बुधवार, 28 सितंबर 2011

गढ़ तो आया पर सिंह चला गया



तानाजी मालुसरे शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान सरदार थे । उनके पुत्र के विवाह की तैयारी हो रही थी । चारों ओर उल्लास का वातावरण था ।
तभी शिवाजी महाराज का संदेश उन्हें मिला - माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता , तब तक वे अन्न - जल ग्रहण नहीं करेंगी । तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है ।
स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया - विवाह के बाजे बजाना बन्द करों , युद्ध के बाजे बजाओं ।
अनेक लोगों ने तानाजी से कहा - अरे , पुत्र का विवाह तो हो जाने दो , फिर शिवाजी के आदेश का पालन कर लेना । परन्तु , तानाजी ने ऊँची आवाज में कहा - नहीं , पहले कोण्डाणा दुर्ग का विवाह होगा , बाद में पुत्र का विवाह । यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा । यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे ।
बस , युद्ध निश्चित हो गया । सेना लेकर तानाजी शिवाजी के पास पुणे चल दिये । उनके साथ उनका भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए । पुणे में शिवाजी ने तानाजी से परामर्श किया और अपनी सेना उनके साथ कर दी ।
दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग पर तानाजी के नेतृत्व में हिन्दू वीरों ने रात में आक्रमण कर दिया । भीषण युद्ध हुआ । कोण्डाणा का दुर्गपाल उदयभानु नाम का एक हिन्दू था जो स्वार्थवश मुस्लिम हो गया था । इसके साथ लड़ते हुए तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए । थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया ।
सूर्योदय होते - होते कोण्डाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया । शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे । परन्तु , जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है , तब उनके मुख से निकल पड़ा - गढ़ तो हाथ में आया , परन्तु मेरा सिंह ( तानाजी ) चला गया ।
उसी दिन से कोण्डाणा दुर्ग का नाम सिंहगढ़ हो गया ।
तानाजी जैसे स्वामी भक्त वीर तथा क्षत्रपति शिवाजी जैसे वीर स्वामी को कोटि - कोटि नमन ।
वन्दे मातरम् ुसरे शिवाजी महाराज के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान सरदार थे । उनके पुत्र के विवाह की तैयारी हो रही थी । चारों ओर उल्लास का वातावरण था ।
तभी शिवाजी महाराज का संदेश उन्हें मिला - माता जीजाबाई ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक कोण्डाणा दुर्ग पर मुसलमानों के हरे झंडे को हटा कर भगवा ध्वज नहीं फहराया जाता , तब तक वे अन्न - जल ग्रहण नहीं करेंगी । तुम्हें सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण करना है और अपने अधिकार में लेकर भगवा ध्वज फहराना है ।
स्वामी का संदेश पाकर तानाजी ने सबको आदेश दिया - विवाह के बाजे बजाना बन्द करों , युद्ध के बाजे बजाओं ।
अनेक लोगों ने तानाजी से कहा - अरे , पुत्र का विवाह तो हो जाने दो , फिर शिवाजी के आदेश का पालन कर लेना । परन्तु , तानाजी ने ऊँची आवाज में कहा - नहीं , पहले कोण्डाणा दुर्ग का विवाह होगा , बाद में पुत्र का विवाह । यदि मैं जीवित रहा तो युद्ध से लौटकर विवाह का प्रबंध करूँगा । यदि मैं युद्ध में काम आया तो शिवाजी महाराज हमारे पुत्र का विवाह करेंगे ।
बस , युद्ध निश्चित हो गया । सेना लेकर तानाजी शिवाजी के पास पुणे चल दिये । उनके साथ उनका भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए । पुणे में शिवाजी ने तानाजी से परामर्श किया और अपनी सेना उनके साथ कर दी ।
दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग पर तानाजी के नेतृत्व में हिन्दू वीरों ने रात में आक्रमण कर दिया । भीषण युद्ध हुआ । कोण्डाणा का दुर्गपाल उदयभानु नाम का एक हिन्दू था जो स्वार्थवश मुस्लिम हो गया था । इसके साथ लड़ते हुए तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए । थोड़ी ही देर में शेलार मामा के हाथों उदयभानु भी मारा गया ।
सूर्योदय होते - होते कोण्डाणा दुर्ग पर भगवा ध्वज फहर गया । शिवाजी यह देखकर प्रसन्न हो उठे । परन्तु , जब उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके आदेश का पालन करने में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए है , तब उनके मुख से निकल पड़ा - गढ़ तो हाथ में आया , परन्तु मेरा सिंह ( तानाजी ) चला गया ।
उसी दिन से कोण्डाणा दुर्ग का नाम सिंहगढ़ हो गया ।
तानाजी जैसे स्वामी भक्त वीर तथा क्षत्रपति शिवाजी जैसे वीर स्वामी को कोटि - कोटि नमन ।
वन्दे मातरम्
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 25 सितंबर 2011

महाराजा हरिसिंह द्वारा लार्ड माउंटबेटन को लिखा गया पत्र


मित्रों जम्मू और कश्मीर ऐतिहासिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग है । किन्तु फिर भी कुछ अरब साम्रज्यवादी विचारधारा के अलगाववादी जेहादी आतंकवादी उसे भारत से अलग करने की मांग करते रहते है । अब उनकी देशविभाजक मांग को कश्मीर की कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टीयों और सैक्युलर भेड़ियों का भी समर्थन प्राप्त होने लगा है । एक तरफ केन्द्र सरकार के वार्ताकार जम्मू कश्मीर को स्वायतता दिये जाने के पक्ष में है तो दूसरी तरफ अन्ना हजारे ग्रुप के सदस्य प्रशांत भूषण उसे पाकिस्तान को दिये जाने की बात करते है । ऐसी विषम स्थिति में महाराजा हरिसिंह द्वारा लार्ड माउंटबेटन को लिखा गया पत्र आपके सामने है । आप स्वयं विचार करें कि जम्मू कश्मीर पर किसका अधिकार है ?
मेरे प्रिय लार्ड माउंटबेटन ,
मुझे आपको सूचित करना है कि मेरे राज्य में एक गम्भीर आपातकाल की स्थति उत्पन्न हो गई है और मैं आपकी सरकार से तुरन्त सहायता प्रदान करने की प्रार्थना करता हूँ । जैसा कि आपको जानकारी है , जम्मू और कश्मीर राज्य का भारत या पाकिस्तान किसी में भी विलय नहीं हुआ है । भौगोलिक रूप से , मेरा राज्य दोनों ( भारत व पाक ) से निकटस्थ है । इसके साथ ही , मेरे राज्य की सीमाएँ सोवियत रूस व चीन के साथ भी मिलती है । अपने परराष्ट्र सम्बन्धों में , भारत और पाकिस्तान इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते । मैं अपने राज्य का किस देश में विलय करूँ या दोनों देशों से मित्रवत् सम्बन्ध रखते हुए , दोनों देशों के व अपने राज्य के सर्वश्रेष्ठ हितों को ध्यान में रखकर स्वाधीन बना रहूँ , ऐसा निश्चित करने के लिए मैंने समय चाहा । तत्संगत रूप से , मैंने भारत और पाकिस्तान से अपने राज्य के साथ एक स्थिर अनुबंध करने के लिए सम्पर्क किया । पाकिस्तान सरकार ने यह अवस्था स्वीकार कर ली , भारत सरकार ने मेरी सरकार के प्रतिनिधियों के साथ और आगे बातचीत करने की अच्छा जताई । नीचे लिखे हालातों के कारण मैं ऐसी व्यवस्था नहीं कर सका । असल में , स्थिर अनुबन्ध के तहत पाकिस्तान सरकार मेरे राज्य में डाक और तार सेवाओं का संचालन कर रही है । यद्यपि हमने पाकिस्तान के साथ एक स्थिर अनुबन्ध किया है , फिर भी पाकिस्तान ने मेरे राज्य में खाना , नमक और पैट्रोल जैसी मूलभूत चीजों की आपूर्ति लगातार अवरोध करने की स्वीकृति ( साजिश ) प्रदान कर रखी है ।
प्रथमतः पुंछ इलाके में , फिर सियालकोट में और अन्त में रामकोट क्षेत्र के हाजरा जिले व उसके पास के सम्पूर्ण क्षेत्र में ,आधुनिक हथियारों से लैस अफरीदी ( कबाइली ) , सादा कपडों में सैनिक व आताताइयों के क्षुण्डों को मेरे राज्य में घुसपैठ कराई गई है । परिणाम स्वरूप राज्य की छोटी सी सीमित सेना को एक साथ कई मोर्चों पर दुश्मन से लड़ना पड़ा जिससे जान माल की अनियंत्रित लूटपाट को रोकना बहुत मुश्किल हो रहा है एवं आताताइयों ने महुरा बिजलीघर जो पूरे श्रीनगर को बिजली की आपूर्ति देता है , को भी लूट लिया और जला दिया है । असंख्य महिलाओं के अपहरण और शीलभंग के कारण मेरा हृदय खून के आँसू रो रहा है । पूरे राज्य पर चढ़ दौडने के प्रथम प्रयास के तहत , मेरी सरकार की ग्रीष्म राजधानी श्रीनगर को हथियाने के उद्देश्य से इन जंगली फौजों को मेरे राज्य पर चढ़ा दिया गया है । मनबेहरा - मुजफ्फराबाद सड़क से मोटर ट्रकों से लगातार आते हुए , अत्याधुनिक हथियारों से लैस , उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश के दूर दराज इलाकों के झुण्ड के झुण्ड कबाइलियों की घुसपैंठ उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश की सरकार व पाकिस्तान सरकार के संज्ञान के बिना नहीं हो सकती । मेरी सरकार की बारम्बार विनतियों के बावजूद मेरे राज्य में घुसपैठ करने वाले इन आक्रांताओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की गई । असल में , पाकिस्तान के रेडियों व प्रेस ने इन सब घटनाओं की रिपोर्ट दी है , पाकिस्तान रेडियों ने यह खबर भी दी कि कश्मीर में एक अन्तरिम सरकार स्थापित हो गई है । मेरे राज्य की प्रजा , मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों ने ही तनिक भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया है ।
मेरे राज्य में उत्पन्न इन परिस्थितियों में और जैसी विकराल आपातकाल की स्थिति यहाँ उपलब्ध है , इन सबको देखते हुए मेरे पास भारत राज्य से सहायता मांगने के अलावा और कोई चारा नहीं है । स्वाभाविकतया वे ( भारत ) मेरे राज्य का भारत में विलय हुए बिना मेरी कोई सहायता नहीं कर सकते इसलिए मैँने ऐसा करने का निश्चय किया है और इस पत्र के साथ आपकी सरकार द्वारा स्वीकृति हेतु अपना विलय प्रस्ताव संलग्न कर रहा हूँ । दूसरा विकल्प अपने राज्य और उसकी प्रजा को उन आक्रांताओं के रहमोकरम पर छोड देना है । इस आधार पर , कोई सभ्य नागरिक सरकार चल नहीं सकती और न कायम रह सकती है ।
जब तक मैं अपने राज्य का शासक हूँ , मैं इस विकल्प को कभी नहीं चुनूंगा और मेरा जीवन अपने राज्य की रक्षा करने के लिये ही है । मैं आपकी सरकार को यह भी सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा इरादा तुरन्त एक अन्तरिम सरकार स्थापित करने का व इस आपातकाल में मेरे प्रधानमंत्री के साथ जिम्मेदारियों को वहन करने हेतु शेख अब्दुल्ला को बुलाने का है ।
यदि मेरे राज्य को बचाना है तो श्रीनगर में तुरन्त सहायता उपलब्ध होनी चाहिए । श्री वी. पी. मेनन स्थिति की विकरालता से पूर्ण परिचित है । यदि और जानकारी चाही गई तो वह आपको पूरा - पूरा विस्तार से बता देंगे ।
अत्यावश्यकता , में हार्दिक आदर के साथ ,
आपका सद्भावी
हरि सिंह
26 अक्टू. 1947लिये ही है । मैं आपकी सरकार को यह भी सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा इरादा तुरन्त एक अन्तरिम सरकार स्थापित करने का व इस आपातकाल में मेरे प्रधानमंत्री के साथ जिम्मेदारियों को वहन करने हेतु शेख अब्दुल्ला को बुलाने का है ।
यदि मेरे राज्य को बचाना है तो श्रीनगर में तुरन्त सहायता उपलब्ध होनी चाहिए । श्री वी. पी. मेनन स्थिति की विकरालता से पूर्ण परिचित है । यदि और जानकारी चाही गई तो वह आपको पूरा - पूरा विस्तार से बता देंगे ।
अत्यावश्यकता , में हार्दिक आदर के साथ ,
आपका सद्भावी
हरि सिंह
26 अक्टू. 1947

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

शौकत अली को वीर सावरकर का करारा जबाब


सन् 1914 में हिन्दुओं के सुप्त स्वाभिमान को जाग्रत करने के उद्देश्य से कुछ दिनों के लिए वीर सावरकर मुम्बई में ठहरे हुए थे । एक दिन अरब साम्राज्यवादी कट्टर जेहादी मुसलमानों के हिन्दुस्थानी प्रतिनिधि नेता शौकत अली उनसे मिलने आये । उन्होंने वीर सावरकर की भूरि - भूरी प्रशंसा की । परन्तु साथ ही साथ बतलाया कि ' आपको हिन्दू संगठन का कार्य नहीं करना चाहिए । '
वीर सावरकर ने कहा - ' आप यदि खिलापत आन्दोलन बन्द करते है , तब तो आपके सुझाव पर मैं कुछ विचार कर सकता हूँ । '
शौकत अली ने कहा - ' खिलापत आन्दोलन तो मेरा प्राण है । वह मैं कैसे छोड़ सकता हूँ ? ' ( खिलापत आन्दोलन तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया विशुद्ध साम्प्रदायिक आन्दोलन था , जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई सम्बन्ध नहीं था । )
वीर सावरकर ने उत्तर दिया - ' अच्छा तो यह बात है । मुसलमान अपनी अलग खिचड़ी पकाते रहेंगे । वे मुसलमानों की संस्थाएँ चलाते रहेंगे । वे धर्मान्तरण भी कराते रहेंगे और चाहेंगे कि हिन्दू हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें , तो यह कभी नहीं हो सकता । हिन्दू संगठन और शुद्धि का कार्यक्रम तीव्र गति से चलाने का हमारा निश्चय है । '
सौकत अली ने कहा - ' मैं इतना भर कह सकता हूँ कि सब मुसलमान हिन्दू संगठन के विरोध में है । आपके इन आन्दोलनों ने उन्हें प्रक्षुब्ध कर दिया है । यदि आप इन सब गतिविधियों को छोड़ते नहीं है , तब आपके भाग्य का ही हवाला देना पड़ेगा । फिर आप पर क्या बीतेगी , मैं नहीं कह सकता । '
वीर सावरकर ने कहा - ' तोप , तमंचा और आधुनिक शस्त्रास्त्रों से लैस अंग्रेज सरकार जब मुझे नहीं झुका सकी तब क्या समझते है कि मैं केवल मुसलमानों के हाथ के छुरों से डर जाऊँगा ? '
सौकत अली ने कहा - ' देखों , मुसलमानों के तो कई देश है । यहाँ रहना यदि असम्भव हुआ , तो मुसलमान कही अन्यत्र चले जायेंगे । तब आपकी क्या गति होगी । '
वीर सावरकर ने तपाक से कहा - ' शौक से जाइये । कल जाना हो तो आज जाइये । जिनकी यहाँ निष्ठा नहीं है , वे यहाँ न रहें तभी अच्छा है । '
विदा होते समय हाथ मिलाते हुए शौकत अली ने हँसते - हँसते हुए कहा - ' देखो सावरकर जी ! मैं कितना ऊँचा , पूरा और बलिष्ठ हूँ । आप मेरे सामने बहुत छोटे है । मैं आपको पल भर में मसल सकता हूँ । '
वीर सावरकर ने तपाक से उत्तर दिया - ' वैसा प्रयत्न कीजिये और आजमाइये कि क्या नतीजा निकलता है । मैं आपको जबाबी चुनौती देता हूँ । एक बात ध्यान में रखिये । अफजल खाँ का आकार राक्षस जैसा था । उसकी तुलना में शिवाजी नाटे और छोटे थे । परन्तु किसकी विजय हुई , यह सारी दुनिया जानती है । '
वीर सावरकर का यह तेजस्वी जबाब सुनकर समूचे हिन्दुस्थान को दारूल इस्लाम बनाने का स्वप्न देखने वाले शौकत अली ठण्डे पड़ गये ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

क्या भारत का पुनः विभाजन होगा ?


मित्रों आज सुबह समाचार पढा कि जम्मू कश्मीर में पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी ( पी. डी. पी. ) के विधायक निजामुद्दीन भट्ट द्वारा राज्य के संविधान में संशोधन करवाने हेतु विधेयक प्रस्तुत कर राज्य के संविधान की धारा 147 के उपबंध - 2 के स्थान पर नई धारा बनाने की मांग की । इस विधेयक के पारित होने से विधानसभा सदस्यों पर लगा वह प्रतिबंध समाप्त हो जायेगा जिसके अन्तर्गत वे खण्ड - 3 में संशोधन नहीं कर सकते क्योंकि इसमें जम्मू कश्मीर को भारत का अटूट अंग करार दिया गया है । यह विधेयक यदि पास हो गया तो जम्मू कश्मीर भारत का अटूट अंग नहीं रहेगा ।
भारत में आज फिर से विध्वंसकारी शक्तियों तथा साम्प्रदायिक वोटों के भूखे नेताओं के कारण 14 अगस्त 1947 की सी स्थिति बनती जा रही है । उन दिनों भारत भर के अरबपंथी समाज ने मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अलग देश की मांग की थी । पंजाब से बंगाल , आसाम तक धरने , प्रदर्शन , नारे , रैलियाँ निकल रही थी । डायेरेक्ट एक्शन की धमकियां दी जा रही थी । कलकत्ता और नवाखली में खून बहाया जा रहा था , पंजाब जल रहा था । आखिर हिन्दु - मुस्लिम के आधार पर पाकिस्तान बन ही गया ।
मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था " भारत के विभाजन का बीज तो उसी दिन पड़ गया था , जिस दिन प्रथम हिन्दू इस्लाम में दीक्षित हुआ था । "
इसी अलगाववादी सोच के आधार पर 14 अगस्त 1947 को अधिकारिक रूप से भारत को विभाजित कर दिया गया । परन्तु यह भारत का प्रथम विभाजन नहीं था । इसके पहले भी भारत के अनेक बार टुकड़े किये गए । सर्वप्रथम 26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिरशाह से संधि कर अफगानिस्तान उसे सौंप दिया । आने वाले समय में क्रमशः नेपाल , भूटान , तिब्बत , ब्रह्मदेश ( म्यांमार ) और पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान ( बांग्लादेश ) भारत से अलग कर दिए गए । स्वतंत्रता पश्चात सन् 1947 और सन् 1962 में आज के पाक अधिकृत लद्दाख को तत्कालीन राज्यकर्ताओं ने थाल में सजाकर पाकिस्तान और चीन को दे दिए । सिकुड़ते जाने की इस यात्रा पर पूर्ण विराम नहीं लगा है । चीन अब अरूणांचल प्रदेश पर अपना अधिकार जता रहा है । कश्मीर घाटी को तोड़ने के प्रयास चल रहे है और करोड़ों बांग्लादेशी घुसपैठिये पूर्वांचल समेत सारे देश पर दृष्टि गड़ाए है ।
साम्प्रदायों में बँटी जनता तथा भ्रष्ट नेता देश की अखण्डता कैसे कब तक सुरक्षित रख सकते है ? ये साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की कुनीति तो भारतीयता और भारतीय - दोनों ही की शत्रु है । उदाहरण के लिए पूर्वोत्तर के छः प्रदेश नागालैण्ड , मिजोरम , अरूणांचल , त्रिपुरा , मेघालय और असम में भारतीय सत्ता सही मायनों में कितने प्रतिशत है ? जम्मू कश्मीर राज्य किन अर्थो में भारतीय गणराज्य का राष्ट्रीय अंग है ? इन राज्यों के नागरिक कितने प्रतिशत ऐसे है जो अपने को भारतीय कहते है ? इन प्रदेशों में हिन्दू समाज का कोई व्यक्ति शक्ति सम्पन्न नेतृत्व क्यों नहीं कर सकता ? वहाँ केन्द्रिय सरकार द्वारा भेजे गये वरिष्ठ अधिकारी गोली से क्यों मारे जाते है ? क्या यह सच नहीं है कि यदि उन प्रदेशों में भारी सैन्य छावनियाँ न हों तो अब तक ये मुस्लिम व ईसाई बाहुल्य प्रदेश चीन एवं पाकिस्तान में जा मिलेंगे । भारतीय सत्ता से विद्रोह का कारण विदेशी मत - मजहब की प्रेरणा नहीं है ? आज भारत में राजनीतिक स्वार्थवश जो साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की आंधी चल रही है तो क्या ऐसी स्थिति में भारत का पुनः विभाजन नहीं होगा ?
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 14 सितंबर 2011

गांधी जी और हिन्दी भाषा


श्रीमोहनदास करमचंद गांधी जी ने अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान देखा और समझा कि भारत से अनेक लोग जो अफ्रीका में रोजगार के लिए आए है वे तमिल, तेलगू, गुजराती, मराठी आदि भाषा बोलने वाले है तथा हिन्दी भाषी अल्पसंख्या में है, तो भी वे सब आपस में एक दूसरे से हिन्दी में ही बात करते है, अतः भारत में विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच कोई संपर्क भाषा हो सकती है तो वह केवल हिन्दी है। गांधी जी स्वयं भी हिन्दी नहीं जानते थे, फिर भी उन्होंने हिन्दी के महत्व को पहचाना और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा था।
जनवरी 1915 ईश्वी में गांधी जी अफ्रीका से भारत वापस लौट आये और हिन्दी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के प्रबल समर्थक बनकर उभरे। 5 फरवरी 1916 को नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के तत्वावधान आयोजित गोष्ठी में बोलते हुए गांधी जी ने नागरी प्रचारिणी सभा के पदाधिकारियों वकीलों से तथा उपस्थित विद्यार्थियों से हिन्दी को व्यवहार में अपनाने का आह्वान किया।
29-31 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर एक साक्षात्कार में गांधी जी ने कहा, 'जब तक हिन्दी में सब सरकारी काम-काज नहीं होता, देश की प्रगति नहीं हो सकती । जब तक कांग्रेस अपना सारा काम-काज हिन्दी में नहीं करती, तब तक स्वराज संभव नहीं है।...मैं यह नहीं कहता कि सभी सभी प्रांत अपनी-अपनी भाषाएँ छोड़कर हिन्दी में लिखना-पढ़ना शुरू कर दें। प्रांतीय मसलों में, प्रांतीय भाषाओं का प्रयोग अवश्य होना चाहिए। किंतु सभी राष्ट्रीय प्रश्नों पर विमर्श केवल राष्ट्रीय भाषा में होना चाहिए। यह आसानी से किया जा सकता है। यह कार्य जो आज हम अंग्रेजी में कर रहे है, उसे हिन्दी में करना चाहिए।'
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के लिए उसके राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार हेतु गांधी जी ने प्रबल प्रयास किये। 29दिसम्बर1916 को 'ऑल इंडिया कॉमन स्क्रिप्ट एंड कॉमन लैंग्वेज कांफ्रेंस' लखनऊ में बोलते हुए उन्होंने श्रोताओं से अपील की, 'कृपया पाँच-दस ऐसे लोग ढूंढिए जो मद्रास जाकर हिन्दी का प्रचार करे। 'हिन्दी के राष्ट्रव्यापी प्रचार के लिए कृतसंकल्प गांधी जी ने अपने निश्चय को केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे मूर्तरूप देने में पहल भी की। उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिन्दी के प्रचार और शिक्षण के लिए मद्रास भेजा। 17अगस्त1918 को एक पत्र में गांधी जी ने देवदास गांधी को लिखा, 'मैंने हिन्दी शिक्षण की तुम्हारी दो महीने की रिपोर्ट पढ़ी और मैं संतुष्ठ हूँ।...ईश्वर करे तुम्हारी लंबी आयु हो जिससे मद्रास प्रेसीडेंसी में हिन्दी की एकीकरण की धुन गूंजे, उत्तर और पश्चिम की खाई एकदम मिट जाए और इन दोनों भागों के लोग एक हो जाएं।' हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद की गतिविधियों में भी गांधी जी ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
18अप्रैल1919 को हिन्दी लिटरेरी कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा, 'इस समय देश में चल रहा सत्याग्रह हिन्दी भाषा के मुद्दे के लिए भी है। और अगर हममें सत्य के प्रति सम्मान की भावना है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी ही एकमात्र भाषा है, जिसे हम लोग राष्ट्रभाषा बना सकते है। कोई भी दूसरी क्षेत्रिय भाषा यह दावा नहीं कर सकती। '
गांधी जी का हिन्दी हितेषी का यह प्रबल स्वरूप खिलापत आन्दोलन (अरबपंथी कट्टर मुसलमानों द्वारा तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया एक विशुद्ध साम्प्रदायिक आन्दोलन, जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई संबंध नहीं था।) को 20अगस्त1920 में अपना नेतृत्व प्रदान करने से पूर्व तक बना रहा। जब गांधी जी ने देखा कि मुस्लिम हिन्दी को पसंद नहीं करते तो उनका उत्साह हिन्दी के प्रति धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा और वह हिन्दी के साथ उर्दू का भी प्रयोग करने लगे। वह सांप्रदायिक तुष्टिकरण हेतु हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी (फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू ) भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करने लगे। भगवान श्रीराम को शहजादा राम, महाराजा दशरथ को बादशाह दशरथ, माता सीता को बेगम सीता और महर्षि वाल्मीकि को मौलाना वाल्मीकि संबोधित कराया जाने लगा।
गांधी जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लगातार 27 वर्षो तक अध्यक्ष रहे। अतः वे समझते थे कि वे जो चाहेंगे और कहेंगे, उसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन आँख बंद करके मानेगा किंतु ऐसा नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से कार्यरत था। गांधी जी ने चाहा कि भविष्य में हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा का प्रचार करें जो देवनागरी के साथ फारसी लिपि (जिसमें उर्दू लिखी जाती है।) का भी प्रचार हो किंतु हिन्दी साहित्य सम्मेलन फारसी लिपि के प्रचार के लिए सहमत नहीं हुआ तो गांधी जी को बहुत निराशा हुई। उन्होंने 25 मई 1945 को हिन्दी के श्लाका पुरूष राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को पत्र लिखा, 'सम्मेलन की दृष्टि से हिन्दी राष्ट्रभाषा हो सकती है, जिसमें नागरी लिपि को ही राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है। जब मैं सम्मेलन की भाषा हिन्दी और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ, तब मुझे सम्मेलन से हट जाना चाहिए। ऐसी दलील मुझे योग्य लगती है। इस हालत में क्या सम्मेलन से हट जाना मेरा फर्ज नहीं होता है क्या?'
इस पत्र में गांधी जी ने टंडन जी पर मनोवैज्ञानिक दबाब डालते हुए परामर्श चाहा था कि क्या उनको सम्मेलन से त्यागपत्र दे देना चाहिए? किंतु टंडन जी ने निर्भिकतापूर्वक अपने 8 जून 1945 के उत्तर में गांधी जी को सम्मेलन से त्यागपत्र देने के लिए लिख दिया, 'आपकी आत्मा कहती है कि सम्मेलन से अलग हो जाऊँ, तो आपके अलग होने की बात पर बहुत खेद होने पर भी नतमस्तक हो आपके निर्णय को स्वीकार करूंगा।' अंततः गांधी जी ने 25 जुलाई 1945 को पत्र के माध्यम से अपना त्यागपत्र भेज दिया।
14अगस्त1947 को सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ, जिसमें गांधी जी की हिन्दुस्तानी भाषा पत्ते की तरह बिखर गयी।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 11 सितंबर 2011

वीर सावरकर और हिन्दी भाषा


स्वातंत्र्यवीर सावरकर हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के प्रबल समर्थक थे । 6 जनवरी 1924 में वीर सावरकर को कारागार से मुक्त किया गया और उन्हें सशर्त रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर दिया गया । केवल जनपद भर में घुमने - फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दी गई , इसका लाभ उठाकर वीर सावरकर ने हिन्दी भाषा के प्रचार - प्रसार के लिए भाषा - शुद्धि आन्दोलन प्रारम्भ किया । आन्दोलन के प्रचार के लिए उन्होंने भाषा शुद्धि नामक विस्तृत लेख लिखा । उन्होंने लिखा - ' अपनी हिन्दी भाषा को शुद्ध बनाने के लिए हमें सबसे पहले हिन्दी भाषा में घुसाये गये अंग्रेजी व उर्दू के शब्दों को निकाल बाहर करना चाहिए । संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा है । हिन्दी में अंग्रेजी व उर्दू शब्दों के मिश्रण से वर्णसंकरी भाषा बन गयी है । ' उन्होंने देवनागरी लिपि को ही भारत की एकता का आधार बताते हुए लिखा -
' भारत के सब भाषा - भाषी लोग यदि नागरी लिपि में अपनी भाषाओं को लिखना आरम्भ कर दें तो भारत की भाषायी समस्या सुविधापूर्वक हल हो सकती है । ' नागरी लिपि में छपाई के कुछ दोष देखकर उन्होंने इसकी वर्णमाला में आवश्यक सुधार किया , ताकि छपाई में अधिक सुविधा हो । आज तो उन सुधारों को प्रायः सभी मराठी प्रेसों ने अपनाकर अपने टाईपों में परिवर्तन कर लिया है और हिन्दी प्रेसों में भी उनका तेजी से अनुकरण किया जा रहा है ।
वीर सावरकर ने हिन्दी के विकास के लिए एक हिन्दी शब्दकोष की भी रचना की । शहीद के स्थान पर हुतात्मा , प्रूफ के स्थान पर उपमुद्रित , मोनोपोली के लिए एकत्व , मेयर के लिए महापौर आदि शब्द वीर सावरकर की ही देन है । वीर सावरकर ने अनेक बार ' परकीय शब्दों का बहिष्कार करों ' का उद्घोष कर शुद्ध हिन्दी अपनाने पर बल दिया ।
गांधी जी ने जब साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की विभाजक नीतियों पर चलते हुए हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा ( फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू भाषा ) को हिन्दुस्थान की राष्ट्रभाषा बनाये जाने का आह्वान किया और भगवान श्रीराम को शहजादा राम , महाराजा दशरथ को बादशाह दशरथ और माता सीता को बेगम सीता तथा महर्षि वाल्मीकि को मौलाना वाल्मीकि शब्दों से संबोधित कराया तो वीर सावरकर ने गांधी जी की अनुचित भाषा की कड़ी आलोचना करते हुए हिन्दुस्थान की आत्मा पर घोर प्रहार बताया । पुणे में जब राजर्षि श्री पुरूषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में हिन्दी राष्ट्रभाषा सम्मेलन हुआ तो गांधी जी की हिन्दुस्तानी भाषा का प्रस्ताव गिरा दिया गया और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रस्ताव पास हो गया ।
हिन्दी भाषा के श्लाकापुरूष राजर्षि श्री पुरूषोत्तम दास टंडन ने एक लेख में लिखा था - ' मुझे संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के आन्दोलन की प्रेरणा वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी । ' वीर सावरकर ने ही सबसे पहले विशुद्ध हिन्दी अपनाओं आन्दोलन प्रारम्भ किया था ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अछूतोद्धारक वीर सावरकर



स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे तथा इसे एक ऐसी बेड़ी मानते थे जिसमें हिन्दू समाज जकड़ा हुआ है, और जिसके कारण समाज में सिर्फ बिखराव हुआ है तथा हिन्दू धर्म का मार्ग अवरूद्ध हुआ है। उनके अनुसार आदिकाल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। यह कार्य पर आधारित थी तथा शिक्षा एवं कार्य के अनुसार बदलती रहती थी। वैदिक काल में समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने में इसकी भूमिका रही, पर अब धीरे-धीरे जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित होने पर यह एक अभिशाप बन गयी है तथा समस्त हिन्दू समाज की एकता में बाधक है। अतः उन्होंने सहभोजों के आयोजन एवं अर्न्तजातीय विवाहों का समर्थन किया। अछूतोद्धार पर उनके और गांधी जी के दृष्टिकोण में एक बड़ा अन्तर था। जहाँ गांधी जी ने दलित जातियों के अत्थान का कार्य करते हुए उन्हें हरिजन शब्द देकर एक अलग वर्ग में रख दिया वहीं वीर सावरकर जी हिन्दुओं में अस्पृश्यता की जिम्मेदार जाति प्रथा के ही उन्मूलन के पक्ष में थे। उनका मानना था कि समाज की यह बुराई तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न अंगों के बीच वैमनस्यता का अन्त इस प्रथा के उन्मूलन से ही होगा। उनके विचार अंदमान की सैल्यूलर जेल से लिखे उनके पत्रों से पुष्ट होते है।
(9मार्च1915 को अपने छोटे भाई नारायण सावरकर को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'एक बात और, हमारी सामाजिक संस्थाओं में सबसे निकृष्ट संस्था है - जाति। जाति-पांति हिन्दुस्थान का सबसे बडा शाप है। इससे हिन्दू जाति के वेगवान प्रवाह के दलदल और मरूभूमि में धँस जाने का भय है। यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि हम जातियों को घटाकर चातुर्वर्ण्य की स्थापना करेंगे। यह न होगा, न होना ही चाहिए। इस पाप को जड़मूल से नष्ट ही कर डालना चाहिए।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1916 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
मैं उस समय को देखने का अभिलाषी हूँ जबकि हिन्दुओं में अर्न्तजातीय विवाह होने लगेंगे तथा पंथों एवं जातियों की दीवार टूट जायेगी और हमारे हिन्दू जीवन की विशाल सरिता समस्त दलदलों एवं मरूस्थलों को पार करके सदा शक्तिमान एवं पवित्र प्रवाह से प्रवाहित होगी ...... सैंकड़ों वर्षो से हम छोटे-छोटे बच्चों के विवाह करते आये है इस कारण वह बातें नहीं बढ़ पाती जो शरीर, मन और आत्मा की उन्नति करने वाली है, जिसकी जीवनी शक्ति तथा मर्दानगी नष्ट हो चुकी है।'
(सैल्यूलर जेल से 6जुलाई1920 को लिखे पत्र के कुछ अंश-)
'मैंने हिन्दुस्थान की जाति पद्धति और अछूत पद्धति का उतना विरोध किया है जितना बाहर रहकर भारत पर शासन करने वाले विदेशियों का।'
अंग्रेजी न्यायालय से दो जन्मों की कालेपानी की सजा पाये वीर सावरकर को कैद से छुडवाने के लिए भारत में राष्ट्रभक्तों की' नेशनल यूनियन' ने वीर सावरकर की रिहाई के लिए पम्फलेट, पत्रक तथा समाचार पत्रों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण निर्मित किया कि गांव-गांव और शहर-नगरों में राजनैतिक बंदी और महान क्रान्तिकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रति लोगों में सहानुभूति उमड़ पड़ी। 'सावरकर सप्ताह' मनाया गया और करीब सत्तर हजार हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रार्थना पत्र सरकार के पास भेजा गया। उस समय तक किसी नेता की रिहाई के लिए इतना बड़ा आन्दोलन कभी नहीं हुआ था। अंत में सरकार को विवश होकर वीर सावरकर को पूरे दस वर्ष तक अंदमान में नारकीय यातनाएं देने के बाद 2 मई 1921 को कालापानी से रत्नागिरि जेल, महाराष्ट्र के लिए भेजना पड़ा। बाद में 6 जनवरी 1924 को उनको जेल से मुक्ति मिली और उन्हें रत्नागिरि जनपद में स्थानबद्ध कर रखा गया। केवल रत्नागिरि जनपद की सीमा में घूमने-फिरने की स्वतंत्रता उन्हें दे दी गई, इसका लाभ उठाकर उन्होंने रत्नागिरि में अछूतोद्धार, साहित्य सृजन और हिन्दू संगठन का कार्य प्रारंभ किया।
यह कार्य इतनी निष्ठा लगन से किया गया कि वीर सावरकर का रत्नागिरि में नजरबंदी का 13 वर्षो का इतिहास अछूतोद्धार व हिन्दू-संगठन का इतिहास कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में छुआ-छूत उग्ररूप में फैली हुई थी, वीर सावरकर ने सर्वप्रथम इसी विषाक्त कुप्रथा पर प्रहार करने का निश्चय किया। उन्होंने घूम-घूमकर जनपद के विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। वीर सावरकर की तर्कपूर्ण दलीलों से प्रभावित होकर अनेक शिक्षित नवयुवक उनके साथ हो लिए। अवकाश के दिन ये लोग दलित-अस्पृश्य परिवारों में जाते, उनके साथ सहभोज करते, उन्हें उपदेश देते और उनसे साफ-स्वच्छ रहने एवं मद्य-मांस छोड़ने का आग्रह करते। इस पारस्परिक मिलन से अछूतों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही। वीर सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक सम्पन्न सुधारवादी व्यक्ति ने ढाई लाख रूपये व्यय करके रत्नागिरि में 'श्री पतित पावन मन्दिर' का निर्माण करा दिया। इसमें किसी भी जाति, पंथ, वर्ण, सम्प्रदाय का प्रत्येक हिन्दू, चाहे वह अछूत जाति का ही क्यों न हो, पूजा कर सकता है। इस मन्दिर के पुजारी भी अछूत कहे जाने वाली जाति के ही बनाये गये। इस प्रकार वीर सावरकर के इस क्रांतिकारी अछूतोद्धार के कार्य के कारण जातिवाद की दुकान खोले बैठे पाखण्डीयों का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने इसका न केवल विरोध ही किया, अपितु इसमें बाधा डालने का भरसक प्रयत्न भी किया। परंतु वीर सावरकर के औजस्वी साहस के सम्मुख विरोधियों को अपनी हार माननी पड़ी।
वीर सावरकर केवल अछूतोद्धार से ही संतुष्ठ न हुए। ईसाई पादरियों और मुल्लाओं द्वारा भोले-भाले हिन्दुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मान्तरण के विरोध में वीर सावरकर ने शुद्धिकरण आंदोलन चलाकर धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, वे धर्मान्तरण को राष्ट्रान्तर मानते थे। हिन्दू एकता पर उनका स्पष्ट चिंतन था कि जब तक भारत में हिन्दुओं में जाति-पांति का भेदभाव रहेगा, हिन्दू संगठित नहीं हो सकेगा और वे भारत माता की आजादी लेने व उसे सफलतापूर्वक सुरक्षित रखने में सफल नहीं होंगे।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 4 सितंबर 2011

अभिनव क्रांतिकारी वीर सावरकर


* नासिक के समीप भगूर नामक ग्राम में 28 मई , सन् 1883 को जन्मे वीर सावरकर आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति के जाज्लयमान नक्षत्र है । वे पहले ऐसे राष्ट्रभक्त विद्यार्थी थे , जिन्होंने अंग्रेजी सरकार का कायदा - कानून भारत में स्वीकार करने से इन्कार किया और लोगों को भी उस बारे में ललकारा ।
* " पूर्ण स्वतंत्रता ही भारत का लक्ष्य है " की उद्घोषणा करने वाले सर्वप्रथम नेता वीर सावरकर ही थे ( लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से भी पहले ) ।
* वीर सावरकर ने सबसे पहले स्वदेशी की आवाज उठायी थी । वह पहले ऐसे नेता थे , जिन्होंने स्वदेशी की अलख जगाने के लिए पुणे में ( सन् 1906 में ) विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर ( मोहनदास करमचंद गांधी से भी पहले ) लोगों को विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने को कहा था ।
* वीर सावरकर के सरकार विरोधी भाषणों के लिए उन्हें कालेज से निकाल दिया गया था । राजनीतिक कारणों से किसी कालेज से निकाले जाने वाले वह पहले विद्यार्थी थे । परीक्षा के समय कालेज के अधिकारियों ने उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दे थी ।
* वीर सावरकर पहले स्नातक थे , जिनसे उनके स्वतंत्रता के लगाव के कारण बम्बई विश्वविद्यालय ने 1911 में डिग्री छीन ली थी ( उसी डिग्री को 1960 में वापस लौटाया ) ।
* वीर सावरकर पहले भारतीय थे , जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता के विरोध में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप में बगावत की और दूसरे देशों के क्रांतिकारियों से संबंध प्रस्थापित किया । जिसका लाभ आगे चलकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उन की सेना को भी हुआ ।
* वीर सावरकर द्वारा लिखित " 1857 का स्वतंत्रता समर " विश्व की पहली पुस्तक है , जिस पर उसके प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबंध लगा दिया गया । ( तब तक अंग्रेजों और अंग्रेजों के चमचों ने इस स्वतंत्रता संग्राम को दुनिया के सामने सैनिक विद्रोह के स्वरूप में ही रखा था । ) उन्होंने लंदन में 1857 के स्वतंत्रता समर का अर्द्ध शताब्दी ( 50 वीं वर्षगाँठ ) समारोह भी धूमधाम से मनाया ।
* वीर सावरकर पहले देशभक्त थे , जिन्होंने भारत स्वतंत्र होने से चालीस वर्ष पूर्व ही स्वतंत्र भारत का ध्वज बनाकर जर्मनी के स्टुटगार्ट में होने वाली अंतरराष्ट्रीय परिषद् में मादाम भीखाजी कामा के हाथों दुनिया के सामने लहराया ।
* वीर सावरकर पहले ऐसे विद्यार्थी थे , जिन्हें इंग्लैंड में बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बावजूद , ब्रिटिस साम्राज्य के प्रति राजनिष्ठ रहने की शपथ लेने से इन्कार करने के कारण , प्रमाणपत्र नहीं दिया गया ।
* सन् 1909 में जब वीर सावरकर यूरोप में थे , उनके बड़े भाई श्री गणेश दामोदर सावरकर को आजीवन कालापानी की सजा हुई । भारत में ब्रिटिस सरकार ने उनके परिवार की तमाम संपत्ति भी जब्त कर ली । परिवार के लोग सड़क पर खडे रह गये ।
* वीर सावरकर विश्व के प्रथम राजनीतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी ( फ्रांस ) भूमि पर बंदी बनाने के कारण जिनका अभियोग हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला ।
* वीर सावरकर विश्व इतिहास के प्रथम महापुरूष है , जिनके बंदी विवाद के कारण फ्रांस के प्रधानमंत्री एम. बायन को त्याग - पत्र देना पडा था ।
* वीर सावरकर विश्व मानवता के इतिहास में प्रथम व्यक्ति थे , जिन्हें दो आजीवन कारावास ( 50 वर्ष ) की लम्बी कालेपानी की कैद की सजा दी गई ।
* वीर सावरकर विश्व के प्रथम कैदी कवि थे , जिन्होंने कालेपानी की कठोर सजा ( कोल्हू में बैल की जगह जुतना , चुने की चक्की चलाना , रामबांस कूटना , कोड़ों की मार सहना ) के दौरान कागज और कलम से वंचित होते हुए भी अंदमान जेल की कालकोठरी में 11 हजार पंक्तियों की ' गोमांतक ' ' कमला ' जैसी काव्य रचनाएँ जेल की दीवारों पर कील और काँटों की लेखनी से लिखकर की । दीवारों को प्रत्येक वर्ष सफेदी की जाती थी , इसलिए उन काव्यों को कंठस्थ करके यह सिद्ध किया कि सृष्टि के आदि काल में आर्यो ने वाणी ( कण्ठ ) द्वारा वेदों को किस प्रकार जीवित रखा ।
* जहाँ गांधी और नेहरू को जेल में क्लास ए की सुविधाएँ उपलब्ध थीं , वही सावरकर की श्रेणी डी ( खतरनाक ) थी , कैद के दौरान उन्होंने घोर अमानवीय यातनाओं को झेलना पढा , जिसमें कोल्हू में तैल पेरना , रस्सी बटना आदि शामिल था ।
* अंदमान जेल में भी जोर - जबरदस्ती हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया जाता था , जिसका वीर सावरकर ने प्रबल विरोध किया ।
* वीर सावरकर ने हिन्दुस्थान में सामाजिक परिवर्तन और एकता लाने के लिए जाति - वर्ण भेद के विरोध में ठोस कार्यवाही की , जैसे पतित - पावन मन्दिर की स्थापना , जहाँ सभी वर्ण के लोगों का प्रवेश था । मन्दिर का पुजारी एक अछूत था । अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों से वेद - शास्त्रों का पठन करवाया । भारतवंशीयों का शुद्धिकरण कर हिन्दू धर्म में वापस लाया गया । समाज को विज्ञाननिष्ठ बनने का आव्हान करते हुए उन्होंने अन्धश्रद्धाओं पर जबरदस्त हमला किया ।
* भाषाई और सांप्रदायिक एकता के लिए वीर सावरकर का योगदान अमूल्य है । वह मराठी साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष थे । संस्कृतनिष्ट हिंदी के प्रचार का बिगुल बजाया । इसके लिए उन्होंने एक हिन्दी शब्दकोष की भी रचना की । शहीद के स्थान पर हुतात्मा , प्रूप के स्थान पर उपमुद्रित , मोनोपोली के लिए एकत्व , मेयर के लिए महापौर आदि शब्द वीर सावरकर की ही देन है । वह उस समय के प्रथम ऐसे हिन्दू नेता थे जिनका सार्वजनिक सम्मान शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने किया था ।
* 83 वर्ष की आयु में योग की सवौच्च परंपरा के अनुसार 26 दिन तक खाना व दो दिन तक पानी छोड़कर आत्मसमर्पण करते हुए 26 फरवरी , 1966 को मृत्यु का वरण किया , ऐसे अभिनव क्रांतिकारी थे वीर सावरकर ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '