रविवार, 23 जनवरी 2011

युवाओँ के प्रेरणा स्रोत धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द भाग - एक


" उतिष्ठित, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत् " - उठो, जागो और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये, का सन्देश देने वाले स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे सन्यासी धर्मयोद्धा का नाम है जिन्होँने आधुनिक इतिहास मेँ पहली बार सनातन वैदिक संस्कृति का अंतरराष्ट्रिय स्तर पर प्रतिनिधित्व किया । उन्होँने अपने सम्बोधन की शुरूआत ' बहनोँ और भाईयोँ ' से की जिसे सुनकर श्रोताओँ ने खडे होकर ऐसी तुमुल तालियोँ की बोछार की जो लगातार दो मिनट तक जारी रही और जिससे पूरा सभामण्डप गूँज उठा । श्रोतागण भी कोई साधारण मानवोँ का समूह नहीँ था, विश्व के कोने - कोने से आमन्त्रित सात हजार तत्वचिन्तक और प्रबुद्ध विद्वान थे । यह उस समय की बात है जब भारत परतंत्र था और पाश्चात्य जगत को भारत और भारतीयोँ के नाम से भी घृणा थी ।
स्वामी विवेकानन्द एक युगांतरकारी प्रतिभाशाली मनीषी थे । उनकी अलौकिक प्रतिभा केवल आध्यात्मिक क्षेत्र मेँ ही प्रस्फुटित नहीँ हुई अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेँ उनकी दिव्य - दृष्टि का संचरण हुआ है । उन्होँने राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग , स्वाधीन भारत, कला, भाषा-संस्कृति, राष्ट्रधर्म, सन्यास, दलितोद्धार, शिक्षा, नारी सशक्तिकरण आदि विविध विषयोँ पर मौलिक विचार प्रकट किये है जिनकी प्रासांगिकता आने वाली पीढियोँ के लिए भी बनी रहेगी । स्वामीजी ने परतंत्रता, पाखण्ड और कुरूतियोँ की बेडियोँ मेँ जकडकर नष्ट हो चले हिन्दू धर्म को गतिशील एवं व्यवहारिक बनाया तथा सुदृढ भारत के पुनर्निमाण के लिए लोगोँ से पश्चिमी विज्ञान और भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोडने का आग्रह किया ।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 ईश्वी मेँ कलकत्ता ( वर्तमान कोलकाता ) के एक कुलीन परिवार मेँ हुआ । इनका पूर्व - आश्रम नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, सन्यास लेने के बाद मेँ अपने शिष्य खेतडी नरेश के अनुरोध पर अपना नाम ' विवेकानन्द ' धारण किया । इनके पिता थे विश्वनाथदत्त और माता का नाम था श्रीमती भुवनेश्वरी देवी । इनमेँ एक ओर जहाँ आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात प्रवृत्ति तथा प्राचिन धार्मिक प्रथाओँ के प्रति आदर था, वही दूसरी ओर उतना ही उनका प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था । वह प्रत्येक समस्या के समाधान के लिये वे अकाटय दलीलोँ की अपेक्षा किया करते थे । इसके लिए वे अनेक प्राख्यात धार्मिक नेताओँ से मिले किन्तु संतोष जनक उत्तर न पा सके - उनकी आध्यात्मिक प्यास और भी बढ गई ।
1881 मेँ वह स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले । नरेन्द्रनाथ ने उनसे पूछा, " महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है ' ' हाँ, मैँने उन्हेँ देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हेँ देख रहा हूँ, बल्कि तुमसे भी अधिक प्रगाढ रूप से । " - श्रीरामकृष्ण देव ने दृढता से उत्तर दिया । नरेन्द्रनाथ का संशय स्वाहा हो गया, शिष्य की दीक्षा का यही से प्रारम्भ हुआ । 1881 से 1886 तक स्वामी विवेकानन्द अपने गुरू परमहंस रामकृष्ण से आध्यात्मिक जीवन की विद्या ग्रहण करते रहे । मात्र 16 वर्ष की अवस्था मेँ दक्षिणेश्वर के दिव्य संत से मिलन के बाद इनका जीवन सन्यास के रूप मेँ परिणित हो गया ।
अपनी महासमाधि के तीन - चार दिन पूर्व श्रीरामकृष्णदेव ने नरेन्द्रनाथ को अपनी स्वयं की सारी शक्ति दे डाली और उनसे कह दिया - ' मेरी इस शक्ति से जो तुममेँ संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बडे - बडे काम होँगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये होँ ।' शक्तिपात्त के बाद स्वामी विवेकानन्द के दृष्टिकोण मेँ एक जबर्दस्त परिवर्तन हुआ । भारतवर्ष को अच्छी प्रकार से जानने और पुनर्निमाण करने की तीव्र आकांक्षा से प्रेरित होकर उन्होँने छ्ह वर्षो तक सम्पूर्ण भारत का पैदल भ्रमण किया, इस काल मेँ उनको कई दिनोँ तक भूखे भी रहना पडा । अपने भ्रमण काल मेँ वस सामर्थ्यवानोँ और गरीबोँ दोनोँ के अतिथि रहेँ । उनकी भारत भ्रमण की यह यात्रा कन्याकुमारी मेँ सम्पन्न हुई । वहाँ स्वामी विवेकानन्द ने परम वैभलशाली भारत के पतन के कारणोँ का मनन किया और उन साधनोँ का चिन्तन किया जिससे भारत का पुनर्निमाण होँ । उसी क्षण उन्होँने पाश्चात्य देश मेँ होने वाली शिकागो धर्म संसद मेँ जाने का निश्चय किया ।
अपने नवयुवक भक्तोँ और खेतडी नरेश के आर्थिक सहयोग से स्वामीजी शिकागो पहुंचे । शिकागो धर्म संसद मेँ वह बिना आमंत्रण के गये थे, अतः परिषद् मेँ उनको प्रवेश की अनुमति मिलनी कठिन हो गयी । उनकोँ प्रवेश न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया । उस समय भारतीय होना पाप समक्षा जाने लगा था तथा पाश्चात्य जगत हिन्दू संस्कृति से घृणा करता था । हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के उद्योग से किसी प्रकार उन्हेँ धर्मसभा मेँ समय मिला और 11 सितम्बर 1893 को उनकी अपरोक्षानुभूति से निकले औजस्वी तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौका दिया । स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण की शुरूआत " अमेरिकी बहनोँ और भाईयोँ " से की तथा वहाँ एकत्र विद्वानोँ को वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देने वाले भारत एवं हिन्दू धर्म के वेदान्तिक संदेशोँ से अवगत कराया जो सभी धर्मो का सार है । अपने औजस्वी विचारोँ द्वारा उन्होँने भारत तथा हिन्दू धर्म की गौरवमय भव्यता को जाग्रत किया । 1893 से 1896 तक स्वामीजी ने पाश्चात्य देशोँ मेँ भ्रमण कर औजस्वी भाषण दिये, वेदान्त समिति की स्थापना की, उनके ग्रन्थ राजयोग का संकलन किया गया । अनेक विद्वानोँ ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया जिनमेँ कैप्टेन तथा श्रीमती सर्वियर, भगिनी निवेदिता, ई. टी. स्टर्डी एवं जे. जे. गुडविन प्रमुख है । पाश्चात्य देशोँ मेँ भारत तथा हिन्दू धर्म की विजय पताका फैराकर स्वामी विवेकानन्द भारत वापस लौट आये ।
क्रमश ......
विश्वजीत सिंह 'अनंत'

2 टिप्‍पणियां:

  1. विश्व मेँ भारतीय संस्कृति को एक नई पहचान देने वाले धर्मयोद्धा स्वामी विवेकानन्द सरस्वती के श्रीचरणोँ मेँ नमन ।

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    १२ जनवरी 1863 को जन्मे नरेन्द्रनाथ दत्त [ विवेकानंद], रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे । स्वामी विवेकानंद ने विलुप्त होते हिन्दू धर्म को बचाया तथा पश्चिम में भी इसका प्रचार-प्रसार किया। इन्होने वेदान्त, योग तथा विज्ञान को भी उचाईयों तक पहुँचाया।

    http://zealzen.blogspot.com/2010/09/zeal_14.html

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