बुधवार, 17 अगस्त 2011

न्यायालय में वीर मदनलाल ढींगरा का वक्तव्य


मैं अपने बचाव के पक्ष में कुछ नहीं कहना चाहता , सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ अंग्रेजों की कोई भी न्याय - व्यवस्था मुझे सजा देने का हक नहीं रखती है । इसी वजह से मैंने कोई वकील मुकर्रर करना मुनासिब नहीं समझा । जैसे जर्मनी के खिलाप लडना अंग्रेजों की देशभक्ति है , वैसे ही अंग्रेजों के खिलाप आजादी की लडाई हमारी देशभक्ति है । मैं अंग्रेजों को 8 करोड भारतीयों का हत्यारा मानता हूँ , जिनको गत 50 वर्षो में बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया है ।
अंग्रेज प्रति वर्ष दस करोड रूपया भारत से इंग्लैंड लाते है और भारत को चूस कर मौज उडाते हैं । अंग्रेजी हुकूमत ने मेरे देशवासियों को फाँसी की सजा और आजीवन कारावास दिया है । इंग्लैंड से एक अंग्रेज 100 रूपया पौंड की नौकरी पर भारत इसलिये भेजा जाता है कि वहा जाकर 1000 भारतीयों को मौत का निशाना बनाए क्योंकि 100 में 1000 भारतीय गुजर बसर करते है । अंग्रेजों की यह हवस साम्राज्य विस्तार के साथ - साथ भारतीयों के शोषण की दास्तान कहती है । जैसे जर्मनी को इंग्लैंड पर कब्जा जमा कर उसे गुलाम बनाने का कोई अधिकार नहीं है , वैसे ही अंग्रेजों को भारत को पराधीनता की बेडियों में रखने का कोई अधिकार नहीं है ।
मुझे अंग्रेजों के उस न्याय और कानून पर हंसी आती है जो पीडित मानवता की हमदर्दी पर घडियाली आंसू बहाता है और ढोंग - पाखण्ड का नाटक करता है । जब जर्मन को मार कर अंग्रेज अपने को देशभक्त कहता है तो निश्चित रूप से मैं भी देशभक्त हूँ । मातृभूमि का अपमान करने वालों की हत्या करना एक देशभक्त का पवित्र कर्तव्य है । मैंने वही किया है जो सच्चे देशप्रेमी को करना चाहिए । मुझे मृत्यु की जरा भी परवाह नहीं है । अंग्रेजों का काला कानून मुझे फाँसी की सजा दे सकता है , पर वह देशभक्ति की भावना को दफन नहीं कर सकता है । मेरी फाँसी के बाद देश में अंग्रेजों के खिलाप आजादी की जंग ओर तेज होगी ।

