रविवार, 31 जुलाई 2011

महान क्रान्तिकारी शहीद ऊधम सिंह


भारत के स्वतंत्रता संग्राम में वीर ऊधम सिंह ( राम मोहम्मद सिंह आजाद ) का बलिदान अनुपम एवं प्रेरणीय है और उनकी गणना देश के प्रथम पंक्ति के बलिदानियों में होती है । आम धारणा है कि उन्होंने जलियाँवाला बाग नरसंहार के उत्तरदायी जनरल डायर को 13 मार्च 1940 में लन्दन में जाकर गोली मारी और निर्दोष भारतीयों की हत्या का बदला लिया । लेकिन जनरल डायर तो 1927 में कई तरह की बीमारियों से ग्रसित होकर मर गया था , तो फिर ऊधम सिंह ने किसको मारा ! वास्तव में ऊधम सिंह ने माइकल ओडवायर को मारा था , जो जलियाँवाला बांग नरसंहार के समय पंजाब का गर्वनर था ।
ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब प्रान्त के संगरूर जिले के सुनाम गॉव में हुआ था । बचपन में ही इनके माता - पिता का निधन हो गया था और इनका पालन - पोषण अमृतसर के एक अनाथालय में हुआ । अंग्रेजों का शासन था और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर अमानवीय अत्याचार किये जा रहे थे । 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग का जघन्य नरसंहार ऊधम सिंह ने अपनी आखों से देखा था । उन्होंने देखा कि कुछ ही समय में जलियाँवाला बाग खून में नहा गया और असहाय निहत्थे नागरिकों पर अंग्रेजी शासन का बर्बर अत्याचार और लाशों का अंबार । इस जुल्म को देखकर उनके स्वाभिमान को भारी ठेस पहुँची और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर निर्दयी डायर से इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा की । उन्होंने अनाथालय छोड दिया और क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लडाई में शामिल हो गए ।
जलियाँवाला बाग नरसंहार का बदला लेने हेतु 1923 में वह इंग्लैंड गए , परन्तु 1927 में प्राकृतिक कारणों से जनरल डायर की मृत्यु हो जाने के कारण अपना लक्ष्य असफल होने पर 1928 में भारत वापस लौट आए । इंगलैंड से वह एक पिस्तौल साथ लेकर आए थे जिसे अंग्रेज सरकार ने पकड लिया और उन पर मुकद्दमा चला जिसमें उन्हें चार वर्ष के कारावास की सजा दी गई । वह 1932 में जेल से रिहा हुए । वह फिर इंगलैंड पहुँचे और वहाँ 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे । जनरल डायर मर चुका था , किन्तु उसके अपराध पर मोहर लगाने वाला सर माइकल ओडवायर अभी जीवित था । ऊधम सिंह को निर्दोष भारतीयों के जघन्य हत्याकांड का बदला लेना था । उन्होंने अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु एक कार और छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली । तथा ओडवायर को ढिकाने लगाने के लिए उचित समय की प्रतिक्षा करने लगे ।
अंततः वह समय आ गया जब ऊधम सिंह की योजना सफल होनी थी । 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लन्दन के काक्सटन हॉल में एक भारी सभा का आयोजन था जिसमें माइकल ओडवायर भी वक्ताओं में से एक था । ऊधम सिंह बढिया अंग्रेजी सूट पहने , हाथ में एक पुस्तक लिए उस सभा में पहुँच गए । अपनी पुस्तक के पन्नों में कटिंग करके उसमें उन्होंने रिवाल्वर रख लिया था । ओडवायर उठा और उसने अपना भाषण आरम्भ किया । अपनी प्रशंसा करते हुए उसने कहा कि मैंने भारतीयों को सदा के लिए कुचल दिया है और अब वे स्वतंत्रता का नाम लेना भुल जाएंगे । ऊधम सिंह का खून खौल उठा । उन्होंने पुस्तक में से रिवाल्वर निकाला और गोलियाँ चला कर ओडवायर को सभा के मंच पर ही ढेर कर दिया । सभा में भगदड मच गयी पर ऊधम सिंह भागे नहीं । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके वह दृढता से वही खडे रहे और निर्भयापूर्ण स्वर में कहा - ' माइकल ओडवायर को मैंने मारा है । ' ऊधम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके विरूद्ध मुकद्दमा चलाया गया । जब उनसे उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने राष्ट्रीय एकता की भावना में अपना नाम ' राम मोहम्मद सिँह आजाद ' बताया ।
न्यायालय में उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे , लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया । ऊधम सिंह ने उत्तर दिया कि वहाँ पर कई स्त्रियाँ भी थी और भारतीय संस्कृति में स्त्रियाँ पर हमला करना पाप है । 4 जून 1940 को अंग्रेज न्यायाधीश ने ऊधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया था और फाँसी की सजा सुनाई । इस पर वीर ऊधम सिंह ने कहा था - ' यह काम मैंने किया माइकल असली अपराधी था , उसके साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए था । वह मेरे देश को कुचलना चाहता था , मैंने उसे कुचल दिया । पूरे 21 वर्ष तक मैं प्रतिशोध की आग में जलता रहा , मुझे खुशी है कि मैंने यह काम पूरा किया । मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ , मेरा इससे बडा और क्या सम्मान हो सकता है कि मैं मातृभूमि के लिए मरू । ' 31 जुलाई 1940 को वीर ऊधम सिंह को फाँसी दे दे गई और इस तरह इस मृत्युंजयी ने अपना जीवन देश पर बलिदान कर दिया ।
जुलाई 1974 में इस महान बलिदानी की अस्थियाँ भारत सरकार ने इंगलैंड से भारत मंगवाई , जो उनके जन्म स्थान सुनाम में उस समाधि में रखी गई , जो उनकी स्मृति में बनाई गई है ।
अमर शहीद ऊधम सिंह को उनके बलिदान दिवस पर कोटि - कोटि नमन ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 25 जुलाई 2011

