शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

शिकागो धर्मसंसद में स्वामी विवेकानन्द का ऐतिहासिक भाषण


अमेरिकावासी बहनों और भाइयों ,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है , उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खडा होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है । संसार में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ , धर्मो की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि - कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ । मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बताया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते है ।
मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है । हम लोग सब धर्मो के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन् समस्त धर्मो को सच्चा मानकर स्वीकार करते है । मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मो और देशों के उत्पीडितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है । मुझे आपको यह बताते हुये गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था , जिन्होंने दक्षिण भारत जाकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने मे मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुस्त जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहे है । भाइयों , मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं अपने बचपन से करता रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं -
रूचीता वैचित्र्यादृजुकटिल नाना पथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णक इव ।।
जैसे विभिन्न भिन्न - भिन्न स्रोतों से होकर समुन्द्र में मिल जाती है , उसी प्रकार हे प्रभु ! भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेडे - मेढे अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते है । यह सभा जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा है -
ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
जो कोई मेरी ओर आता है चाहे वह किसी भी प्रकार से हो मैं उसको प्राप्त होता हूँ लोग भिन्न - भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुये अन्त में मेरी ही ओर आते है ।
साम्प्रदायिकता , हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है । वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है , उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है , सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है । यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होती , तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया है और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है , वह समस्त धर्मान्धता का , तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीडनों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्यु - निनाद सिद्ध हो ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. विवेकानन्द ने आवश्यकता से अधिक नाम कमा लिया है। इंग्लैड और अमेरिका की भक्ति भी खूब की। लेकिन यह भाषण दिया और झूठ-मूठ का नाम कमाया।

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  2. मुझे गर्व होता है कि विवेकानन्द भारतीय थे ।

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