वीर मदन लाल ढींगरा का भारतवासियों के नाम ऐतिहासिक पत्र


प्यारे देशवासियों ,
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने एक अंग्रेज का खून बहाया है और वह इसलिये बहाया है कि मैं भारतीय देशभक्त नौजवानों को अमानवीय रूप से फाँसी के फंदों पर लटकाए जाने और उन्हें आजन्म कालेपानी की सजा दिये जाने का बदला ले सकूँ । इस प्रयत्न में अपनी अन्तरात्मा के अतिरिक्त मैंने किसी और से परामर्श नहीं लिया और अपने कर्तव्य के अतिरिक्त किसी अन्य से सांठ - गांठ नहीं की । मेरा विश्वास है कि जिस देश को संगीनों के बल पर दबाकर रखा जाता हो , वह हमेशा ही आजादी की लडाई लडता रहता है । जिस देश के हथियार छीन लिये गए हों , वह खुली लडाई लडने की स्थिति में नहीं होता । मैं खुली लडाई नहीं लड सकता था , इस कारण मैंने आकस्मिक रूप से आक्रमण किया । मुझे बंदूक रखने की मनाही थी , इस कारण मैंने पिस्तौल चला कर आक्रमण किया ।
हिन्दू होने के नाते मैं यह विश्वास करता हूँ कि मेरे देश के प्रति किया गया अपराध ईश्वर का अपमान है । मेरे मातृभूमि का कार्य ही भगवान राम का कार्य है । मातृभूमि की सेवा ही भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है । मुझ जैसे धनहीन और बुद्धिहीन व्यक्ति के पास अपने रक्त के अतिरिक्त मातृभूमि को समर्पित करने के लिये और क्या था , इसी कारण मैं मातृ - देवी पर अपनी रक्ताञ्जली अर्पित कर रहा हूँ । भारतवर्ष के लोगों को सीखने के लिये इस समय एक ही सबक है और वह यह है कि मृत्यु का आलिंगन किस प्रकार किया जाए और यह सबक सिखाने का एक ही तरीका है कि स्वयं ही मर कर दिखाया जाए , इसीलिये मैं मर कर दिखा रहा हूँ और अपनी शहादत पर मुझे गर्व है । यह पद्धति उस समय तक चलती रहेगी जब तक पृथ्वी के धरातल पर हिन्दू और अंग्रेज जातियों का अस्तित्व है । ( पराधीनता का यह अस्वाभाविक सम्बन्ध समाप्त हो जाए तो अलग बात है । )
ईश्वर से मेरी एक ही प्रार्थना है कि वह मुझे नया जीवन भी भारत - माता की गोद में ही प्रदान करे और मेरा वह जीवन भी भारत - माता की आजादी के पवित्र कार्य के लिये समर्पित हो । मेरे जन्म और बलिदान का यह क्रम उस समय तक चलता रहे जब तक भारत - माता आजाद न हो जाए । मेरी मातृभूमि की आजादी मानवता के हित - चिंतन और परम - पिता परमेश्वर के गौरव - संवर्द्धन के लिये होगी ।
वन्दे मातरम्