भारतीय मुस्लिम समाज के नाम एक अनुरोध


आज सुबह समाचार मिला कि गुजरात के मुसलमानों को साम्प्रदायिक दंगों की कडवाहट भूलाकर आगे बढने की सलाह देने वाले विश्वविख्यात इस्लामिक शिक्षण केन्द्र दारूल उलूम देवबंद के कुलपति श्री मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को राष्ट्रवादी होने की सजा देते हुए मजलिस- ए -शूरा ने पद से हटा दिया है। मजलिस- ए -शूरा की बैठक में उपस्थित 13 सदस्यों में से 9 ने वस्तानवी को हटाने के पक्ष में और 4 ने इसके विपक्ष में मतदान किया। बहुमत के आगे मजबूर श्री वस्तानवी ने शूरा के इस फैसले को स्वीकार कर लिया, लेकिन कहा कि उनके साथ अन्याय हुआ है।
भारतीय मुस्लिम समाज का यह एक दुर्भाग्य ही रहा है कि उसका नेतृत्व सदैव अरब साम्राज्यवादी मानसिकता के मुल्ला-मौलवियों के हाथों में रहा है। सशक्त, ठोस, उदार और राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व उभर नहीं सका। जब भी वस्तानवी जैसे देशभक्त और राष्ट्रवादी पढे-लिखे विद्वान मुस्लिम नेता उभरते दिखाई दिये मुल्ला-मौलवियों ने उन्हें पथभ्रष्ट, इस्लाम के दुश्मन और काफिर तक घोषित कर दिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, मोहम्मद छागला जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को अरबपंथी मुस्लिम नेतृत्व ने कभी स्वीकार नहीं किया। जब मौलाना आजाद भारत के शिक्षा मंत्री बने तो अरबपंथी मुस्लिमों ने उन्हें हिन्दुओं का पिट्ठू तक कह दिया था।
जब जाकिर हुसैन भारत के प्रथम मुसलमान राष्ट्रपति बने तो स्थिति बहुत विचित्र बन गई। वे कवि और दार्शनिक थे। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान, दोनों की भावनाओं को अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया-
जाहिदे तंग नजर ने मुझे काफिर जाना,
और काफिर समझता है मुसलमां हूँ मैं।
इसी तरह भारत के पूर्व शिक्षामंत्री मोहम्मद करीम छागला ने जब एक समाचार पत्र को दिये साक्षात्कार में कहा कि - 'हम भारतीय मुसलमान बाहर से नहीं आए, हमारे पूर्वज हिन्दू ही थे।' तो उनके इस वक्तव्य पर वंदे मातरम् का विरोध करने वाली कट्टरपंथी जमीयत -उलेमा - ए -हिन्द ने उस समय मोहम्मद छागला का बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया था। क्या यह सच नहीं कि बाहर से केवल मुठ्ठीभर मुसलमान भारत आये थे? कारण कुछ भी रहे हों, परन्तु शेष सभी ऐसे मुसलमान है जिनकों अपनी उपासना पद्धति बदलकर इस्लाम स्वीकार करना पडा था।
समझदार और पढा लिखा राष्ट्रवादी मुसलमान मजहबी उन्माद से भरे अरबपंथी मुल्ला-मौलवियों की कट्टरता एवं अमानवीयता से बेहद परेशान है। उसका कहना है कि 'भारत का मुसलमान इसी भूमि पर पैदा हुआ है और इसी भूमि पर दफन होता है इसलिये माता के समान इस भूमि की सेवा एवं बंदगी करने से उसे कोई नहीं रोक सकता। माँ के कदमों में जन्नत होती है तथा सच्चा इस्लाम भी यही शिक्षा देता है कि जिस भूमि का अन्न - जल खाया है, हवा का सेवन किया है, उसका नमन वास्तव में खुदा की इबादत है।'
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रवादी मुसलमान अपने को भारतीय संस्कृति का अंग और हिन्दू पूर्वजों की संतान बताते है तथा वन्दे मातरम् के पक्षधर है। परन्तु भारत के अधिकांश राजनेता अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के नाम पर मुस्लिम समाज में व्याप्त अरबपंथी मानसिकता का जमकर शोषण करते है जिससे भारतीय राजनीति में सक्रिय राष्ट्रवादी मुसलमान अकेले पड जाते है और वे इस्लाम के कथित व्याख्याता इमामों एवं जमायती अलम्बरदारों की अरबपंथी मानसिकता को नहीं बदल पाते। शाहबानो मामले में देश के अनेक उदारवादी एवं राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता चिल्लाते रह गए, परन्तु अरबपंथी कट्टर उलेमाओं ने सरकार को धमकाकर सवौच्च न्यायालय के फैसले को भी बदलवा लिया।
पाकिस्तान के विचार का बीजारोपण करने वाले मोहम्मद इकबाल ने पहले तो भारत माता को अपनी प्रसिद्ध कविता 'हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।' लिख कर अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित किये। परन्तु बाद में इकबाल की यह राष्ट्रीय मनोवृत्ति भी संकुचित मानसिकता वाले अरबपंथी मुल्ला - मौलवियों की धमकियों के आगे अलगाववादी मनोवृत्ति में बदल गई तथा उन्होंने लिखा 'चीनो अरब हमारा हिन्दोस्तां हमारा, मुस्लिम है हम वतन है सारा जहां हमारा।'
स्पष्ट है कि विश्वव्यापी अरबपंथी इस्लामिक आन्दोलन की कल्पना में किसी एक देश के प्रति आस्था सबसे बडी बाधा है। इस बाधा को हटाया जाना इस्लाम के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक होता है।
स्पेन से अल्बानिया अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर तक इस्लाम को मानने वालों का राज है। परन्तु इनमें से किसी भी देश के पूर्वज, उसकी संस्कृति और उनकी मजहबी - सांस्कृतिक परम्पराओं को उन्होंने मान्यता नहीं दी। इस क्षेत्र के मुसलमानों की श्रद्धा का केन्द्र काबा ही रहा। कार्यक्षेत्र इस्लाम और विचारक्षेत्र कुरान शरीफ रहा। इस्लामिक भाईचारे के इस अति कठोर अनुशासन में किसी दूसरे विचार को स्थान नहीं मिल सका। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इन देशों में मतांतरित किये गए लोग भी अपने मूल धर्म, संस्कृति, इतिहास और राष्ट्रचेतना से कट गए।
आज भारतीय मुस्लिम समाज दोराहे पर खडा है। एक तरफ तो इब्राहीम गार्दी, अशफाक उल्ला खाँ, हसन मेवाती, दारा शिकोह, दौलत खान, अर्ब्दुरहीम खानखाना, रसखान, बाबा फरीद और डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे देशभक्तों की लम्बी परंपरा है तो दूसरी तरफ अरबपंथी देशविभाजक शक्तियाँ। इस दुविधा, भटकाव और असमंजस को दूर करने के लिए राष्ट्रवादी मुस्लिम समाज को संगठित होकर आगे आना होगा। किसी भी राजनैतिक अथवा सामाजिक दल से जुडे देशभक्त मुस्लिम नेताओं को अपने दलगत स्वार्थो से उपर उठकर अपने मजहब के अरबपंथी कट्टर रहनुमाओं, इमामों, मुल्ला - मौलवियों और उलेमाओं को राष्ट्रहित समझाने का एक प्रभावशाली आन्दोलन छेडना होगा। कुरान में अबूबकर द्वारा मिला दी गई अमानवीय आयतों को निकाल बाहर करना होंगा ।
वैज्ञानिक सोच तथा सहिष्णुता युक्त सह अस्तित्व एवं राष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व की दिशा में बढना होगा। अन्त में यही कहूंगा कि अब एक नई सोच के साथ एक नई शुरूआत कीजिए अपने वतन के लिए।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 24 जुलाई 2011

