गुरुवार, 26 जुलाई 2012

अल्लाह बनाम तारी बनाम ईश्वर

इस्लाम का प्रारम्भ राष्ट्रीयता को अमान्य करते हुए हुआ । उनके लिए राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज नहीं है । दुनिया भर के सारे मुसलमान जो एक राष्ट्र बनाते हैं , उसको मिल्लत कहते हैं । इस्लामिक अरब की साम्राज्यवादी नीति के अनुसार सब एक मिल्लत हैं एक राष्ट्र हैं , लेकिन हो नहीं सका । इस्लाम जब विभिन्न देशों में गया , तो राष्ट्रीयता के आधार पर बट गया । अरबिस्तान से तुर्किस्तान में पहुँचा , तो तुर्किस्तान की राष्ट्रीयता ने नया रूप ले लिया । 1918 में जब खलीपा को गद्दी से उतार कर मुस्तफा कमाल पाशा वहाँ का प्रमुख बन गया , तो उसने सारे मुल्ला - मौलवियों को बुलाकर कहा - " कौन सी भाषा में नमाज पढ़ते हो ? " उन्होंने कहा ' हम अरबी में पढ़ते हैं ' " अरबी में क्यों ? क्या भगवान को तुर्की भाषा समझ में नहीं आती ? खबरदार ! अब अरबी भाषा में नमाज नहीं पढ़ोगे और अल्लाह नहीं कहोगे । अल्लाह अरबी शब्द है , तुर्की का शब्द है तारी , सबको तारी कहना पड़ेगा । "
इसी प्रकार ईरान वालों ने अरब साम्राज्यवादी मानसिकता के स्थान पर इस्लाम के शिया पंथ को स्वीकार करके अपनी ईरानी राष्ट्रीयता को उसके माध्यम से प्रकट किया । पारसी मत में जितनी भी मान्यताएँ थी , उन सारी मान्यताओं को उसके अन्दर डालकर उसका एक नया रूप विकसित किया , जिसको हम " सूफीमत " कहते हैं । जिस सूफी मत की अंतिम सीढ़ी है - अन अल् हक ( अहं ब्रह्मास्मि ) तो उनका राष्ट्रीयकरण इस रूप में हुआ । इसी प्रकार इंडोनेशिया में भी इस्लाम गया , लेकिन वहाँ के लोगों ने हिन्दू संस्कृति को इस्लाम के साथ ऐसा अच्छे ढंग से मिला लिया कि आज वहाँ का 90 प्रतिशत आदमी मुसलमान होने के बाद भी रामायण , महाभारत को अपना सांस्कृतिक ग्रन्थ कहता है । राम और कृष्ण को अपना पूर्वज मानकर चलता है । संस्कृतनिष्ठ नाम रखता है - सुकर्ण , सुहृद , रत्नावली आदि । मेघवती सुकर्णपुत्री वहाँ की उपराष्ट्रपति रह चुकी है । वहाँ के विश्वविद्यालय के नाम है , अमितजय विश्वविद्यालय , त्रिपति विश्वविद्यालय । वहाँ जकार्ता जायेंगे , तो चौरास्ते के ऊपर भगवान श्रीकृष्ण का गीतापदेश देने वाला पूरा रथ बना हुआ है , जिसे बड़े गौरव के साथ वहाँ देखा जाता है । उनका मत परिवर्तन तो हो गया लेकिन उन्होंने अपना सांस्कृतिक परिवर्तन न होने दिया ।
लेकिन भारत में मोहनदास गांधी और जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू की गई सांप्रदायिक तुष्टीकरण की नीतियों के कारण देश भी सांम्प्रदायिक आधार पर बट गया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी जन्म न ले सका । अब खण्डित भारत के धर्मांतरित मुस्लिम समाज को ही भारत की अस्मिता , अपने मूल भारतीय पूर्वजों , भाषा , संस्कृति आदि के बारे में सोचना पडेगा । जब इंडोनेशिया के मुस्लिम नागरिक अपनी सांस्कृति आस्था के अनुसार शिव की पूजा कर सकते है , अपनी कब्रों पर रामायण की पंक्तियां खुदवा सकते है तथा तुर्की वाले अल्लाह को तारी के नाम से पुकार सकते है , तो तुम अल्लाह को ईश्वर के नाम से क्यों नहीं पुकार सकते ? अरबी के स्थान पर संस्कृत को क्यों नहीं अपना सकते ? भारत का मुसलमान तो यहीं का है , तो इसलिए वहाँ के लोग रामायण , महाभारत को मानते हैं , तुम क्यों नहीं मान सकते ? राम , कृष्ण को अपना पूर्वज मानते है तो तुम क्यों नहीं मान सकते ? तुम मानोगे , तो इस धरती से जुड़ जाओगे और जो आदमी धरती से जुड़ जायेगा , वह राष्ट्र का अपना बन जायेगा ।
भारत का मुसलमान केवल मुसलमान है , इस आधार पर किसी मुस्लिम देश में स्थान नहीं पा सकता । हा , हज करने जाओ , दर्शन करने जाओ , चलेगा , वहाँ पर बस नहीं सकते । अकेले सऊदी अरब से 22 हजार बंगलादेशी मुसलमानों को निकाल बाहर किया गया । आखिर मुसलमान थे न । मुसलमान भाई हैं , फिर क्यों निकाला ? केवल मजहब जो है जोड़ता नहीं है , धरती जोड़ती है । इसलिए हमारा कहना है कि भारत का मुसलमान जो इस धरती पर पैदा हुआ है , उसको अपना माने , उसको अपनी माँ कहे । उसको वन्दे मातरम् कहने में तकलीफ क्यों होती है ? गर्व से कहना चाहिए , हाँ , यह हमारी माता है , हम इसके पुत्र है । अपने सारे पूर्वजों को मान लो । यहाँ की संस्कृति कहती है , सत्य एक है इसी को विभिन्न नामों से पुकारते है , उस संस्कृति को स्वीकार कर लो , तो झगड़ा कुछ नहीं रहेगा , आप धरती से जुड़ जाओगे तो यह देश अपना हो जायेगा ।
- विश्वजीत सिंह ' अनंत '
सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा ( रजिस्टर्ड )
Email : svmbharat@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. आपका ज्ञान अधुरा है दोस्त, इस्लाम में संस्कृत, तुर्की, बंगाली, उर्दू, चीनी, अंग्रेजी या दुनिया की किसी भी भाषा को अपनाने की कोई मनाही नहीं है... और हो भी क्यों? और ना ही ईश्वर, खुदा जैसे संबोधन में कोई परेशानी है... मेरे जैसे लाखो करोडो लोग ईश्वर जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं... और श्री राम एवं कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं... बस बात इतनी सी है कि उन्हें ईश्वर नहीं मानते...

    जहाँ तक नमाज़ की बात है, नमाज़ में कुरआन के श्लोकों को पढ़ा जाता है, इसीलिए नमाज़ पढ़ते समय आपको लगा की अरबी पढ़ी जाती है, क्योंकि कुरआन अरबी भाषा में ही उतरा है. और कुरआन को उसके असल रूप में समझने के लिए या पूरी तरह सही उच्चारण के लिए अरबी का ज्ञान होना आवश्यक है ताकि अर्थ का अनर्थ ना हो.... जहाँ तक अरबी तथा वहां के शहर मक्का और मदीना को पसंद करने की बात है, तो यह केवल मुहम्मद (सल.) से मुहब्बत के कारण से है. और जिससे मुहब्बत होती है उसकी गली का पत्थर भी प्यारा लगता है. ना तो किसी भाषा में और ना ही किसी शहर में यहाँ तक कि काबा में भी कोई ऐसी बात नहीं है कि उसको पूज्य समझा जाए...

    खुद मुहम्मद (सल.) ने कहा (जिसका अर्थ है) कि कितना प्यारा है 'काबा' लेकिन इंसान का दिल तोडना 'काबा' को ढहाने से भी बड़ा गुनाह है.

    बात केवल इतनी सी है कि लोगो ने धर्म को समझा ही नहीं क्योंकि वह धर्म को मानते नहीं बल्कि मानने का दिखावा करते हैं...
    दिखावे और मुहब्बत का फर्क तो आप समझते ही होंगे?

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