रविवार, 24 जुलाई 2011

गांधीजी और ईसाईयत भाग - दो


गतांक से आगे ......
मुझे यह कहते हुए पीडा हो रही है कि कुछ अपवादों को छोडकर आमतौर पर ईसाई प्रचारकों ने सामूहिक रूप से उस शासन - प्रणाली को सक्रिय सहायता पहुँचायी है , जिसने पृथ्वी पर सर्वाधिक सुसंस्कृत तथा सभ्य गिने जाने वाले समाजों को कंगाल बनाया है , हतवीर्य किया है तथा नैतिक दृष्टि से भी गिराया है । भारत में ईसाईयत का अर्थ है भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना तथा उनका यूरोपीयकरण करना । अगर ईसाई लोग सुधार आन्दोलन में शामिल होना चाहते है तो उन्हें मन में धर्मान्तरण का कोई विचार रखे बिना शामिल होना चाहिए । मुझे कहना पडेगा कि मिशनरियों के कार्यो से मेरे मन को चोट पहुँची है । ईसाई मिशनरी संस्थाओं का तो दावा है कि उनके सारे प्रयासों का एक ही लक्ष्य ' आत्मा का उत्थान ' है परन्तु अपने धर्मावलम्बियों की जमात बढाने की उनकी होड देखकर मेरे मन में बडी चोट पहुँची । मुझे ऐसा लगा कि यह तो धर्म का उपहास है ।
मेरा निश्चित मत है कि अमेरिका और इंग्लैण्ड ने मिशनरी संस्थाओं को जितना पैसा दिया है उससे लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हुई है । ' ईश्वर ' और ' धनलोभ ' को एक साथ नहीं साधा जा सकता । मुझे यह आशंका है कि भारत की सेवा करने के लिए धन - पिशाच को ही भेजा गया है , ' गॉड ' पीछे रह गया है । अतः वह एक - न - एक दिन प्रतिशोध अवश्य लेगा । भारत में ईसाईयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है । ईसाई मिशनों ने बच्चों को ईसाई बनाने के उद्देश्य से ही शिक्षा कार्य में रूचि ली है । अपने निजी अनुभवों के आधार पर मेरा यह निश्चित मत है कि आध्यात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे एवं सुविधायें बाटना बंद करें ।
निश्चय ही मैं जीजस का सम्मान करता हूँ परन्तु मैं यह कदापि नहीं मान सकता कि जीजस ' गॉड ' का अवतार या ' गॉड ' के एकमात्र बेटे है । ' बाइबिल के ' न्यू टेस्टामेन्ट ' में स्वयं प्रभु के वचन है ' यह मैं बिल्कुल नहीं मानता ।
मेरा धर्म मुझे ईसाईयों और मुसलमानों की भाँति यह नहीं यह नहीं सिखाता कि दुनिया के सभी लोग उस पर ऐसी ही आस्था रखें जैसी मैं रखता हूँ । मेरा धर्म मुझे ऐसी प्रार्थना सिखाता है कि संसार के सभी लोग अपने - अपने धर्मो एवं पंथों के सर्वोत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करने की ओर बढें । इसलिए मैं गीता , महाभारत , रामायण , उपनिषद् एवं भागवत को कभी भी भूलना या खोना नहीं चाहता ।
ईसाईयत उन्नीस सौ वर्ष पुरानी है । इस्लाम तेरह सौ वर्ष पुराना है । मुझे यह कहने में हिचक कभी नहीं रही कि वेद तेरह हजार वर्षो से भी अधिक प्राचीन हैं । सम्भवतः वे दस लाख वर्षो से भी अधिक प्राचीन है क्योंकि वेद ईश्वर - वचन है । इसलिए वेद उतने ही पुरातन है जितने सृष्टि एवं ईश्वर । फिर भी हम विवेक एवं अनुभूति के प्रकाश में ही वेदों की व्याख्या करते हैं । आप लोग ईसाईयत का संदेश देने भारत आये है । कुछ दे पाना तभी सम्भव है जब आप यहाँ से कुछ लें , ग्रहण भी करें । अतः अपना हृदय इस धरती के ज्ञानकोष के लिए खोलें , तभी आप बाईबिल के संदेश को भी यर्थात रूप से समझ सकेंगे । "

( गांधी वांगमय , ' My Experiments With Truth ' एवं हरिजन से संकलित )
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

1 टिप्पणी:

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