एक माँ की दुर्लभ अभिलाषा


एक 28 वर्षीय तरूण क्रान्तिकारी को फाँसी की सजा दी गयी । उस क्रान्तिकारी की माँ ने जेल प्रशासन से अपने लाडले पुत्र के अन्तिम संस्कार हेतु शव की मांग की । अत्याचारी निर्दयी अंग्रेजों को डर था कि कहीं जनता क्रान्तिकारी तरूण का शव देखकर भडक नहीं उठे । अतः उस क्रान्तिकारी का शव उस माँ को न सौपने हेतु जेल प्रशासन द्वारा तरह - तरह के तर्क - वितर्क दिये जाते रहे । लेकिन अन्त में उस माँ के तर्को के सामने प्रशासन को झुकना पडा और तरूण के शव को उस माँ को सौपना पडा । माँ अपने तरूण पुत्र का शव लेकर चल पडी , रास्ते में क्रान्तिकारियों के समर्थकों की टोलियाँ आती गयी और काफिला बनता गया । देखते ही देखते कुछ ही समय में शवयात्रा ने एक विशाल जुलूस का रूप धारण कर लिया ।
जब उस क्रान्तिकारी की शव यात्रा मुख्य सडकों से होती हुई उर्दू बाजार पहुँची तो माँ ने आगे आकर कहा - " मेरे लाडले की अर्थी को जरा विश्राम दे दो । तुरन्त एक स्टूल की व्यवस्था करों । "
उपस्थित लोगों में खुसर - पुसर शुरू हुई कि माता जी स्टूल का क्या करेंगी । खैर स्टूल मंगवाया गया । बडे ही गर्व से माता जी स्टूल पर खडी होकर उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित कर बुलन्द आवाज में कहने लगी ,
" मुझे गर्व है कि मेरे बेटे ने न केवल मेरी कोख की लाज रखी है , बल्कि आप सबको वह रास्ता दिखाया है , जिस पर चलकर आप एक न एक दिन देश को अवश्य आजाद करा लेंगे । मेरे पास देश को देने के लिए और कुछ नहीं है । हाँ , छोटा बेटा है , जिसे मैं जयदेव कपूर को सौपती हूँ और उनसे कहती हूँ कि वे उसे भी ऐसा ही बनायें , जैसा कि उसका बडा भाई था । वह भी अपने बडे भाई के पद चिन्हों पर चलकर दुश्मन गोरों से लोहा लेता हुआ अपना जीवन धन्य करें । वक्त आने पर भाई के समान भारत माता के चरणों में पूजा के पुष्प की तरह समर्पित हो जाए । " माँ बोल रही थी और समस्त जनसमुदाय स्तब्ध श्वांस रोके सुन रहा था ।
" मेरी यही अभिलाषा है । भारत माता की ओजस्वी सन्तानों की , देश हित में बलिदान होने की परम्परा मंद नहीं पड जाये । आपने आज मेरे शहीद पुत्र को जो सम्मान प्रदान किया है , उसके लिए मैं जन - जन की कृतज्ञ हूँ । "
और ऐसा कहकर वह माँ नीचे उतर आयी । शव यात्रा श्मशान घाट की तरफ चल दी । ऐसी दिव्य अभिलाभा रखने वाली वह देवी थी , अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की माँ । विश्व भर के क्रान्ति इतिहास में शायद ही ऐसी माँ की दूसरी मिसाल मिले । सत्ता के दलालों ने ऐसी दिव्य आत्मा के प्रति भी न्याय नहीं किया । वे विस्मृत कर दी गयी । उस दिव्य माँ को हम सबका प्रणाम ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

गांधीजी और ईसाईयत भाग - दो


गतांक से आगे ......
मुझे यह कहते हुए पीडा हो रही है कि कुछ अपवादों को छोडकर आमतौर पर ईसाई प्रचारकों ने सामूहिक रूप से उस शासन - प्रणाली को सक्रिय सहायता पहुँचायी है , जिसने पृथ्वी पर सर्वाधिक सुसंस्कृत तथा सभ्य गिने जाने वाले समाजों को कंगाल बनाया है , हतवीर्य किया है तथा नैतिक दृष्टि से भी गिराया है । भारत में ईसाईयत का अर्थ है भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना तथा उनका यूरोपीयकरण करना । अगर ईसाई लोग सुधार आन्दोलन में शामिल होना चाहते है तो उन्हें मन में धर्मान्तरण का कोई विचार रखे बिना शामिल होना चाहिए । मुझे कहना पडेगा कि मिशनरियों के कार्यो से मेरे मन को चोट पहुँची है । ईसाई मिशनरी संस्थाओं का तो दावा है कि उनके सारे प्रयासों का एक ही लक्ष्य ' आत्मा का उत्थान ' है परन्तु अपने धर्मावलम्बियों की जमात बढाने की उनकी होड देखकर मेरे मन में बडी चोट पहुँची । मुझे ऐसा लगा कि यह तो धर्म का उपहास है ।
मेरा निश्चित मत है कि अमेरिका और इंग्लैण्ड ने मिशनरी संस्थाओं को जितना पैसा दिया है उससे लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हुई है । ' ईश्वर ' और ' धनलोभ ' को एक साथ नहीं साधा जा सकता । मुझे यह आशंका है कि भारत की सेवा करने के लिए धन - पिशाच को ही भेजा गया है , ' गॉड ' पीछे रह गया है । अतः वह एक - न - एक दिन प्रतिशोध अवश्य लेगा । भारत में ईसाईयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है । ईसाई मिशनों ने बच्चों को ईसाई बनाने के उद्देश्य से ही शिक्षा कार्य में रूचि ली है । अपने निजी अनुभवों के आधार पर मेरा यह निश्चित मत है कि आध्यात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे एवं सुविधायें बाटना बंद करें ।
निश्चय ही मैं जीजस का सम्मान करता हूँ परन्तु मैं यह कदापि नहीं मान सकता कि जीजस ' गॉड ' का अवतार या ' गॉड ' के एकमात्र बेटे है । ' बाइबिल के ' न्यू टेस्टामेन्ट ' में स्वयं प्रभु के वचन है ' यह मैं बिल्कुल नहीं मानता ।
मेरा धर्म मुझे ईसाईयों और मुसलमानों की भाँति यह नहीं यह नहीं सिखाता कि दुनिया के सभी लोग उस पर ऐसी ही आस्था रखें जैसी मैं रखता हूँ । मेरा धर्म मुझे ऐसी प्रार्थना सिखाता है कि संसार के सभी लोग अपने - अपने धर्मो एवं पंथों के सर्वोत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करने की ओर बढें । इसलिए मैं गीता , महाभारत , रामायण , उपनिषद् एवं भागवत को कभी भी भूलना या खोना नहीं चाहता ।
ईसाईयत उन्नीस सौ वर्ष पुरानी है । इस्लाम तेरह सौ वर्ष पुराना है । मुझे यह कहने में हिचक कभी नहीं रही कि वेद तेरह हजार वर्षो से भी अधिक प्राचीन हैं । सम्भवतः वे दस लाख वर्षो से भी अधिक प्राचीन है क्योंकि वेद ईश्वर - वचन है । इसलिए वेद उतने ही पुरातन है जितने सृष्टि एवं ईश्वर । फिर भी हम विवेक एवं अनुभूति के प्रकाश में ही वेदों की व्याख्या करते हैं । आप लोग ईसाईयत का संदेश देने भारत आये है । कुछ दे पाना तभी सम्भव है जब आप यहाँ से कुछ लें , ग्रहण भी करें । अतः अपना हृदय इस धरती के ज्ञानकोष के लिए खोलें , तभी आप बाईबिल के संदेश को भी यर्थात रूप से समझ सकेंगे । "

( गांधी वांगमय , ' My Experiments With Truth ' एवं हरिजन से संकलित )
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

गांधीजी और ईसाईयत भाग - एक


मोहनदास गांधी जी के पिता श्री करमचन्द गांधी जी एक धार्मिक स्वभाव के जिज्ञासु व्यक्ति थे तथा वह प्रायः सभी धर्मो , मतों और सम्प्रदायों के लोगों से धार्मिक चर्चाएँ किया करते थे जिसका प्रभाव मोहनदास गांधी पर भी पडा ।
अपनी साहित्य में गांधीजी लिखते है - " इन सब चर्चाओं के कारण मुझमें सभी धर्मो के प्रति सहिष्णुता आ गयी , केवल ईसाईयत इसका एक अपवाद रही । उसके प्रति मेरे मन में अरूचि पैदा हो गयी । उन दिनों ईसाई मिशनरी हाईस्कूल के पास एक नुक्कड पर ईसाई लोग खडे हो जाते और हिन्दुओं एवं हिन्दू देवी - देवताओं पर गालियाँ उडेलते हुए अपने पंथ का प्रचार करते । उन्हीं दिनों मैंने सुना कि एक प्रसिद्ध हिन्दू व्यक्ति अपना धर्म बदलकर ईसाई बन गया है । शहर में चर्चा थी कि ' बपतिस्मा ' लेते समय उसे गोमांस खाना पडा , शराब पीनी पडी तथा अपनी वेशभूषा भी बदलनी पडी । वह हैट ( टोपी ) लगाने लगा अर्थात यूरोपियन वेशभूषा धारण करने लगा । मैंने सोचा - ' जो धर्म किसी को गोमांस खाने , शराब पीने और पहनावा बदलने को विवश करे वह धर्म कहे जाने योग्य नहीं है । ' मैंने यह भी सुना कि वह नया धर्मान्तरित व्यक्ति अपने पूर्वजों के धर्म तथा रहन - सहन को गाली देने लगा है । इन सब कारणों से मुझे ईसाईयत के प्रति घृणा हो गयी ।
मैंने ' जेनेसिस ' पढा किन्तु बाद के अध्यायों ने तो मुझे बरबस सुला ही दिया । नाममात्र के लिए बिना कुछ समझे तथा रस लिए मैंने उसके अन्य अध्यायों पर दृष्टि डाली । ' बुक ऑफ नम्बर्स ' तो मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं आयी । हाँ , ' न्यू टेस्टामेन्ट ' के ' सरमन ऑन द माउण्ट ' में मुझे कहीं ' गीता ' से समानता नजर आयी । यदि कोई सच्चा ईसाई जीवन जीना चाहता है तो उसके लिए ईसाईयत का सार ' सरमन ऑन द माउण्ट ' में है परन्तु वैसी ईसाईयत का आचरण तो आज तक कहीं भी नहीं किया गया ।
इन पुस्तकों का यह तर्क कि - ' जीजस ही ईश्वर के एकमात्र अवतार या ईश्वर और मनुष्य के बीच में एकमात्र मध्यस्थता करने वाले है ' मुझे तनिक भी प्रभावित नहीं कर सका । मैं यह विश्वास कर पाने में असमर्थ था कि जीजस ही ईश्वर के एकमात्र पुत्र है । ' जीजस ईश्वर के इकलौते बेटे थे ' ऐसा कहना तो नास्तिकता है । जीजस के बलिदान की प्रशंसा की जा सकती है परन्तु उस बलिदान में दिव्य और रहस्यमय कुछ भी नहीं है । वह तो कष्ट को सहने का एक दृष्टांतमात्र है । मेरा विवेक इस बात को मानने के लिए भी तैयार नहीं था कि जीजस अपनी मृत्यु एवं रक्त के द्वारा संसार भर के पापों का बोझ अपने ऊपर लेकर सबका प्रायश्चित कर चुके है । मैं यह तनिक भी नहीं मानता कि कोई एक व्यक्ति दूसरे के पापों को धो सकता है , उसे मुक्ति दिला सकता है । ' एक अकेला व्यक्ति जीजस करोडों मनुष्यों के पापों के प्राश्चित के लिए मर गये तथा उनका उद्दार करने वाले हो गये ' यह विचार तो मैं स्वीकार कर ही नहीं सकता ।
मेरी धारणा है कि ईसा मसीह संसार के महान् शिक्षकों में से एक थे । ईसाई मजहब जिस अर्थ में उन्हें संसार का तारणहार समझता है उस अर्थ को मैं नहीं मानता । मैं यह भी नहीं मानता कि संसार भर में केवल ईसा ही देवत्व से विभूषित थे । दो हजार वर्ष पहले कोई व्यक्ति मर गया , उसी को ऐतिहासिक ईश्वर बताना तो विडम्बना है , घोखा है ।
ईसाई मिशनरियाँ जिस प्रकार से इन दिनों ( धर्मान्तरण का ) कार्य कर रही है , उस तरह के काम का कोई भी अवसर उन्हें स्वतंत्र भारत में नहीं दिया जाना चाहिए । ये मिशनरियाँ समस्त भारतवर्ष को नुकसान पहुँचा रही है । मानव परिवार में ऐसी एक चीज का होना एक दुःखद बात है । जब तक आप मिशनरी लोग गैर - ईसाईयों और भारतीयों को अन्धकार में भटकता हुआ मानोगे , तब तक स्वतंत्र भारत में आपके लिए कोई स्थान नहीं होगा । अगर मेरे हाथ में सत्ता हो और मैं कानून बना सकूँ तो तो मैं धर्मान्तरण का यह सारा धन्धा ही बन्द करा दूँ । जिन परिवारों में मिशनरियों की पैठ है उनके खान - पान , रहन - सहन तथा रीति - रिवाज तक में परिवर्तन हो गये है । आज भी हिन्दू धर्म की निन्दा जारी है । ईसाई मिशनों की दुकानों पर मरडॉक की पुस्तके बिकती है । इन पुस्तकों में हिन्दू धर्म की निन्दा के अलावा कुछ भी नहीं है ।
हिन्दू परिवार आप लोगों को अच्छा जीवन बीताने का न्यौता देते है । उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित करें । बडी - बडी समृद्ध ईसाई धर्म प्रचारक संस्थायें भारत की सच्ची सेवा तो तभी कर पायेंगी जब वे अपने मन को इस बात पर राजी कर लें कि - ' अपनी प्रवृत्तियाँ केवल मानव - दया से प्रेरित सेवाकार्य तक ही सीमित रखेंगे । ' सेवा की आड में भारत के भोले - भाले लोगों को ईसाई बनाने का उद्देश्य नहीं रखें । केवल लॉर्ड - लॉर्ड चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जायेगा । सच्चा ईसाई वह है जो भगवान के आदेशानुसार आचरण करे और यह कार्य एक ऐसा व्यक्ति भी कर सकता है जिसने कभी जीजस का नाम भी नहीं सुना हो ।
क्रमश ......

( गांधी वांगमय , ' My Experiments With Truth ' एवं हरिजन से संकलित )
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

शिकागो धर्मसंसद में स्वामी विवेकानन्द का ऐतिहासिक भाषण


अमेरिकावासी बहनों और भाइयों ,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है , उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खडा होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है । संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ , धर्मो की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि - कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ । मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बताया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते है ।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है । हम लोग सब धर्मो के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन् समस्त धर्मो को सच्चा मानकर स्वीकार करते है । मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मो और देशों के उत्पीडितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है । मुझे आपको यह बताते हुये गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था , जिन्होंने दक्षिण भारत जाकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने मे मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुस्त जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहे है । भाइयों , मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं अपने बचपन से करता रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं -
रूचीता वैचित्र्यादृजुकटिल नाना पथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णक इव ।।
जैसे विभिन्न भिन्न - भिन्न स्रोतों से होकर समुन्द्र में मिल जाती है , उसी प्रकार हे प्रभु ! भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेडे - मेढे अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते है । यह सभा जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा है -
ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
जो कोई मेरी ओर आता है चाहे वह किसी भी प्रकार से हो मैं उसको प्राप्त होता हूँ लोग भिन्न - भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुये अन्त में मेरी ही ओर आते है ।
साम्प्रदायिकता , हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है । वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है , उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है , सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है । यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होती , तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया है और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है , वह समस्त धर्मान्धता का , तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीडनों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्यु - निनाद सिद्ध हो ।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

महान गणितज्ञ गोस्वामी तुसलीदास


महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी को गणितज्ञ कहा जाना थोडा अटपटा लगना स्वभाविक है लेकिन तुलसीदास के साहित्य में गणित और ज्योतिष का प्रयोग देखकर हमें तुलसीदास को गणितज्ञ तो मानना ही पडेगा । तुलसीदास की प्रसिद्ध रचना ' हनुमान चालिसा ' की पंक्ति - ' जुग सहस्त्र योजन पर भानू ...... ' हमें उनके ज्ञान के बारे में एक नये दृष्टिकोण से सोचने पर विवश करती है , इस पंक्ति में उन्होंने सूर्य को पृथ्वी से युग ( जुग ) सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित बताया हैं । जब इसके आधार पर वैदिक गणित के अनुसार गणना की जाती है तो पृथ्वी से सूर्य की दूरी का सही मान निकल कर आता है । सर्वप्रथम युग , सहस्त्र और योजन इन पदों के मान देखें ।
* युग - साधारणतः युग शब्द चार के अर्थ में प्रयुक्त होता है । किन्तु यहाँ युग तथा उसका मान दिव्य वर्षो एवं सौर वर्षो में क्या होता है साथ ही चार युग अर्थात चतुर्युग का मान वर्षो में कितना है , यह ज्ञात देखेगे ।
सतयुग दिव्य वर्षो में 4800 वर्ष तथा सौर वर्षो में 1728000 वर्ष
त्रेतायुग दिव्य वर्षो में 3600 वर्ष तथा सौर वर्षो में 1296000 वर्ष
द्वापरयुग दिव्य वर्षो में 2400 वर्ष तथा सौर वर्षो में 864000 वर्ष
कलियुग दिव्य वर्षो में 1200 वर्ष तथा सौर वर्षो में 432000 वर्ष ।
चतुर्युग का मान सौर वर्षो में अधिकांश व्यक्ति जानते है किन्तु चतुर्युग का मान दिव्य वर्षो में 12000 है और यह वैदिक काल गणना का एक मुख्य आधार है ।
* सहस्त्र - सहस्त्र अर्थात हजार , गणना करने में सहस्त्र का मान एक हजार रखते है ।
* योजन - 1 योजन = 8 मील , 1 मील = 1.6 कि.मी. ( लगभग )
जब तीन पदों क्रमशः युग , सहस्त्र और योजन का मान रखकर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा दिये गये सूत्र से पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी की गणना की जाती है तो -
युग सहस्त्र योजन पर भानू = 12000x 1000x8 = 9,60,00,000 = 9,60,00,000x1.6 कि.मी. = 15,36,00,000 कि.मी.
पन्द्रह करोड छत्तीस लाख किलोमीटर पृथ्वी से सूर्य की दूरी निकल कर आती है । यह मान गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ' जुग सहस्त्र योजन पर भानू ...... ' से ज्ञात होता है । वर्तमान की गणना के आधार पर भी हम जानते है कि पृथ्वी की दूरी 150000000 ( पन्द्रह करोड ) किलोमीटर लगभग है । यह सुखद आश्चर्य है कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा दिया गया पृथ्वी से सूर्य की दूरी का मान , वर्तमान गणना के लगभग निकट है । अब तो मानना ही पडेगा कि गोस्वामी तुलसीदास महान गणितज्ञ भी थे ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

अपना उद्धार स्वयं करें


अपने उद्धार और पतन में मनुष्य स्वयं कारण है , दूसरा कोई नहीं । परमात्मा ने मनुष्य शरीर दिया है तो अपना उद्धार करने के साधन भी पूरे दिये है । इसलिए अपने उद्धार के लिए दूसरे पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि - अपने द्वारा अपना उद्धार करें , अपना पतन न करें । क्योंकि आप ही अपने मित्र है और आप ही अपने शत्रु है ।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि दिव्यभूमि भारतवर्ष में ऐसे असाधारण गुरू आज भी मौजूद है जो लोगों की बेचैनी , व्याकुलता और कुंठा का समाधान साधारण तरीके से करने की क्षमता रखते है । साथ ही ये आध्यात्मिक गुरू लोगों के जीवन को कठिन बनाने वाली चुनौतियों का समाधान भी कर रहे है ।
शिष्य को गुरू की जितनी आवश्यकता रहती है , उससे अधिक आवश्यकता गुरू को शिष्य की रहती है । जिसके भीतर अपने उद्धार की लगन होती है जो अपना कल्याण करना चाहते है तो उसमें बाधा कौन दे सकता है ? और अगर आप अपना उद्धार नहीं करना चाहते तो आपका उद्धार कौन कर सकता है । कितने ही अच्छे गुरू हों , सन्त हों पर आपकी इच्छा के बिना कोई आपका उद्धार नहीं कर सकता ।
गुरू , सन्त और भगवान भी तभी उद्धार करते हैं , जब मनुष्य स्वयं उन पर श्रद्धा - विश्वास करता है , उनको स्वीकार करता है , उनके सम्मुख होता है , उनकी देशनाओं का पालन करता है । अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करें तो वे कैसे उद्धार करेंगे ? नहीं कर सकते । स्वयं शिष्य न बने तो गुरू क्या करेगा ? जैसे दूसरा कोई व्यक्ति भोजन तो दे देगा , पर भूख स्वयं को चाहिए । स्वयं को भूख न हो तो दूसरे के द्वारा दिया गया बढिया भोजन भी किस काम का ? ऐसी ही स्वयं में लगन न हो तो गुरू का , सन्त - महात्माओं का उपदेश किस काम का ?
भारत भूमि में गुरू , सन्त और भगवान का कभी अभाव नहीं होता । अनेक सुविख्यात सन्त हो गये , आचार्य हो गये , गुरू हो गये पर अभी तक हमारा उद्धार नहीं हुआ है । इससे सिद्ध होता है कि हमने उनको स्वीकार नहीं किया । अतः अपने उद्धार और अपने पतन में हम ही कारण है । जो अपने उद्धार और पतन में दूसरे को कारण मानता है , उसका उद्धार कभी हो ही नहीं सकता । वास्तव में मनुष्य स्वयं ही अपना गुरू है । इसलिए उपदेश स्वयं को ही दें । दूसरे में कमी न देखकर अपने में ही कमी देखें और उसे दूर करने की चेष्टा करें । तात्पर्य यह है कि वास्तव में कल्याण न गुरू से होता है और न ईश्वर से ही होता है , प्रत्युत हमारी सच्ची लगन से होता है । स्वयं की लगन के बिना तो भगवान भी कल्याण नहीं कर सकते ।
गुरू बनाने से अधिक महत्वपूर्ण है गुरू की देशनाओं पर चलना । यदि गुरू बनाने मात्र से कल्याण हो जाता तो दत्तात्रेय 17 गुरू न बनाते । स्वामी रामतीर्थ ने तो यहां तक कह डाला कि न तो राम तुम्हारा कल्याण कर सकते है न ही कृष्ण । तुम्हें अपना रास्ता स्वयं चुनना होगा और उस पर चलना होगा ।
गुरू की महिमा कौन नहीं जानता ? इसमें कोई संदेह नहीं कि गुरू का समय - समय पर दिशा - निर्देश पाते रहना चाहिए । गुरू तो हमें अध्यात्म का मार्ग दिखाता है , अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है । हमें सत्य के मार्ग पर चलने तथा मानसिक विकारों से मुक्ति की युक्ति बताता है । वह हमारा मददगार है । हम उसका सम्मान करें । हम उसको नमन करें । उनके प्रति कृतज्ञ रहें । जहां तक परमात्मा का स्थान है उसे कोई नहीं ले सकता ।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी कहते है कि मैं तो तुम्हारी तरह साधक हूँ । आपका विश्वास ही आपकी प्राप्ति है । ऐसे सच्चे महापुरूषों का , सद्गुरूओं का सान्निध्य मिल जाये तो साधक भाग्यशाली है । याद रखों आपका उद्धार गुरू के अधीन है , न सन्त - महात्माओं के अधीन है और न भगवान के अधीन है । अपना उद्धार तो स्वयं के ही अधीन है ।
आज गुरूपूर्णिमा का महापर्व है , गुरू की देशनाओं को जीवन में उतारने का संकल्प लेने का दिन है । सभी को गुरूपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 10 जुलाई 2011

श्रीकृष्ण और कम्युनिस्ट


ईस्वी सन 1941 की बात है । स्वाधीनता संग्राम सेनानी रघुकुल तिलक तथा विख्यात शायर सज्जाद जहीर आदि अनेक व्यक्ति लखनऊ की जेल में सजा काट रहे थे । श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात को डॉ. जवाहर लाल रस्तोगी व बाबा रामचन्द्र ने फूलों की डोली बनाई । उसमें श्रीकृष्ण की मूर्ति रखी गई । गीता का अखण्ड पाठ हुआ । रघुनाथ तिलक ने अचानक सच्जाद जहीर की ओर संकेत करते हुए कहा , ' ये विचारधारा से कम्युनिस्ट हैं । विख्यात लेखक भी हैं । अतः आज इन्हीं के मुख से कृष्ण लीलाओं पर कुछ सुनिएगा । '
सज्जाद जहीर मुस्कराए व सूरदास के कुछ पद सुनाने के बाद बोले , ' मुझे श्रीकृष्ण के जीवन का वह प्रसंग बहुत पसंद है , जब उन्होंने दूध , दही तथा घी ब्रज के गांवों से बाहर ले जाने का विरोध करते हुए क्रान्तिकारी स्वरूप का प्रदर्शन कर मटकियां फोडी थी । मैं कृष्ण के उस रूप का भी कायल हूँ , जब वह साधारण परिवार में जन्मे गोप - बालकों के साथ खाते - पीते थे , समता का संदेश देते थे । ' एक घोर कम्युनिस्ट नेता से श्रीकृष्ण का गुणगान सुनकर लोग बहुत प्रसन्न हुए ।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

गांधी जी नेहरू की दृष्टि में ?


गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय व खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा - " he really was an awful old hypocrite. " - वह बुड्ढा गांधी सचमुच ही भयंकर कपटी एवं पाखण्डी था । यह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य है - गांधी जी के अनन्य अनुयायी व दाहिना हाथ माने जाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगा , कदापि नहीं । किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है - नेहरू ने ऐसा ही कहा था । प्रसंग लीजिये - सन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थे । भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी । इस भेंट के विषय में वे लिखते है -
सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीक - ठीक समझने का अवसर मिला था । मुझे वह रात याद है , जब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थे , रात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थी । उस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम था । नाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगे । उन्होंने गांधी के बारे में चर्चा की , उसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया । उन्होंने बताया कि - ' He was talking about Gandhi and his relationship with him, what a great actor Gandhi was, how clever he was with the British, how he cultivated this sinple mystic character because this would appeal to them. 'You know', he said, ' he really was an awful old hypocrite.'
'The Memoirs of the Right Honourable Lester B. Pearson Vol. 2: (Mike) 1948-1957 Edited by John A. Munro and Alex, I. Inglis, University of Toronto Press'
अर्थात वे गांधी के साथ अपने सम्बन्धों के बारे में बात कर रहे थे । गांधी कितना कुशल एक्टर या स्वांगी था ? उसने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाई ? अपने इर्द - गिर्द ऐसा घेरा बुना , जो अंग्रेजों को अपील करे । उसने साधारण फकीर के चरित्र का, जो उन्हें पसंद था, विकास किया । तुम जानते हो ? उन्होंने कहा, वह बुड्ढा गांधी सचमुच ही भयंकर छलि, कपटी एवं पाखण्डी था । " गांधी के अनुयायी कहे जाने वाले नेहरू द्वारा गांधी के सम्बन्ध में ये विचार गांधी के वास्तविक चरित्र को अभिव्यक्त करते है । नेहरू ने गांधी को बहुत निकट एवं गहराई से देखा - समझा था । वह भी उनके विरोधी होकर नहीं अपितु कट्टर अनुयायी होकर । फिर क्या कारण रहा कि वे गांधी जी के बारे में अपने इन दमित विचारों को स्वार्थवश या जनभयवश अपने देशवासियों के सामने प्रकट न कर सके , एक विदेशी प्रधानमंत्री के सामने प्रकट कर दिया ?
मैं आशा करता हूँ कि गांधी के अन्धे भक्त एवं अन्य विद्वान जन इसे ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे, और गांधी के चरित्र का वास्तविक मूल्यांकन करेगे । अधिक जानकारी के लिए गांधी से सम्बन्धित अन्य लेख पढ़ें जा सकते है, जो इसी ब्लॉग पर लिखे गये है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

रविवार, 3 जुलाई 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति गांधी जी का द्वेषपूर्ण व्यवहार




सन 1938 में सुभाष को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया । इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए । सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर अखण्ड भारत की आजादी की लडाई को ओर तेज किया जाये , यह भारत की आजादी के लिए स्वर्णिम अवसर हैं । कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुये उन्होंने इस दिशा में कार्य शुरू कर दिया । सुभाष गांधी जी के तथाकथित अहिंसा आन्दोलन के द्वारा भारत को आजादी दिलाने की खोखली नीति पर कभी विश्वास नहीं करते थे । इसी कारण गांधी - नेहरू की कांग्रेस ने द्वेषवश कभी नेताजी सुभाष का साथ नहीं दिया ।
भारत की आजादी में एक महत्वपूर्ण पहलू द्वितीय विश्वयुद्ध भी हैं । इस युद्ध में ब्रिटेन सहित पूरा यूरोप बर्बाद हो गया था । अब उनमें भारत की आजादी के आन्दोलन को झेलने की शक्ति नहीं बची थी । अगर अंग्रेज द्वितीय विश्वयुद्ध में इतनी बुरी तरह बर्बाद नहीं होते और भारत में सशस्त्र क्रान्तिकारी न होते तो शायद गांधी जी का स्वतन्त्रता आन्दोलन अभी तक चल रहा होता ।
1939 में जब कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने का समय आया तो सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये , जो अखण्ड भारत की पूर्ण आजादी के विषय पर किसी के सामने न झुके । ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं अध्यक्ष पद पर बने रहना चाहा । लेकिन गांधी जी अपने सामने किसी प्रतिद्वंदी को स्वीकार न कर पाते थे और वह उन्हें अपने रास्ते से हटाने का पूर्ण प्रयास किया करते थे , वह प्रतिदंदी नेताजी सुभाष रहे हो चाहे भगतसिंह । सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी जी की नीतियों पर नहीं चले , अतः गांधी व उनके साथी सुभाष को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे । गांधी ने सुभाष के विरूद्ध पट्टाभी सीतारमैय्या को चुनाव लडाया । लेकिन उस समय गांधी से कही ज्यादा लोग सुभाष को चाहते थे । कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को पत्र लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया । प्रफुल्ल चन्द्र रॉय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को फिर से अध्यक्ष देखना चाहते थे । लेकिन गांधी जी ने इस विषय पर किसी की नहीं मानी । कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षो बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ ।
गांधी जी के प्रबल विरोध के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस भारी बहुमत से चुनाव जीतकर दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिये गये । गांधी जी को दुःख हुआ , उन्होंने कहा कि ' सुभाष की जीत गांधी की हार हैं । ' सत्य के प्रयोग करने वाले गांधी जी शान्त नहीं रहें , बल्कि उन्होंने नेताजी सुभाष के प्रति विद्वेष का व्यवहार अपनाया । उनके कार्यो में बाधाएँ डालते रहे और अन्त में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र लिखवाकर ही दम लिया ।
जिस समय आजाद हिन्द फौज नेताजी सुभाष के नेतृत्व में जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिस सेना के विरूद्ध मोर्चे पर मोर्चा मारती हुई भारत की भूमि की ओर बढती आ रही थी , उस समय गांधी जी ने , जिनके हाथ में करोडों भारतीयों की नब्ज थी और जिससे आजाद हिन्द फौज को काफी मदद मिल सकती थी , ऐसा कुछ नहीं किया । बल्कि 24 अप्रैल 1945 को जब भारत आजाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से आजादी के करीब था , तब गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय जवाहर लाल नेहरू ने गुवाहाटी की एक सभा में कहा कि - ' यदि सुभाष चन्द्र बोस ने जापान की सहायता से भारत पर आक्रमण किया तो मैं स्वयं तलवार उठाकर सुभाष से लडकर रोकने जाऊँगा । ' नेहरू का यह व्यवहार महात्मा नाथूराम गोडसे के उस कथन की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि ' गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे । '
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वप्न था स्वाधीन , शक्तिशाली और समृद्ध भारत । वे भारत को अखण्ड राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे । लेकिन गांधी - नेहरू की विभाजनकारी साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीतियों ने भारत का विभाजन करते उनके स्वप्न की हत्या कर दी । यदि कांग्रेस नेताजी सुभाष की चेतावनी पर समय रहते ध्यान देती और गांधीवाद के पाखण्ड में ना फंसी होती तो भारत विभाजन न होता तथा मानवता के माथे पर भयानक रक्त - पात का कलंक लगने से बच जाता । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि " आजादी का मतलब सिर्फ राजनीतिक गुलामी से छुटकारा ही नहीं हैं । देश की सम्पत्ति का समान बटवारा , जात - पात के बंधनों और सामाजिक ऊँच - नीच से मुक्ति तथा साम्प्रदायिकता और धर्मांधता को जड से उखाड फेंकना ही सच्ची आजादी होगी । "
जय हिन्द
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

क्रान्तिकारी सुखदेव का गांधी जी के नाम खुला पत्र



अत्यन्त सम्मानीय महात्मा जी आजकल के नए समाचारों से ज्ञात होता है कि आपने समझौते की परिचर्चा के बाद से क्रान्तिकारियों के नाम कई अपीलें निकाली है, जिनमें आपने उनसे कम से कम वर्तमान के लिए अपने क्रान्तिकारी आंदोलन रोक देने के लिए कहा है। वस्तुतः किसी आन्दोलन को रोक देने का काम कोई सिद्धांतिक या अपने वश की बात नहीं है, यह भिन्न - भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार कर आन्दोलन के नेता अपना और अपनी नीति का परिवर्तन किया करते है। मेरा अनुमान है कि संधि के वार्तालाप के समय आप एक क्षण के लिए भी यह बात न भूले होगे कि यह समझौता कोई आखिरी समझौता नहीं हो सकता। मेरे विचार से इतना तो सभी समझदार व्यक्तियों ने समझ लिया होगा कि आपके सब सुधारो के मान लिए जाने पर भी देश का अंतिम लक्ष्य पूरा न हो पायेगा। कांग्रेस लाहौर घोषणानुसार स्वतंत्रता का युद्ध तब तक जारी रखने के लिए बाध्य है जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये। बीच की संधियाँ और समझौते विराम मात्र है, उपरोक्त सिद्धांत पर ही किसी प्रकार का समझौता या विराम संधि की कल्पना की जा सकती है। समझौते के लिए उपयुक्त अवसर का तथा शर्तो का विचार करना नेताओं का काम है। लाहौर के पूर्ण स्वतंत्रता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आंदोलन स्थगित कर देना उचित समझा तो भी वह प्रस्ताव ज्यो का त्यो बना है।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में समाजसत्ता प्रजातंत्र प्रणाली स्थापित करना है। इस ध्येय के मध्य में संशोधन की जरा भी गुजांईश नहीं है, वे तो जब तक अपना ध्येय व लक्ष्य पूर्ण नहीं हो जाता तब तक लडाई जारी रखने के लिए बाध्य है। परन्तु वे परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ अपनी युद्ध नीति बदलने के लिए तैयार अवश्य होगे। क्रांतिकारियों का युद्ध विभिन्न अवसरों पर भिन्न - भिन्न स्वरूप धारण कर लेता है । कभी वह प्रकट रूप तो कभी गुप्त रूप धारण कर लेता है, कभी केवल आंदोलन के रूप में होता है तो कभी जीवन - मृत्यु का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसी परिस्थितियों में क्रांतिकारियों के सामने अपना आंदोलन रोक देने के लिए कुछ विशेष कारणों का होना तो आवश्यक ही है। परन्तु आपने हम लोगो के सामने ऐसा कोई निश्चित कारण प्रकट नहीं किया जिस पर विचार कर हम अपना आंदोलन रोक दे। केवल भावुक अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्व नहीं होता। समझौता करने के कारण आपने अपना आंदोलन स्थगित कर दिया है जिसके फलस्वरूप आपके सब कैदी छूट गए है, पर क्रान्तिकारी कैदियों के बारे में आप क्या कहते हो ? सन 1915 के गदर पक्ष वाले कैदी अब भी जेलों में सड रहे है, यद्यपि उनकी सजाऐं पूरी हो चुकी है। लोदियों मार्शल ला के कैदी जीवित ही कब्रो में गडे हुए है, इसी प्रकार दर्जनों बब्बर अकाली कैदी जेल में यातना पा रहे है। देवगढ, काकोरी, महुआ बाजार और लाहौर षडयन्त्र केस, दिल्ली, चटगॉव, बम्बई, कलकत्ता आदि स्थानों में चल रहे दर्जनों क्रांतिकारी फरार है, जिनमें बहुत सी तो स्त्रियाँ है। आधा दर्जन से अधिक कैदी अपनी फाँसी की बाट जोह रहे है। इस सबके विषय में आप क्या कहते है ? लाहौर षडयन्त्र के हम तीन राजबंदी जिन्हें फाँसी का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश बहुत बडी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रांतिकारी दल के सब कुछ नहीं है। दल के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीं है। वास्तव में इनकी सजाओं के बदल देने से देश का उतना लाभ न होगा, जितना कि इन्हें फाँसी पर चढा देने से होगा।
परंतु इन सब बातों के होते हुए भी आप इनसे अपना आंदोलन खींच लेने की सार्वजनिक अपील कर रहे है। वे ऐसा क्यों करे ? इसका कोई निश्चित कारण नहीं बतलाया। ऐसी स्थिति में आपकी इन अपीलों के निकालने का अर्थ तो यही है कि आप क्रांतिकारियों के आंदोलन को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हो। इन अपीलों के द्वारा आप क्रांतिकारी दल में विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे हो। अगर ऐसी बात नहीं होती तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ प्रमुख क्रान्तिकारियों के पास जाकर इस विषय की सम्पूर्ण बातचीत कर लेते। आपको उन्हें आंदोलन खींच लेने का परामर्श देने से पहले अपने तर्को से समझाने का प्रयास करना चाहिए था। मैं नहीं मानता कि आप भी प्रचलित पुरानी धारणा में रखते है कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते है और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यो में ही आनन्द आता है। मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि यर्थात में बात इसके बिल्कुल विपरित है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले अपने चारो तरफ की परिस्थितियों का सूक्ष्म विचार कर लेते है। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का एहसास हर समय बना रहता है। वे अपने क्रांति के कार्य में दूसरे अंश की अपेक्षा रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते है । यद्यपि उपस्थित परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पडा है।
सरकार क्रांतिकारियों के प्रति पैदा हो गयी सार्वजनिक सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी भी तरह से उन्हें कुचल डालना चाहती है। अकेले में वे सहज ही कुचल दिए जा सकते है। ऐसी हालत में उनके दल में बुद्धि - भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावुक अपील निकाल कर उनमें विश्वासघात और फूट पैदा करना बहुत ही अनुचित और क्रान्ति विरोधी कार्य होगा इसके द्वारा सरकार को उन्हें कुचलने में प्रत्यक्ष सहायता मिलेगी। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते है कि या तो आप कुछ क्रांतिकारी नेताओं से जो कि जेलों में है, इस विषय में बातचीत कर निर्णय कर लीजिये या फिर अपनी अपील बंद कर दीजिये। कृपा करके उपरोक्त दो मार्गो में से किसी एक का अनुसरण कीजिये। अगर आप उनकी सहायता नहीं कर सकते तो कृपा करके उन पर दया कीजिये और उन्हें अकेला छोड दीजिये वे अपनी रक्षा आप कर लेगे। वे अच्छी तरह जानते है कि भविष्य के राजनीतिक युद्ध में उनका नायकत्व निश्चित है । वे अपनी रक्षा आप कर लेगे । वे अच्छी तरह जानते है कि भविष्य के राजनैतिक युद्ध में उनका नायकत्व निश्चित है । जन समुदाय उनकी ओर बराबर बढ़ता जा रहा है और वह दिन दूर नहीं जब उनके नेतृत्व और उनके झंडे के नीचे जनसमुदाय समाजसत्ता , प्रजातंत्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पडेगा । अथवा यदि आप सचमुच उनकी सहायता करना चाहते है तो उनका दृष्टिकोण समझने के लिए उनसे बात-चीत कीजिये और सम्पूर्ण समस्या पर विस्तार के साथ विचार कर लीजिये । 
आशा है आप उपरोक्त प्रार्थना पर कृपया विचार करेंगे और अपनी राय सर्व - साधारण के सामने प्रकट कर देगे । 
आपका 
अनेकों में से एक