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

भारत के पतन का कारण - अविवेकी अहिंसा का आचरण



भारत जो कभी विश्वविजेता था , सम्पूर्ण विश्व जिसके ज्ञान - विज्ञान और शक्ति के सामने झुकता था तथा जिसकी शर्तो पर उसका विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार होता था । आखिर क्या कारण रहा कि वह अपने गौरवशाली इतिहास और वैभव को खो बैठा तथा पद्च्युत होकर बाहर से आई मुठ्ठीभर मजहबी और साम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम हो गया ?
इसका कारण जानने के लिए हमें भारतीय इतिहास के पाँच हजार वर्ष पुराने पृष्टों को खंगालना पडेगा । महाविनाशकारी विश्वयुद्ध महाभारत में बहुत बडी संख्या में वेदज्ञ विद्वानों के मारे जाने के कारण भारत में वेदों के पठन - पाठन और प्रचार का कार्य शनै - शनै लुप्त होता चला गया , तदानुपरांत विद्वानों की प्रतिष्ठा और क्षमता भी कम हो गई तो कालांतर में देश में में देश में अनेक अवैदिक और भोगवादी मत - मतांतरों चार्वाक , बृहस्पति , तांत्रिक और वाममार्गी आदि सम्प्रदायों ने जन्म लिया । वेदों के गूढ़ तत्वज्ञान से रहित अनेक प्राचीन भाष्यकारों ने अपने मंतव्यानुसार वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ कर दिया । वैदिक शास्त्रों को विकृत किया गया और अवैदिक शास्त्रों की रजना की गई । जिसके परिणाम स्वरूप बहुदेवतावाद , अवतारवाद , जातिवाद , छुत - अछुत , अशिक्षा , यज्ञ में पशु बलि देना जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ और स्वार्थी हो चले समाज के अमानवीय हिंसात्मक कार्यकलापों से मानवता त्राहि - त्राहि करने लगी । ऐसे विषम समय में लगभग 2600 वर्ष पूर्व भारतवर्ष में भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दो ऐसे महापुरूष उत्पन्न हुए जिन्होंने उस समय की परिस्थिति को देखते हुए केवल अहिंसा को ही परम धर्म माना । इन दोनों महापुरूषों ने अहिंसा पर बडा बल दिया और युद्ध का घोर विरोध किया । उनका संदेश था कि ' अपनी ही अन्तरात्मा से युद्ध करों बाहर के युद्ध से क्या लाभ ? '
वैदिक ज्ञान से वंचित हो चुके जनसामान्य के मन - मस्तिष्क पर उनका बहुत प्रभाव पडा तथा वे उनके अनुयायी हो गये , साथ ही जैन व बौद्ध धर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त हुआ । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि उस समय यज्ञ में जो पशु हिंसा होती थी , वह बंद हो गई । किन्तु भगवान महावीर व भगवान बुद्ध की देशनाओं को ठीक से न समझ पाने के कारण करोडों भारतीय वीर वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा का आश्रय लेकर जैन श्रावक और बौद्ध भिक्षुक बनकर कायर , डरपोक और नपुंसक बन गये ।
वे भूल गये कि जैन धर्म या बौद्ध की अहिंसा भी वैदिक अहिंसा की तरह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शस्त्र प्रतिकार का निषेध नहीं करती । जिन जैन लोगों ने राज्य स्थापित किये , वीर एवं वीरांगनाओं को निर्मित किया , जिन्होंने समरभूमि पर शस्त्रों से युद्ध किये , उनका जैन आचार्यो ने कहीं भी कभी भी निषेध नहीं किया है । अन्यायकारी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करना केवल न्याय ही न होकर आवश्यक भी है , ऐसा जैन धर्म का प्रकट प्रतिपादन है । यदि कोई सशस्त्र आतातायी मनुष्य किसी साधु की हत्या करने का प्रयास करे , तो उस साधु के प्राणों की रक्षा हेतु उस आतातायी को मार डालना यदि आवश्यक हो तो उसे अवश्य ही मारना चाहिये , क्योंकि उस प्रकार की हिंसा एक प्रकार से सच्ची अहिंसा ही है , ऐसा उसका समर्थन जैन शास्त्रों ने किया है । वैदिक शास्त्रों के कथनानुसार ही जैन शास्त्रों का यह भी कथन है कि ऐसी परिस्थिति में हत्या का पाप उसे लगता है जो मूलभूत हत्यारा है , न कि उसे , जो हत्यारे का वध करने वाला है - ' मन्युस्तन मन्युमर्हति । ' भगवान बुद्ध ने भी इसी प्रकार का उपदेश दिया है । एक बार किसी टोली के नेता भगवान बुद्ध के पास पहुँचे और किसी अन्य टोली के आक्रमण के विरूद्ध उनका सशस्त्र प्रतिकार करने की अनुज्ञा माँगने लगे , तब भगवान बुद्ध ने उन्हें सशस्त्र प्रतिकार करने की आज्ञा दी । भगवान महात्मा बुद्ध बोले , ' सशस्त्र आक्रमण के प्रतिकार स्वरूप युद्ध करने में क्षत्रियों के लिए कोई भी बाधा नहीं है । यदि सत्कार्य के लिए वे सशस्त्र लडते है तो उन्हें कोई पाप नहीं लगेगा । '
भारतवर्ष सम्राट अशोक के समय लगभग 2200 पूर्व तक तो गौरवपूर्ण और विश्ववंदित था , किन्तु अशोक के बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद का इतिहास भारत के पतन का इतिहास है । वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा को अपनाने के कारण भारत पर अनेक आक्रमण हुए और अन्ततः विश्वविजेता रहे भारत का पतन हो गया । सन 630 ईश्वी में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वैन्त्साग भारत में आया तो उसने लिखा कि कप्पिश ( काफिरस्तान ) सारा बौद्ध हो गया था । लम्पाक और नगर ( जलालाबाद ) में कुछ हिन्दुओं को छोडकर शेष सारा काबुल बौद्ध हो गया था । बंगाल और बिहार तो बौद्धों के प्रमुख गढ़ बन गये थे । बंगाल और बिहार में जैन और बौद्ध धर्म का हिंसा के विरूद्ध इतना प्रचार था कि बंगाल और बिहार के निवासी सेना में भरती नहीं होते थे । इस अविवेकी अहिंसा का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों के जीवन में शत्रुओं के दमन की , देश , जाति और धर्म की रक्षा की भावना नष्ट हो गई । परिणाम स्वरूप भारतवर्ष परतंत्र एवं पराधीन हुआ ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

बुधवार, 10 अगस्त 2011

अहिंसा क्या है ?


साधारण अर्थ में मन , वचन और कर्म के द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट न देना , न सताना , न मारना अहिंसा कहलाता है । अहिंसा परमधर्म है । किन्तु अहिंसा की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधान कारक है । केवल शब्दार्थ से अहिंसा का भाव नहीं ढूँढा जा सकता , इसके लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पडेगा ।
जिस पुरूष के अन्तःकरण में ' मैं कर्ता हू ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थ और कर्मो में लिप्त नहीं होती है , वह पुरूष सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही पाप से बंधता है । जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता है , जिस लडाई से शान्ति की स्थापना होती है , जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है , उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है । वास्तव में मानवता की रक्षा के लिए दुष्टों का प्राण हरण करना तो शुद्ध अहिंसा है । अत्याचारी के अत्याचार को सहन करने का नाम अहिंसा नहीं यह तो मुर्दापन है । मृत शरीर पर कोई कितना ही प्रहार करता रहे , वह कोई प्रतिकार नहीं करता । इसी प्रकार जो मनुष्य चुपचाप अत्याचार सह लेता है , वह मृत नहीं तो और क्या है ?
भारतीय वैदिक संस्कृति में अत्याचार सहने का नहीं बल्कि अत्याचारी को दण्ड देने का विधान है जैसा कि मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक से प्रकट है -
गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मण वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।
गुरू हो , बालक हो , वृद्ध हो , ब्राह्मण हो अथवा बहुश्रुत ( बहुत शास्त्रों का श्रोता ) ही क्यों न हो - यदि आततायी के रूप में अत्याचार करने अथवा मारने आ रहा हो तो उसको बिना सोचे - विचारे मार देना चाहिये । इसलिए अहिंसा का सही भाव है कि जो निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों को हानि पहुँचाता है , या किसी के प्राण लेता है , तो वह हिंसा है , और जो परमार्थ के लिए या सार्वजनिक हित के लिए अत्याचारी को हानि पहुँचाता , या उसको मार डालता है , तो वह हिंसा न होकर सच्ची अहिंसा है । क्योंकि उससे सार्वजनिक हित होता है ।
जैसे यदि कोई अत्याचारी चोर , डाकू , लुटेरा , बलात्कारी आदि - आदि जब किसी पर आक्रमण करता है , उस समय उसके विरूद्ध वह व्यक्ति , जिस पर उसका आक्रमण है , अथवा अन्य कोई समर्थ व्यक्ति , अथवा राज्य द्वारा नियुक्त पुलिस विभाग का कर्मचारी , कोई भी सुरक्षात्मक रूप में आक्रामक पर वार करता है , जिससे वह मारा जाता है , तब वह कर्म वहाँ पर हिंसा नहीं है ? क्योंकि मारने वाले का लक्ष्य उसे मारना नहीं था , वरन् अपनी सुरक्षा हेतु अथवा बुराई को हटाने के लिए ही प्रत्याक्रमण करना था । अतः यह सिद्ध होता है कि मन , वचन और कर्म तीनों से ही दूसरों को हानि न पहुँचाना अहिंसा है ।
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करे तो अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट होता है । कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्व की बात नहीं है , क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है , इसलिए मारने न मारने में हिंसा - अहिंसा नहीं है । अहिंसा का अर्थ है - ' द्वेष रहित होना । ' निजी राग - द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित - अहित का विचार किये बिना जो कार्य किये जाते है , वे हिंसा पूर्ण है । यदि लोक कल्याण के लिए , मानवता की रक्षा के लिए किसी को मारना पडे तो उसमें दोष नहीं है , वास्तव में वह शुद्ध अहिंसा है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 8 अगस्त 2011

अति उदारता अति घातक


महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कहा था - ' समृद्धि की अधिकता किसी भी सभ्यता के पतन का कारण बनती है । ' इसी बात को टायनबी ने कुछ इस प्रकार कहा है - ' सभ्यता जब अति सभ्य हो जाती है , तब कोई न कोई बर्बरता आकर उसे निगल जाती है । ' और अरब साम्राज्यवादी जेहादी विचारधारा के इसी अडियलपन , अनुदारता और असहिष्णुता की भावनाओं को देखते हुए जार्ज बर्नाड शा ने लिखा था - It is too bad to be too good . ( बहुत बुरा होता है बहुत भला भी होना । ) प्रख्यात साहित्यकार गुरूदत्त अक्सर कहा करते थे - ' हिन्दू समाज के पतन के दो कारण मुख्य है । एक तो ' भाग्यवाद ' और दूसरा ' वसुधैव कुटुम्बकम् ' की भावना ।
इतिहास साक्षी है कि विश्व विजेता रहे भारत का पराधीन होने का एक मूल कारण अति उदारता है जो अहिंसा के सच्चे अर्थ को न जानने के कारण उपजी । पिछले 2500 वर्षो से अत्याधिक उदारता ही हमारे राष्ट्र नायकों की विजयों को पराजयों में परिणत करती रही है । पृथ्वीराज चौहान की आँखें न जाती , भारत परतंत्र न होता , यदि उसने तरावडी के मैदान के पहले युद्ध में मोहम्मद गोरी को क्षमा करने के स्थान पर उसका सिर उडा दिया होता , और अरब साम्राज्यवादी मुस्लिम आक्रांताओं के समान ही उस सिर को भाले पर रख वह अपनी सेनाओं को गजनी तक ले गया होता ।
इतिहास इस बात को चीख - चीख कर कह रहा है कि तथाकथित अहिंसावादियों की कायरता अथवा उदारता के कारण ही साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान बना , और यही पाकिस्तान भारत के नपुंसक नेताओं की उदारता के कारण आज भी भारत का सबसे बडा सिर दर्द बना है । पाकिस्तान के विषैले दन्त आज हमें इस प्रकार न डस रहे होते यदि हमने ताशकन्द में उन टूटे दान्तों को फिर से उसी के मुँह में न लगा दिया होता , और फिर दोबारा शिमला में उस पराजित , हतगौरव मेमने को फिर से भेडिया बनने का अवसर न दिया होता । उदारता के इस अतिरेक को चेतावनी देते हुए ही राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था -
विष खींचना है तो उखाड विषदन्त फेंको ,
वृक-व्याघ्र-भीति से मही को मुक्त कर दो ।
अथवा अजा के छागलों को ही बनाओं व्याघ्र ,
दान्तों में कराल कालकूट विष भर दो ।।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भारत की दत्तक आध्यात्मिक पुत्री श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा


महान व्यक्तियों के जीवन व विचार अनादि काल से विपरीत परिस्थितियों में हमारी राष्ट्रीय चेतना को जीवन्त रखते रहे है । उसी कडी में श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा भी है जिनका जन्म फ्रांस में हुआ था पर भारत की सनातन आध्यात्मिक परम्परा से प्रभावित होकर वे प्रभावित होकर वे भारत आई और यहीं की होकर रह गयी । महर्षि अरविन्द घोष के सान्निध्य में साधना के उच्चतम सोपानों का अनुभव कर एक माँ के रूप में उन्होंने भारत की सन्तानों को उनकी सनातन आध्यात्मिक चेतना के प्रति जागृत किया तथा भारत विश्व में अपनी मार्गदर्शक भूमिका निभा सके इस हेतु सक्रिय होने का उन्होंने आवाहन किया । उन्होंने कहा था कि - ' भारत एक जीवन्त सत्ता है । यह सत्ता उतनी ही जीवित जागृत है जितने शिव आदि देवता । '
श्री माँ का जन्म फ्रांस की राजधानी पेरिस में 21 फरवरी 1878 को हुआ था । नाम रखा गया मीरा अल्फाँसा , जिसके आद्याक्षर है एम. ए. ( अर्थात माँ ) । शैशव से ही ' माँ ' थी वे । चिन्तनशील , अध्ययनशील और अत्यन्त मेधावी । चार वर्ष की आयु में वह ध्यानस्थ हो जाती थीं और एक अलौकिक सी ज्योति मुखमंडल पर छा जाती थी । इसी स्थिति में 1904 में उन्हें एक भारतीय आध्यात्मिक संत का सूक्ष्म दर्शन प्राप्त हुआ । श्री माँ ने नारद भक्ति सूत्र एवं ईशादि उपनिषदों का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया । परमात्मा की पूर्ण प्राप्ति के लिए वह सदैव व्याकुल रहती थी । इसी खोज में उनके मन में भारत आने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई और 7 मार्च 1914 को वे अपने पति के साथ भारत के लिए रवाना हो गई जहाँ वह फ्रांस की राज्यसभा के लिए पांडिचेरी से चुनाव लडने वाले थे ।
29 मार्च 1914 को सायंकाल उन्होंने श्री अरविन्द के दर्शन किए तो पहली ही दृष्टी में पहचान लिया कि यह वही दिव्य अध्यात्म पुरूष हैं जो उनकी साधना में उनकी सहायता किया करते थे । अलौकिक शिष्या के अलौकिक गुरू ।
15 अगस्त 1914 को महर्षि अरविन्द के जन्मदिन पर श्रीमाँ ने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं में ' आर्य ' मासिक शुरू किया । सनातन हिन्दू विचार के प्रचार - प्रसार के लिए यह मासिक समर्पित था । कुछ समय बाद उन्हें फ्रांस वापस लौटना पडा , पर हृदय भारत में ही अटका रह गया । 1916 में वे फ्रांस से जापान गयी , जहां भगवद्गीता पर उनके भाषण हुए । जापानी स्त्रियों की एक सभा में उन्होंने कहा - ' केवल एक जीव को जन्म देना मातृत्व नहीं है । अपनी संतानों में दिव्यत्व प्रकट हो - इस हेतु जागरूकता से प्रयास करने का नाम ही मातृत्व है । '
24 अप्रैल 1920 में मीरा सदा के लिए भारत में रहने के लिए पांडिचेरी चली आयीं । यहाँ रहकर भारत के सनातन आदर्शो के अनुसार जीवन पद्धति अपनाकर साधनारत हो गयी । उन्होंने महर्षि अरविन्द के आश्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था का भार संभाल लिया । धीरे - धीरे वे ' मीरा ' से ' श्रीमाँ ' बन गयी । आध्यात्मिक साधना और अनुभूतियों से आश्रम में देवत्व भरा वातावरण बनाने में वे महर्षि अरविन्द की सहायिका थी । महर्षि ने लिखा है - ' चार महाशक्तियाँ श्री माता जी के माध्यम से कार्यरत है । महालक्ष्मी , महासरस्वती , महाकाली और महेश्वरी । '
15 अगस्त 1947 में भारत को खण्डित स्वतंत्रता मिली । श्री माँ ने कहा - ' हिन्दुस्थान की स्वाधीनता का प्रश्न हल नहीं हुआ है । हिन्दुस्थान के पुनः अखण्ड होने तक हमें प्रतिक्षा करनी होगी । तब तक हमारी एक ही घोषणा होगी - ' हिन्दू चैतन्य अमर है । " उन्होंने आश्रम पर भारत का ध्वज फहराया । इस पर श्रीलंका और ब्रह्मदेश सहित अखण्ड भारत का मानचित्र था । सम्पूर्ण वंदे मातरम् का सामूहिक गान किया । " भारत विभाजन असत्य है , उसको मिटाना चाहिये और यह मिट कर रहेगा । " यह उनकी दृढ धारणा थी । आश्रम के खेल के मैदान में अखण्ड भारत का मानचित्र यही सोचकर बनवाया । प्रतिदिन मैदान में गणप्रचलन के समय उसे प्रणाम किया जाने लगा ।
5 दिसम्बर 1950 को महर्षि अरविन्द ने यह देह त्यागी । उनकी दिव्य शक्तियाँ श्री माँ के शरीर में चली गयीं । 6 जनवरी 1952 को श्री माँ ने अन्तर्राष्ट्रीय विद्या केन्द्र की नीव आश्रम में रखी । बालकों में दिव्यत्व का प्रकटीकरण हो - ऐसी शिक्षा का कार्यक्रम संचालित किया ।
1965 में श्री माँ की कल्पना के अनुरूप ' उषानगरी ' ( औरोविले ) का निर्माण शुरू हुआ , जिसके केन्द्र में था मातृमन्दिर । 28 फरवरी 1968 को इसका उद्घाटन उन्होंने किया । 121 देशों के बच्चे उपस्थित थे । भारत के 23 राज्यों - केन्द्र शासित प्रदेशों से बच्चे आये थे । संस्कृत थी यहाँ कि सम्पूर्ण भाषा ।
भारत के भविष्य का वर्णन करते हुए उनका कथन था कि ' भारत की सच्ची नियति है विश्व गुरू बनना , विश्व की भावी व्यवस्था भारत पर निर्भर है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । भारत सरकार को इस क्षेत्र में भारत के महत्व को स्वीकार करना चाहिये और अपने को इसी के अनुसार सुयोजित करना चाहिये । '
इस प्रकार भारतीय जीवन को भविष्योन्मुखी और आध्यात्मिक और अध्यात्मकेन्द्रित करके तथा विश्व में दिव्य जीवन की चेतना का केन्द्र भारत को बनाकर श्री माँ ने 17 नवम्बर 1973 को अपना भौतिक शरीर त्याग दिया और भारत की आत्मा में ही अपनी आत्मा को लीन कर लिया । उनके ये शब्द हमें सदा झकझोरेंगे - ' विश्व की भलाई के लिए भारत की रक्षा करनी होगी , क्योंकि एकमात्र भारत ही विश्व को शांति और एक नवीन व्यवस्था प्राप्त कर सकता है । भारत का भविष्य एकदम स्पष्ट है । भारत जगद्गुरू है । विश्व का भावी संगठन भारत पर निर्भर है । भारत एक जीवन्त आत्मा है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । '
पूज्य श्री माँ मीरा अल्फाँसा के श्रीचरणों अनन्त नमन ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

सोमवार, 1 अगस्त 2011

इस्लाम विरोधी नहीं है वंदे मातरम्


सन 1905 में ब्रिटिस वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया गया तो उसके विरोध में ' बंग भंग आन्दोलन ' हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिल कर किया । इस आन्दोलन का मुख्य नारा ही ' वन्दे मातरम् ' था । अन्ततः अंग्रेजों को बंगाल का विभाजन समाप्त करना पडा । ये कैसी विडम्बना है कि उसी राष्ट्रगीत का विरोध कुछ अरबपंथी कट्टर जेहादी मुल्ला - मौलवी इस्लाम के नाम पर करते रहते है और उसे गैर इस्लामी करार देते है ।
वन्दे मातरम् गीत में पूजा एवं अर्चना जैसी भावना नहीं है और न ही इसके शब्द किसी की मजहबी - आस्था को आहत करते है तो इस पर विवाद क्यों ! कविन्द्र बंकिम चन्द्र चैटर्जी ने देश प्रेम के उदात्त भाव से अभिभूत होकर यह अमर गीत वन्दे मातरम् लिखा था । श्री मौलाना सैयद फजलुलरहमान जी के शब्दों में ' वन्दे मातरम् गीत में बुतपरस्ती ( मूर्ति - पूजा ) की गन्ध नहीं आती है , वरन् यह मादरे वतन ( मातृभूमि ) के प्रति अनुराग की अभिव्यक्ति है । '
' नमो नमो माता अप श्रीलंका , नमो नमो माता ' ( श्रीलंका का राष्ट्रगीत )
' इंडोनेशिया तान्हे आयरकू तान्हे पुम्पहा ताराई ' ( इंडोनेशिया का राष्ट्रगीत )
भारत के वंदे मातरम् में ही भारत माता की वंदना नहीं है , श्रीलंका और मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया के राष्ट्रगीत में भी वही सब कुछ है जो वन्दे मातरम् में है । इनके राष्ट्रगीत में भी राष्ट्र को माता की ही संज्ञा दी गई है । जब वंदे मातरम् गैर इस्लामी है तो इन देशों के राष्ट्रगीत क्यों गैर इस्लामी नहीं करार दिये जाते ?
जिस आजादी की लडाई में वन्दे मातरम् का हिन्दू - मुस्लिम ने मिलकर उद्घोष किया था तो फिर क्यों आजादी के बाद यह इस्लाम विरोधी हो गया । वंदे मातरम् को गाते - गाते तो अशफाक उल्ला खां फाँसी के फंदे पर झूल गए थे । इसी वंदे मातरम् को गाकर न जाने कितने लोगों ने बलिदान दिया । जब देश के स्वतंत्रता संग्राम में यह गीत गैर इस्लामी नहीं था , तो आज कैसे हो गया !
अपनी मूल जडों से जुडा हुआ समझदार और पढा - लिखा राष्ट्रवादी मुसलमान अरबपंथी कट्टर जेहादियों की इस संकिर्णता एवं अमानवीयता से बेहद परेशान है । उनका कहना है - ' भारत का मुसलमान इसी भूमि पर पैदा हुआ है और इसी धरती पर दफन होता है इसलिए माता के समान इस जमीन की बंदगी से उसे कोई नहीं रोक सकता । ' मुसलमान सुबह से शाम तक इस भूमि पर 14 बार माथा टेकता है तो फिर उसे वन्दे मातरम् गाने में क्यों आपत्ति है ?
श्री ए. आर. रहमान ने तो इसका अनुवाद स्वरूप ' माँ तुझे सलाम ' स्वरबद्ध कर बन्दगी की है । पूर्व केन्द्रिय मन्त्री श्री आरिफ मोहम्मद खान का मानना है कि वन्दे मातरम् को मूर्ति पूजा से जोडना उचित नहीं । श्री खान ने स्वयं वन्दे मातरम् का अनुवाद मुस्लिम विद्वानों से उर्दू में कराया है और इसके माध्यम से सभी मुसलमानों को यह एहसास करवाने का प्रयास किया है कि वन्दे मातरम् इस्लाम विरोधी नहीं है । माँ के कदमों में जन्नत होती है तथा सच्चा इस्लाम भी यही शिक्षा देता है कि जिस धरती का अन्न - जल खाया है , हवा का सेवन किया है , उसका नमन वास्तव में खुदा की इबादत है ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '