मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भारत की दत्तक आध्यात्मिक पुत्री श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा


महान व्यक्तियों के जीवन व विचार अनादि काल से विपरीत परिस्थितियों में हमारी राष्ट्रीय चेतना को जीवन्त रखते रहे है । उसी कडी में श्रीमाँ मीरा अल्फाँसा भी है जिनका जन्म फ्रांस में हुआ था पर भारत की सनातन आध्यात्मिक परम्परा से प्रभावित होकर वे प्रभावित होकर वे भारत आई और यहीं की होकर रह गयी । महर्षि अरविन्द घोष के सान्निध्य में साधना के उच्चतम सोपानों का अनुभव कर एक माँ के रूप में उन्होंने भारत की सन्तानों को उनकी सनातन आध्यात्मिक चेतना के प्रति जागृत किया तथा भारत विश्व में अपनी मार्गदर्शक भूमिका निभा सके इस हेतु सक्रिय होने का उन्होंने आवाहन किया । उन्होंने कहा था कि - ' भारत एक जीवन्त सत्ता है । यह सत्ता उतनी ही जीवित जागृत है जितने शिव आदि देवता । '
श्री माँ का जन्म फ्रांस की राजधानी पेरिस में 21 फरवरी 1878 को हुआ था । नाम रखा गया मीरा अल्फाँसा , जिसके आद्याक्षर है एम. ए. ( अर्थात माँ ) । शैशव से ही ' माँ ' थी वे । चिन्तनशील , अध्ययनशील और अत्यन्त मेधावी । चार वर्ष की आयु में वह ध्यानस्थ हो जाती थीं और एक अलौकिक सी ज्योति मुखमंडल पर छा जाती थी । इसी स्थिति में 1904 में उन्हें एक भारतीय आध्यात्मिक संत का सूक्ष्म दर्शन प्राप्त हुआ । श्री माँ ने नारद भक्ति सूत्र एवं ईशादि उपनिषदों का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया । परमात्मा की पूर्ण प्राप्ति के लिए वह सदैव व्याकुल रहती थी । इसी खोज में उनके मन में भारत आने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई और 7 मार्च 1914 को वे अपने पति के साथ भारत के लिए रवाना हो गई जहाँ वह फ्रांस की राज्यसभा के लिए पांडिचेरी से चुनाव लडने वाले थे ।
29 मार्च 1914 को सायंकाल उन्होंने श्री अरविन्द के दर्शन किए तो पहली ही दृष्टी में पहचान लिया कि यह वही दिव्य अध्यात्म पुरूष हैं जो उनकी साधना में उनकी सहायता किया करते थे । अलौकिक शिष्या के अलौकिक गुरू ।
15 अगस्त 1914 को महर्षि अरविन्द के जन्मदिन पर श्रीमाँ ने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं में ' आर्य ' मासिक शुरू किया । सनातन हिन्दू विचार के प्रचार - प्रसार के लिए यह मासिक समर्पित था । कुछ समय बाद उन्हें फ्रांस वापस लौटना पडा , पर हृदय भारत में ही अटका रह गया । 1916 में वे फ्रांस से जापान गयी , जहां भगवद्गीता पर उनके भाषण हुए । जापानी स्त्रियों की एक सभा में उन्होंने कहा - ' केवल एक जीव को जन्म देना मातृत्व नहीं है । अपनी संतानों में दिव्यत्व प्रकट हो - इस हेतु जागरूकता से प्रयास करने का नाम ही मातृत्व है । '
24 अप्रैल 1920 में मीरा सदा के लिए भारत में रहने के लिए पांडिचेरी चली आयीं । यहाँ रहकर भारत के सनातन आदर्शो के अनुसार जीवन पद्धति अपनाकर साधनारत हो गयी । उन्होंने महर्षि अरविन्द के आश्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था का भार संभाल लिया । धीरे - धीरे वे ' मीरा ' से ' श्रीमाँ ' बन गयी । आध्यात्मिक साधना और अनुभूतियों से आश्रम में देवत्व भरा वातावरण बनाने में वे महर्षि अरविन्द की सहायिका थी । महर्षि ने लिखा है - ' चार महाशक्तियाँ श्री माता जी के माध्यम से कार्यरत है । महालक्ष्मी , महासरस्वती , महाकाली और महेश्वरी । '
15 अगस्त 1947 में भारत को खण्डित स्वतंत्रता मिली । श्री माँ ने कहा - ' हिन्दुस्थान की स्वाधीनता का प्रश्न हल नहीं हुआ है । हिन्दुस्थान के पुनः अखण्ड होने तक हमें प्रतिक्षा करनी होगी । तब तक हमारी एक ही घोषणा होगी - ' हिन्दू चैतन्य अमर है । " उन्होंने आश्रम पर भारत का ध्वज फहराया । इस पर श्रीलंका और ब्रह्मदेश सहित अखण्ड भारत का मानचित्र था । सम्पूर्ण वंदे मातरम् का सामूहिक गान किया । " भारत विभाजन असत्य है , उसको मिटाना चाहिये और यह मिट कर रहेगा । " यह उनकी दृढ धारणा थी । आश्रम के खेल के मैदान में अखण्ड भारत का मानचित्र यही सोचकर बनवाया । प्रतिदिन मैदान में गणप्रचलन के समय उसे प्रणाम किया जाने लगा ।
5 दिसम्बर 1950 को महर्षि अरविन्द ने यह देह त्यागी । उनकी दिव्य शक्तियाँ श्री माँ के शरीर में चली गयीं । 6 जनवरी 1952 को श्री माँ ने अन्तर्राष्ट्रीय विद्या केन्द्र की नीव आश्रम में रखी । बालकों में दिव्यत्व का प्रकटीकरण हो - ऐसी शिक्षा का कार्यक्रम संचालित किया ।
1965 में श्री माँ की कल्पना के अनुरूप ' उषानगरी ' ( औरोविले ) का निर्माण शुरू हुआ , जिसके केन्द्र में था मातृमन्दिर । 28 फरवरी 1968 को इसका उद्घाटन उन्होंने किया । 121 देशों के बच्चे उपस्थित थे । भारत के 23 राज्यों - केन्द्र शासित प्रदेशों से बच्चे आये थे । संस्कृत थी यहाँ कि सम्पूर्ण भाषा ।
भारत के भविष्य का वर्णन करते हुए उनका कथन था कि ' भारत की सच्ची नियति है विश्व गुरू बनना , विश्व की भावी व्यवस्था भारत पर निर्भर है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । भारत सरकार को इस क्षेत्र में भारत के महत्व को स्वीकार करना चाहिये और अपने को इसी के अनुसार सुयोजित करना चाहिये । '
इस प्रकार भारतीय जीवन को भविष्योन्मुखी और आध्यात्मिक और अध्यात्मकेन्द्रित करके तथा विश्व में दिव्य जीवन की चेतना का केन्द्र भारत को बनाकर श्री माँ ने 17 नवम्बर 1973 को अपना भौतिक शरीर त्याग दिया और भारत की आत्मा में ही अपनी आत्मा को लीन कर लिया । उनके ये शब्द हमें सदा झकझोरेंगे - ' विश्व की भलाई के लिए भारत की रक्षा करनी होगी , क्योंकि एकमात्र भारत ही विश्व को शांति और एक नवीन व्यवस्था प्राप्त कर सकता है । भारत का भविष्य एकदम स्पष्ट है । भारत जगद्गुरू है । विश्व का भावी संगठन भारत पर निर्भर है । भारत एक जीवन्त आत्मा है । भारत आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व में मूर्तिमान कर रहा है । '
पूज्य श्री माँ मीरा अल्फाँसा के श्रीचरणों अनन्त नमन ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '

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