श्रीमोहनदास करमचंद गांधी जी ने अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान देखा और समझा कि भारत से अनेक लोग जो अफ्रीका में रोजगार के लिए आए है वे तमिल, तेलगू, गुजराती, मराठी आदि भाषा बोलने वाले है तथा हिन्दी भाषी अल्पसंख्या में है, तो भी वे सब आपस में एक दूसरे से हिन्दी में ही बात करते है, अतः भारत में विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच कोई संपर्क भाषा हो सकती है तो वह केवल हिन्दी है। गांधी जी स्वयं भी हिन्दी नहीं जानते थे, फिर भी उन्होंने हिन्दी के महत्व को पहचाना और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा था।
जनवरी 1915 ईश्वी में गांधी जी अफ्रीका से भारत वापस लौट आये और हिन्दी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने के प्रबल समर्थक बनकर उभरे। 5 फरवरी 1916 को नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के तत्वावधान आयोजित गोष्ठी में बोलते हुए गांधी जी ने नागरी प्रचारिणी सभा के पदाधिकारियों वकीलों से तथा उपस्थित विद्यार्थियों से हिन्दी को व्यवहार में अपनाने का आह्वान किया।
29-31 दिसम्बर 1916 को लखनऊ में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर एक साक्षात्कार में गांधी जी ने कहा, 'जब तक हिन्दी में सब सरकारी काम-काज नहीं होता, देश की प्रगति नहीं हो सकती । जब तक कांग्रेस अपना सारा काम-काज हिन्दी में नहीं करती, तब तक स्वराज संभव नहीं है।...मैं यह नहीं कहता कि सभी सभी प्रांत अपनी-अपनी भाषाएँ छोड़कर हिन्दी में लिखना-पढ़ना शुरू कर दें। प्रांतीय मसलों में, प्रांतीय भाषाओं का प्रयोग अवश्य होना चाहिए। किंतु सभी राष्ट्रीय प्रश्नों पर विमर्श केवल राष्ट्रीय भाषा में होना चाहिए। यह आसानी से किया जा सकता है। यह कार्य जो आज हम अंग्रेजी में कर रहे है, उसे हिन्दी में करना चाहिए।'
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के लिए उसके राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार हेतु गांधी जी ने प्रबल प्रयास किये। 29दिसम्बर1916 को 'ऑल इंडिया कॉमन स्क्रिप्ट एंड कॉमन लैंग्वेज कांफ्रेंस' लखनऊ में बोलते हुए उन्होंने श्रोताओं से अपील की, 'कृपया पाँच-दस ऐसे लोग ढूंढिए जो मद्रास जाकर हिन्दी का प्रचार करे। 'हिन्दी के राष्ट्रव्यापी प्रचार के लिए कृतसंकल्प गांधी जी ने अपने निश्चय को केवल भाषणों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे मूर्तरूप देने में पहल भी की। उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिन्दी के प्रचार और शिक्षण के लिए मद्रास भेजा। 17अगस्त1918 को एक पत्र में गांधी जी ने देवदास गांधी को लिखा, 'मैंने हिन्दी शिक्षण की तुम्हारी दो महीने की रिपोर्ट पढ़ी और मैं संतुष्ठ हूँ।...ईश्वर करे तुम्हारी लंबी आयु हो जिससे मद्रास प्रेसीडेंसी में हिन्दी की एकीकरण की धुन गूंजे, उत्तर और पश्चिम की खाई एकदम मिट जाए और इन दोनों भागों के लोग एक हो जाएं।' हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद की गतिविधियों में भी गांधी जी ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
18अप्रैल1919 को हिन्दी लिटरेरी कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा, 'इस समय देश में चल रहा सत्याग्रह हिन्दी भाषा के मुद्दे के लिए भी है। और अगर हममें सत्य के प्रति सम्मान की भावना है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी ही एकमात्र भाषा है, जिसे हम लोग राष्ट्रभाषा बना सकते है। कोई भी दूसरी क्षेत्रिय भाषा यह दावा नहीं कर सकती। '
गांधी जी का हिन्दी हितेषी का यह प्रबल स्वरूप खिलापत आन्दोलन (अरबपंथी कट्टर मुसलमानों द्वारा तुर्की के खलीपा के समर्थन में चलाया गया एक विशुद्ध साम्प्रदायिक आन्दोलन, जिसका भारत या भारत के मुसलमानों से कोई संबंध नहीं था।) को 20अगस्त1920 में अपना नेतृत्व प्रदान करने से पूर्व तक बना रहा। जब गांधी जी ने देखा कि मुस्लिम हिन्दी को पसंद नहीं करते तो उनका उत्साह हिन्दी के प्रति धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा और वह हिन्दी के साथ उर्दू का भी प्रयोग करने लगे। वह सांप्रदायिक तुष्टिकरण हेतु हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी (फारसी लिपि में लिखे जाने वाली उर्दू ) भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करने लगे। भगवान श्रीराम को शहजादा राम, महाराजा दशरथ को बादशाह दशरथ, माता सीता को बेगम सीता और महर्षि वाल्मीकि को मौलाना वाल्मीकि संबोधित कराया जाने लगा।
गांधी जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लगातार 27 वर्षो तक अध्यक्ष रहे। अतः वे समझते थे कि वे जो चाहेंगे और कहेंगे, उसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन आँख बंद करके मानेगा किंतु ऐसा नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से कार्यरत था। गांधी जी ने चाहा कि भविष्य में हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा का प्रचार करें जो देवनागरी के साथ फारसी लिपि (जिसमें उर्दू लिखी जाती है।) का भी प्रचार हो किंतु हिन्दी साहित्य सम्मेलन फारसी लिपि के प्रचार के लिए सहमत नहीं हुआ तो गांधी जी को बहुत निराशा हुई। उन्होंने 25 मई 1945 को हिन्दी के श्लाका पुरूष राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को पत्र लिखा, 'सम्मेलन की दृष्टि से हिन्दी राष्ट्रभाषा हो सकती है, जिसमें नागरी लिपि को ही राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है। जब मैं सम्मेलन की भाषा हिन्दी और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ, तब मुझे सम्मेलन से हट जाना चाहिए। ऐसी दलील मुझे योग्य लगती है। इस हालत में क्या सम्मेलन से हट जाना मेरा फर्ज नहीं होता है क्या?'
इस पत्र में गांधी जी ने टंडन जी पर मनोवैज्ञानिक दबाब डालते हुए परामर्श चाहा था कि क्या उनको सम्मेलन से त्यागपत्र दे देना चाहिए? किंतु टंडन जी ने निर्भिकतापूर्वक अपने 8 जून 1945 के उत्तर में गांधी जी को सम्मेलन से त्यागपत्र देने के लिए लिख दिया, 'आपकी आत्मा कहती है कि सम्मेलन से अलग हो जाऊँ, तो आपके अलग होने की बात पर बहुत खेद होने पर भी नतमस्तक हो आपके निर्णय को स्वीकार करूंगा।' अंततः गांधी जी ने 25 जुलाई 1945 को पत्र के माध्यम से अपना त्यागपत्र भेज दिया।
14अगस्त1947 को सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ, जिसमें गांधी जी की हिन्दुस्तानी भाषा पत्ते की तरह बिखर गयी।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जब कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति द्वारा स्वीकृत विभाजन - प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्यों के सम्मुख 14 जून 1947 को उनकी अंतिम स्वीकृति के लिए पेश किया गया , तब उसके अधिकांश सदस्य विभाजन के विरूद्ध थे और वह प्रस्ताव अस्वीकृत होने ही वाला था कि गांधी जी ने वहा पहुँच कर उनसे उस विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने की अपील की , तब दिल से न चाहते हुए भी कमेटी के सदस्यों को अपनी स्वीकृति देनी पड़ी और 14 अगस्त 1947 को देश का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन हो गया ।
जवाब देंहटाएंपाकिस्तान ने उर्दू को वहाँ की राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया । लेकिन भारत में उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाना संभव नहीं था । तो गांधी वध के पश्चात उर्दू के सभी समर्थकों ने गांधी जी का नाम ले लेकर उर्दू को हिन्दुस्तानी के नाम से भारत की राष्ट्रभाषा बनवाने हेतु संविधान सभा में हिन्दुस्तानी की जोरदार पैरवी की थी ।
...एक बार जब आहुतियाँ पड़नी कुछ कम हो गयीं, तब वेद मार्ग के एक ऐसे प्रकांड पुरोहित, जिनका सु भाष देशवासियों का मन मोह लेता था, वे स्वयं यज्ञवेदी पर डटकर खड़े हुए और उन्होंने देशवासियों का खुला आह्वान किया- "हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है. तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा. यह स्वयं देवी की माँग है." उनके इतना कहने भर की देर थी, लोग 'वंदे मातरम्' मन्त्र का उच्चारण करते-करते यज्ञ की ज्वाला में कूदने लगे...
जवाब देंहटाएंhttp://mangal-chintan.blogspot.com/2011/09/blog-post.html
हिन्दुस्तानी की मांग आजादी के पहले लगभग सही थी लेकिन आजादी के बाद कुछ दुष्टों ने गाँधी जी के नाम का दुरुपयोग किया, वह माफ़ी के काबिल नहीं था।
जवाब देंहटाएंहिंदी की जय बोल |
जवाब देंहटाएंमन की गांठे खोल ||
विश्व-हाट में शीघ्र-
बाजे बम-बम ढोल |
सरस-सरलतम-मधुरिम
जैसे चाहे तोल |
जो भी सीखे हिंदी-
घूमे वो भू-गोल |
उन्नति गर चाहे बन्दा-
ले जाये बिन मोल ||
हिंदी की जय बोल |
हिंदी की जय बोल --
फांसी से पूर्व नाथू राम गोडसे के विचारों को भी जाने
जवाब देंहटाएंbahut undha pastuti
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है कृपया पधारें
जवाब देंहटाएंचर्चामंच-638, चर्चाकार-दिलबाग विर्क
हिंदी के बारे में गांधीजी के विचार जानना बहुत अच्छा लगा|
जवाब देंहटाएंगांधीजी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलाना चाहते थे और आज़ादी के बाद काले अंग्रेजों ने गांधी के नाम का ही सहारा लेकर हिंदी को अपने ही देश में गर्त में धकेल दिया|
मैं अभी कोई टिप्पणी नहीं कर सकता...मै गाँधी जी को चितक और विचारक मानता हूँ ...लेकिन आपका यह आलेख मेरे लिए नई खिड्की खोलता है....अध्ययन के बाद ही कुछ कहाँ पाऊँगा
जवाब देंहटाएंGandhi Ji mahaan vicharak aur achche wakta they. par unhoni kabhi is oor dhyan nahi diya. unki rachnaye hamain margdarshak ki tarah lagti hai aur mai hamesha unko apne paas mahsoos karta hu. Satish Chandra Gupta, From Basti (U.P.)
जवाब देंहटाएंवर्तमान में राजनेता सच कहने का सहस खो चुके है फिर भी वो अपने आप को बापू का अनुयाई कहते है हिंदी में बोलने का सहस तक उनमें नहीं है हमारे शीर्ष नेता भी लोक सभा में हिंदी नहीं बोल पाते
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