकांक्षी,
रास बिहारी बोस
25-1-38 टोकियो

बुधवार, 19 सितंबर 2012

नेहरू ने नेताजी को ब्रिटेन का युद्ध अपराधी कहा था !

जवाहर लाल नेहरू ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को पत्र लिख कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ब्रिटेन का युद्ध अपराधी बताया था और रूस द्वारा उन्हें पनाह देने को द्रोह और विश्वासघात करार दिया था ।
नेहरू के इस पत्र को विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमलेंदु गुहा ने अपनी पुस्तक ' नेताजी सुभाष : आइडियोलाजी एंड डाक्ट्रीन ' में प्रकाशित किया है । लेकिन पुस्तक का विमोचन करते हुए पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरामन ने पुस्तक में उद्धत इस पत्र पर असहमति जताई थी, उनका मानना था कि नेहरू की ऐसी भाषा नहीं है और उन्हें लगता है कि उन्होंने ऐसा पत्र नहीं लिखा होगा । श्री वेंकटरमण ने इस पर भी सवाल उठाया था कि नेहरू का पत्र प्रधानमंत्री के लैटरपैड पर नहीं है और जब भी कोई प्रधानमंत्री किसी दूसरे देश के प्रधानमंत्री को पत्र भेजता है तो आधिकारिक रूप से अपने लैटरपैड पर लिखता है ।
नार्वे में ओस्लो स्थित ' इंस्टीट्यूट फॉर एल्टरनेटिव डेवलपमेंट रिसर्च ' के निदेशक और इस पुस्तक के लेखक श्री अमलेंदु गुहा ने श्री वंकेटरमन की आपत्ति का उत्तर जोरदार तरीके से देते हुए कहा कि नेहरू ने वास्तव में ऐसा पत्र लिखा था और यह पत्र लंदन के ब्रिटिश अभिलेखागार में सुरक्षित है । उन्होंने कहा कि नेहरू ने यह पत्र सादे कागज पर उस समय लिखा था, जब वह प्रधानमंत्री थे ही नहीं और इसलिए यह सरकारी रिकार्ड में नहीं है ।
विश्व के छह राष्ट्राध्यक्षों के आर्थिक सलाहकार रह चुके प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री अमलेंदु गुहा द्वारा लिखित इस पुस्तक में प्रकाशित पत्र के अनुसार पंडित नेहरू ने लिखा कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को रूस ने अपने यहां प्रवेश करने की इजाजत देकर द्रोह और विश्वासघात किया है । पत्र के अनुसार उन्होंने लिखा था कि रूस चूंकि ब्रिटिश, अमेरिकियों का मित्र राष्ट्र है, इसलिए रूस को ऐसा नहीं करना चाहिए । पत्र में लिखा था कि इस पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए ।
श्री गुहा ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि पंडित नेहरू के मन में नेताजी के लिए व्यक्तिगत नापसंदगी थी और वह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को नेताजी के बारे में गोपनीय सूचना देने में नहीं हिचके । प्रस्तावना में कहा गया है कि पंडित नेहरू ने यह पत्र डिक्टेट कराया था, आसफ अली के विश्वस्त स्टेनो शामलाल ने अपने हलफनामे में इसकी पुष्टि भी की है । श्री गुहा ने कहा कि उन्होंने जो लिखा है, उस पर वह कायम है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

राजद्रोही शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी

सन् 1924 में ब्रिटेन के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए थे तो भारत की आम जनता ने उनके भारत आगमन का बहिष्कार कर दिया । ब्रिटिश सरकार परेशान हो गई क्योंकि वो चाहती थी कि भारत की जनता श्रद्धा - भक्ति के साथ युवराज का आदर - सम्मान करे । ब्रिटिस सरकार यह भली - भाति जानती थी कि भारत की धर्मपरायण जनता अपने धर्माचार्यो के आदेशों का पालन करने को हमेशा तत्पर रहती है, अतः ब्रिटिश सरकार की ओर से पत्र द्वारा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ जी से अनुरोध किया गया कि वह राजा को भगवान विष्णु का प्रतिनिधि मानने के हिन्दू धर्म के सिद्धांत के अनुसार राजकुमार वेल्स को सम्मान देने का आदेश अपने अनुयायियों को दें । शंकराचार्य जी ने पत्र पढ़ा तथा निर्भय होकर उत्तर दिया, ' अंग्रेज विदेशी लुटेरे हैं । वे प्रजा - पालक नहीं हैं । जिन्होंने हमारी मातृभूमि को छल - कपट से गुलाम बना रखा हैं, उन्हें विष्णु का प्रतिनिधि कैसे घोषित किया जा सकता है ? ' साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन उनके उत्तर से क्रोधित हो गया । पूज्य शंकराचार्य जी को कारागार में बंद करके उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया लेकिन शंकराचार्य जी अपनी राष्ट्रभक्ति कर अडिग रहे ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 10 सितंबर 2012

कब तक रहेगा - इंडिया, दैट इज भारत

किसी भारतीय भाषी से हमारे देश का नाम पूछिये तो वह कहेगा - भारत , मैं भी कहूंगा - भारत , लेकिन किसी अंग्रेजीदां से पूछ कर देखिए, वह कहेगा - इंडिया, लेकिन क्या किसी देश के दो - दो नाम होते है ? अमेरिका के कितने नाम है ? और ब्रिटेन के ? क्या श्रीलंका का कोई अंग्रेजी नाम भी है ? स्वाधीनता से पूर्व श्रीलंका को ' सीलोन ' तथा म्यांमार को ' बर्मा ' के नाम से जाना जाता था, लेकिन जब उनमें राष्ट्रीयता का बोध जागा, तो उन्होंने अपना नाम बदल लिया, आज उन्हें उनके पूर्व नामों से कोई नहीं जानता है, न लिखता है और न बोलता है और अब सारी दुनियां उन्हें श्रीलंका और म्यांमार के नाम से जानती है । यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हम अभी भी दो - दो नाम ढो रहे है , हम अपने को भारत मानते है, लेकिन दुनियां हमें इंडिया कहती है । और भारत सरकार आज भी अपने को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया लिखती है ।
ब्रिटिश शासकों के चंगुल से तो ' इंडिया ' मुक्त हो गया किन्तु तब तक यह आर्यावर्त तो किसी तरह रह ही नहीं गया था, भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्थान भी नहीं बन पाया । क्योंकि सत्ता हस्तांतरण के समय हमारे स्वदेशी शासन का सूत्र संचालन जिन तथाकथित कर्णधारों ने येन - केन - प्रकारेण अपने हाथों में लिया वे भारतीय संस्कृति, भाषा, साहित्य, धर्म, दर्शन व परंपरा, विज्ञान, इतिहास और जीवनमूल्यों के प्रति हीन भावना की मनोग्रन्थि से ग्रस्त थे, वे केवल नाम और शरीर से भारतीय थे । उन्होंने एक ऐसे समाज के निर्माण की नीव डाली जो भारतीयता से शून्य थी और इस देश को इंडिया, दैट इज भारत बना दिया । पिछले पैंसठ वर्षो में उसमें से भी भारत तो लुप्त ही होता जा रहा है, क्योंकि इंडिया उसको पूर्ण रूप से निगलता जा रहा है । शकों, हूणों, तुर्को, मुगलों, अरबों, अफगानों के बर्बर जेहादी आक्रमण और शासन जिसका स्वरूप विकृत नहीं कर सके, उसे केवल दो - सौ वर्षो की ब्रिटिश शासकों की कुसंगति और शिक्षा पद्धति ने आपाद - मस्तक रूपांतरित कर दिया ।
स्वतंत्रा प्राप्ति से पूर्व जो युवा पीढ़ी देश में थी उसकी सारी शक्ति संचित रूप से एक महान लक्ष्य को समर्पित थी । वह लक्ष्य था - पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ कर देश को विदेशियों की दासता से मुक्त करना । अपनी सारी शक्ति से वह पीढ़ी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये दृढ़ संकल्प थी और अंततः वह सफल भी हो गई । किन्तु विडम्बना यह है कि युवा पीढ़ी के उस बलिदान का श्रेय तत्कालीन स्वार्थान्ध किन्तु चतुर नेताओं ने अपनी झोली में समेट कर पूरी पीढ़ी को घोर चाटुकारिता नपुंसकता के पर्यायवाची गीत ' दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल ' की लय पर नचा दिया । न केवल इतना अपितु तिल - तिल कर अपने प्राणों की आहुति देने वाले महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, गोकुल सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, पं. नाथूराम गोडसे, मदन लाल ढिंगरा, वीर सावरकर जैसे वीरों की नितांत अवहेलना कर उन्हें लांक्षित किया ।
स्वाधीना प्राप्ति से पूर्व और पश्चात की स्थिति का विश्लेषण करने पर जो दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य प्रकट होता है वह यह है कि पहले तो अभारतीय अर्थात अहिन्दू ही भारत तथा भारतीयता को नष्ट करने में संलग्न थे, किन्तु आज भारतीय और हिन्दुओं के द्वारा ही भारतीयता तथा हिन्दुत्व को नष्ट करने का कार्य किया जा रहा है । भारतीय जीवन पद्धति के सोलह संस्कारों में से अधिकांश तो भुला दिये गए हैं, शेष भी शीघ्र भुला दिये जाने की स्थिति में है । विवाह जैसे महत्वपूर्ण संस्कार पंजीयक के कार्यालय में सम्पन्न होने लगे हैं । वैदिक विधि से सम्पन्न होने वाले विवाहों में भी केवल परिपाटी का ही परिचलन किया जाने लगा है । जन्मदिन तो बहुत पहले से ही ' बर्थ - डे ' के रंग में रंग गए है, जिनकी जीवन - ज्योति को जलाया नहीं बल्कि बुझाया जाता है । पारिवारिक संबोधन और संबंध मम्मी - डैडी, आंटी - अंकल, मदर - फादर, कजन - बर्दर आदि में परिवर्तित हो गए है । सामाजिक समारोह, संस्कारों आदि के अवसर पर निमंत्रण पत्रों को संस्कृत, हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में मुद्रित कराना उनकी दृष्टि में स्वयं को पिछड़ा सिद्ध करना है ।
सत्तालोलुप अधिकांश नेता सत्ता हस्तांतरित होते ही देश प्रेम को भुल कर जो कुछ त्याग - तप करने का नाटक उन्होंने किया था, उससे सहस्र गुणा अधिक समेटने के लिए आतुर हो उठे । उभरती हुई युवा पीढ़ी और देश के पुर्निर्माण की बात भूल कर वे अपने निर्माण में जुट गए । पाश्चात्य सभ्यता में आकण्ठ डूबे होने के कारण वे अपने तुच्छ स्वार्थो की पूर्ति और तुष्टि के लिये उन्होंने भावी भारत की निर्मात्री पीढ़ी के भविष्य के साथ - साथ देश के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया ।
ऐसी स्थिति में अब वर्तमान पीढ़ी को ही भारत को इंडिया के चंगुल से मुक्त कर उसे पुन विश्व की महाशक्ति बनाने व जगद्गुरू पद पर प्रतिष्ठित करने का दायित्व लेना होगा । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारतीय शिक्षा प्रणाली को पुर्नजीवित करना होगा । संविधान में संसोधन करा इंडिया शब्द की बजाय भारत का प्रावधान कराना होगा तथा देश की किशोर व युवा पीढ़ी को राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के साथ जोड़ना होगा ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '


प्रिय राष्ट्र प्रेमियों, आपको यह जानकर हर्ष होगा कि वैदिक राष्ट्रवादी चिंतन के अनुसार साम्प्रदायिकता एवं भ्रष्टाचार के उन्मूलन तथा भारतीय संस्कृति व मानवाधिकार के संरक्षण हेतु प्रगतिशील देशभक्तों के राष्ट्रव्यापी संगठन ' साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चा ( रजिस्टर्ड ) द्वारा भारतीय संस्कृति के संरक्षण व सम्वर्धन हेतु देश के संविधान से अपमानजनक शब्द इंडिया को हटाकर भारत की पुर्नस्थापना हेतु जन आन्दोलन तथा गौ - गुरूकुल परियोजना का प्रारम्भ किया जा रहा हैं । सहयोगी राष्ट्रभक्त बंधु संस्था के ईमेल svmbharat@gmail.com पर या हमारे फोन नम्बर 09412458954 पर कॉल कर अधिक जानकारी ले सकते है ।
वन्दे मातरम्
जय माँ भारती ।
आपका - विश्वजीत सिंह ' अनंत '

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

वैदिक दण्ड विधान और लोकपाल विधेयक

वेद के अनुसार जिस गलती को एक आम आदमी करता है और उसी गलती को प्रथम श्रेणी का आदमी करता है, तो आम आदमी के मुकाबले पर प्रथम श्रेणी के आदमी को आठ गुणा दण्ड अधिक मिलना चाहिये । जैसे जिस समय द्वापर काल ( अब से लगभग 5200 वर्ष पूर्ण ) में युवराज युधिष्ठिर व युवराज दुर्योधन में से राजा चुनने हेतु पात्रता परीक्षा का आयोजन हुआ, तो प्रश्न रखा गया था कि चार मानव है, उनमें एक ब्राह्मण, एक क्षत्रिय, एक वैश्य और एक शुद्र है । उन्होंने एक निअपराध मानव की हत्या कर दी है, तो उनको दण्ड देने की प्रक्रिया किस प्रकार की जाये । इसके उत्तर हेतु सर्वप्रथम दुर्योधन को आमंत्रित किया गया । दुर्योधन ने उत्तर में कहाँ कि चारों को समान रूप में दण्ड दिया जाये । फिर युधिष्ठिर को आमंत्रित किया गया, तो वैदिक दण्ड विधान को जानने वाले युधिष्ठिर ने अपने उत्तर में कहाँ कि इन चारो अपराधियों में से शुद्र को चार वर्ष का दण्ड देना चाहिये, क्योंकि इसका ज्ञान कम है । फिर वैश्य के प्रति कहाँ कि यह शुद्र से अधिक ज्ञानवान है तथा व्यापार, कृषि व पशु पालन में कुशल है, इसको आठ वर्ष का दण्ड देना चाहिये । फिर क्रम क्षत्रिय का आता है, इसमें युधिष्ठिर ने कहाँ कि क्षत्रिय पर जनता की रक्षा का दायित्व होता हैँ, इसने अपने दायित्व का उलंघन कर अनुचित कदम उठाया है, इसलिये इसको सौलह वर्ष का दण्ड देना चाहिये । फिर क्रम ब्राह्मण का आता है, इसमें युधिष्ठिर ने कहा कि ब्राह्मण का कार्य सर्व समाज को शिक्षा देना हैँ, ब्राह्मण गुरू होता है और जैसा गुरू होता है, वैसा ही शिष्य अर्थात समाज बनता हैं । अतः इस ब्राह्मण को बत्तीस वर्ष का दण्ड देना चाहिये । इसी प्रकार मंत्री को सहस्र गुणा और राजा को सबसे अधिक दण्ड देना चाहिये ।
इसी प्रकार लोकपाल में दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिये । चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को प्रारंभिक दण्ड दिया जाना चाहिये तथा प्रथम श्रेणी के कर्मचारीयों ( आईँ ए. एस. व राजनेताओं आदि ) को अधिक दण्ड दिया जाना चाहिये । जो जितने महत्वपूर्ण पद पर है, उसको उतना अधिक दण्ड दिना चाहिये । वर्तमान भारत में प्रधानमंत्री की राजा के समान सर्वोच्च मान्यता है, अगर वो कोई गलत कार्य करता है तो वो सबसे अधिक दण्ड पाने का अधिकारी है । क्योंकि कहा गया है, कि यथा राजा तथैव प्रजा । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री को स्वयं लोकपाल विधेयक के दायरे में आना स्वीकार कर लेना चाहिये ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चा ( रजिस्टर्ड )