आज सुबह समाचार मिला कि गुजरात के मुसलमानों को साम्प्रदायिक दंगों की कडवाहट भूलाकर आगे बढने की सलाह देने वाले विश्वविख्यात इस्लामिक शिक्षण केन्द्र दारूल उलूम देवबंद के कुलपति श्री मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को राष्ट्रवादी होने की सजा देते हुए मजलिस- ए -शूरा ने पद से हटा दिया है। मजलिस- ए -शूरा की बैठक में उपस्थित 13 सदस्यों में से 9 ने वस्तानवी को हटाने के पक्ष में और 4 ने इसके विपक्ष में मतदान किया। बहुमत के आगे मजबूर श्री वस्तानवी ने शूरा के इस फैसले को स्वीकार कर लिया, लेकिन कहा कि उनके साथ अन्याय हुआ है।
भारतीय मुस्लिम समाज का यह एक दुर्भाग्य ही रहा है कि उसका नेतृत्व सदैव अरब साम्राज्यवादी मानसिकता के मुल्ला-मौलवियों के हाथों में रहा है। सशक्त, ठोस, उदार और राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व उभर नहीं सका। जब भी वस्तानवी जैसे देशभक्त और राष्ट्रवादी पढे-लिखे विद्वान मुस्लिम नेता उभरते दिखाई दिये मुल्ला-मौलवियों ने उन्हें पथभ्रष्ट, इस्लाम के दुश्मन और काफिर तक घोषित कर दिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, मोहम्मद छागला जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को अरबपंथी मुस्लिम नेतृत्व ने कभी स्वीकार नहीं किया। जब मौलाना आजाद भारत के शिक्षा मंत्री बने तो अरबपंथी मुस्लिमों ने उन्हें हिन्दुओं का पिट्ठू तक कह दिया था।
जब जाकिर हुसैन भारत के प्रथम मुसलमान राष्ट्रपति बने तो स्थिति बहुत विचित्र बन गई। वे कवि और दार्शनिक थे। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान, दोनों की भावनाओं को अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया-
जाहिदे तंग नजर ने मुझे काफिर जाना,
और काफिर समझता है मुसलमां हूँ मैं।
इसी तरह भारत के पूर्व शिक्षामंत्री मोहम्मद करीम छागला ने जब एक समाचार पत्र को दिये साक्षात्कार में कहा कि - 'हम भारतीय मुसलमान बाहर से नहीं आए, हमारे पूर्वज हिन्दू ही थे।' तो उनके इस वक्तव्य पर वंदे मातरम् का विरोध करने वाली कट्टरपंथी जमीयत -उलेमा - ए -हिन्द ने उस समय मोहम्मद छागला का बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया था। क्या यह सच नहीं कि बाहर से केवल मुठ्ठीभर मुसलमान भारत आये थे? कारण कुछ भी रहे हों, परन्तु शेष सभी ऐसे मुसलमान है जिनकों अपनी उपासना पद्धति बदलकर इस्लाम स्वीकार करना पडा था।
समझदार और पढा लिखा राष्ट्रवादी मुसलमान मजहबी उन्माद से भरे अरबपंथी मुल्ला-मौलवियों की कट्टरता एवं अमानवीयता से बेहद परेशान है। उसका कहना है कि 'भारत का मुसलमान इसी भूमि पर पैदा हुआ है और इसी भूमि पर दफन होता है इसलिये माता के समान इस भूमि की सेवा एवं बंदगी करने से उसे कोई नहीं रोक सकता। माँ के कदमों में जन्नत होती है तथा सच्चा इस्लाम भी यही शिक्षा देता है कि जिस भूमि का अन्न - जल खाया है, हवा का सेवन किया है, उसका नमन वास्तव में खुदा की इबादत है।'
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रवादी मुसलमान अपने को भारतीय संस्कृति का अंग और हिन्दू पूर्वजों की संतान बताते है तथा वन्दे मातरम् के पक्षधर है। परन्तु भारत के अधिकांश राजनेता अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के नाम पर मुस्लिम समाज में व्याप्त अरबपंथी मानसिकता का जमकर शोषण करते है जिससे भारतीय राजनीति में सक्रिय राष्ट्रवादी मुसलमान अकेले पड जाते है और वे इस्लाम के कथित व्याख्याता इमामों एवं जमायती अलम्बरदारों की अरबपंथी मानसिकता को नहीं बदल पाते। शाहबानो मामले में देश के अनेक उदारवादी एवं राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता चिल्लाते रह गए, परन्तु अरबपंथी कट्टर उलेमाओं ने सरकार को धमकाकर सवौच्च न्यायालय के फैसले को भी बदलवा लिया।
पाकिस्तान के विचार का बीजारोपण करने वाले मोहम्मद इकबाल ने पहले तो भारत माता को अपनी प्रसिद्ध कविता 'हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।' लिख कर अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित किये। परन्तु बाद में इकबाल की यह राष्ट्रीय मनोवृत्ति भी संकुचित मानसिकता वाले अरबपंथी मुल्ला - मौलवियों की धमकियों के आगे अलगाववादी मनोवृत्ति में बदल गई तथा उन्होंने लिखा 'चीनो अरब हमारा हिन्दोस्तां हमारा, मुस्लिम है हम वतन है सारा जहां हमारा।'
स्पष्ट है कि विश्वव्यापी अरबपंथी इस्लामिक आन्दोलन की कल्पना में किसी एक देश के प्रति आस्था सबसे बडी बाधा है। इस बाधा को हटाया जाना इस्लाम के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक होता है।
स्पेन से अल्बानिया अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर तक इस्लाम को मानने वालों का राज है। परन्तु इनमें से किसी भी देश के पूर्वज, उसकी संस्कृति और उनकी मजहबी - सांस्कृतिक परम्पराओं को उन्होंने मान्यता नहीं दी। इस क्षेत्र के मुसलमानों की श्रद्धा का केन्द्र काबा ही रहा। कार्यक्षेत्र इस्लाम और विचारक्षेत्र कुरान शरीफ रहा। इस्लामिक भाईचारे के इस अति कठोर अनुशासन में किसी दूसरे विचार को स्थान नहीं मिल सका। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इन देशों में मतांतरित किये गए लोग भी अपने मूल धर्म, संस्कृति, इतिहास और राष्ट्रचेतना से कट गए।
आज भारतीय मुस्लिम समाज दोराहे पर खडा है। एक तरफ तो इब्राहीम गार्दी, अशफाक उल्ला खाँ, हसन मेवाती, दारा शिकोह, दौलत खान, अर्ब्दुरहीम खानखाना, रसखान, बाबा फरीद और डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे देशभक्तों की लम्बी परंपरा है तो दूसरी तरफ अरबपंथी देशविभाजक शक्तियाँ। इस दुविधा, भटकाव और असमंजस को दूर करने के लिए राष्ट्रवादी मुस्लिम समाज को संगठित होकर आगे आना होगा। किसी भी राजनैतिक अथवा सामाजिक दल से जुडे देशभक्त मुस्लिम नेताओं को अपने दलगत स्वार्थो से उपर उठकर अपने मजहब के अरबपंथी कट्टर रहनुमाओं, इमामों, मुल्ला - मौलवियों और उलेमाओं को राष्ट्रहित समझाने का एक प्रभावशाली आन्दोलन छेडना होगा। कुरान में अबूबकर द्वारा मिला दी गई अमानवीय आयतों को निकाल बाहर करना होंगा ।
वैज्ञानिक सोच तथा सहिष्णुता युक्त सह अस्तित्व एवं राष्ट्रीय संस्कृति पर गर्व की दिशा में बढना होगा। अन्त में यही कहूंगा कि अब एक नई सोच के साथ एक नई शुरूआत कीजिए अपने वतन के लिए।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
विश्वजीत सिंह जी, बहुत सही कहा आपने...
जवाब देंहटाएंमौलाना वस्तान्वी के लिए यही कहा जाता है कि ये मुस्लिम समाज को रूढ़िवादिता से निकालकर मुख्यधारा में लाने में सक्षम हैं| किन्तु अरब्परस्त मौलवी नहीं चाहते कि भारत का मुस्लिम समाज रूढ़ीवाद को छोड़े|
भाई आपने न तो कभी देवबंद देखा है और न ही कभी आपने मौलाना वस्तानवी और मौलाना मदनी को देखा है। ऐसा नहीं है कि मौलाना मदनी अरबपंथी और कट्टरपंथी हैं और मौलाना वस्तानवी उदारवादी और राष्ट्रवादी हैं। यह केवल आपके दिमाग़ की सोच है। आपकी मर्ज़ी है, आप जो सोचना चाहें सोच लें लेकिन अगर आपको सच जानना है तो आपको मेरा यह लेख पढ़ना चाहिए
जवाब देंहटाएंhttp://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/
आदरणीय डॉ. अनवर जमाल जी आप यहाँ पर आये और अपने विचारों से अनुग्रहित किया , आपका हार्दिक धन्यवाद । लेकिन आपको यह किसने कह दिया कि मैं देवबंद नहीं गया व मैंने मौलाना मदनी को भी नहीं देखा !
जवाब देंहटाएंमैं दारूल उलूम के 3.11.09 को आयोजित 30 वें ऐतिहासिक अधिवेशन में अपने प्रिय मित्र मुद्दसर हुसैन के साथ गया था , उस अधिवेशन में गृहमंत्री चिदम्बरम व प्रसिद्ध योगगुरू बाबा रामदेव भी उपस्थित थे , उसी अधिवेशन में मैंने मदनी को देखा था । यह अधिवेशन ऐतिहासिक इसलिए है क्योकि इसमें इस्लाम के सच्चे अर्थ मातृभूमि की बंदगी को भूलकर अरबपंथी शक्तियों ने वंदे मातरम् के खिलाप पारित किया था । इस फतवे से मेरे साथ - साथ मेरे मुस्लिम मित्र को भी मानसिक पीडा पहुँची थी ।